कहानी : एक औरत- राजेन्द्र सिंह बेदी

 तरक्की पसंद उर्दू कथाकारों में राजिंदर सिंह बेदी का नाम अत्यंत आदर के साथ लिया जाता है. कहानियों के साथ ही फिल्मों से भी उनका काफी गहरा संबंध रहा। उनकी कहानिया जमीन से जुड़ी होती हैं। उनकी कहानियों से गुजरते हुए हमारी अपनी संजीदगी बेदी की संजीदगी से एकमेक हो उठती है. उनकी शैली तथा भाषा की नजाकत हमें मुग्ध कर लेते हैं. उनकी रचनाओं की संख्या कम जरूर है लेकिन जमीन बहुत बड़ी है. आज पढ़ें उनकी कहानी –

एक औरत- राजेन्द्र सिंह बेदी

टाउन हॉल के सामने नसीमबाग के अंदर दो-तीन चीजें ही मेरी तवज्जह का मरकज़ थीं. एक लंबा सा सुंबुल का दरख्त जो भीगी हुई सब्ज़ छाल का एक खूबसूरत कोट पहने या और जो हवा में दूर दीहड़ रामधन के कुदरती नशे से एक शराबी की तरह झूमता नजर आता था. दूसरे खिलंदड़, अहमक सा तालिबे-इल्म, जो अपनी किताबों को दूर फेंककर हमेशा एक ही अंग्रेजी गाना गाया करता था, जिसका मतलब है- जब सर्दी आती है तो बहार दूर नहीं रहती. इन दोनों के अलावा बीस-बाईस बरस की एक औरत दिखाई दिया करती जो अपने लकवाज़दा बच्चे के राल से आलूदा चेहरे को चूमते हुए दीवानी हो जाती. वह अमूमन एक ही तरह की सफेद वैल का सादा साड़ी पहना करती. और उसके तेवरों के दरमियान कहीं लिखा होता- परे हट जाओ.

पहले-पहल जब मैंने उसे देखा तो मुझे खयाल पैदा हुआ कि वह भूखी है. लेकिन उसके फौरन बाद ही उसने कुछ माल्टे खरीदे और अपने बच्चे के सामने बिखेर दिए. अगर वह भूखी होती तो जरूर उन माल्टे में से एक-आध माल्टा खाकर अपने पेट की आग बुझा लेती. फिर मैंने सोचा कि शायद वह जिंसी भूख की शिकार है. लेकिन अगर मेरा यह खयाल दुरुस्त होता तो उसके माथे पर वो तेवर न होते और वह नव्वे फीसदी औरतों की तरह अपने लिए भी कोई शोख रंग मुंतखब करती.

लकवाज़दा होने के बाइस उसका बच्चा बदसूरत था और उसका चेहरा हमेशा राल से आलूदा होता था. उसकी मां बीसियों दफा रुमाल से उसका मूँह और ठोड़ी साफ करती, लेकिन बच्चा एक एहतिजाज से इधर-उधर सिर हिलाने लगता और साफ किए जाने के फौरन बाद ही लुआब के बुलबुले उड़ाने लगता, जो हवा से बिखरते हुए उसकी माँ और उसके अपने चेहरे पर आ गिरते और एक अजीब नफरतअंगेज कैफियत पैदा हो जाती. उसके बाद वह एक बेमानी, अहमकाना हँसी हँसने लगता और वह औरत खुशी से रोने लगती.

बाद में मुझे पता चला कि एक सियाह मोटर जो हर रोज नसीमबाग के दरवाजे पर आ खड़ी होती है और जिसका ड्राइवर बड़ी बदतमीजी से हार्न को जोर-जोर से बजाता है, उसी औरत को लेने आती है उस कार में से एक लंबा-चौडा मर्द एक चूड़ीदार पायजामा, जिसका इजारबंद मलमल की कमीज के नीचे से झाँका करता, पहने आता. उसकी गुरगाबी का पेट चमड़ा बहुत चमकता था. उसका मुँह पान की पीक से भरा हुआ होता. ज्यादा करीब होने से उसकी सुर्ख  आँखो और उसके सांस के तअफ्फुन’ से उसके शराबी होने का पता चलता. शायद वही आदमी  उस बच्चे के लकवाजदा होने का बाइस था. वह औरत के क़रीब आकर उसे बहुत गुरसिना निगाहों से देखा करता और उसे बाजू से पकडकर मोटर की तरफ़ ले जाने की कोशिश करता. इन हरकतों से वह उस औरत का खाविंद तो दिखाई देता था मगर उस बच्चे का बाप नहीं.

अपने खाविंद के बुलाने पर भी वह औरत अपने मखसूस दिवानेपन से उस बच्चे के साथ खेलती जाती और उसका खाविंद बसा – औकात एक ठुंठ पर बैठकर टाँग फैलाए अपनी बीवी की मजनूनाना हरकतों को देखता. कुछ अरसे बाद बीवी उन्हीं दूरबाश गालों से अपने खाविंद की तरफ देखती और बच्चे के छोटे-मोटे कपडे, सेलूलाइड के खिलौने समेटने लगती. उधर हार्न की आवाज बुलंद होती जाती. इधर औरत अपने काम में तेजी से मुतहमिक हो जाती.

मुझे उस औरत से एक किस्म का उन्स हो गया था. एक किस्म की दिलचस्पी जिसकी बिना पर मैं उसकी हर हरकत में मुआफी तलाश कर लेता था। मैं नहीं कह सकता था कि वह औरत वाकई खूबसूरत थी या नहीं, लेकिन मेरे तखय्युल ने उसे बेहद हसीन बना लिया था. उसका बालों को संवारने का अंदाज मुझे बहुत पसंद था. वह झटके से अपने बेतरतीब बालों को पीछे की तरफ फेंक देती और अपनी उँगलियोँ फैलाकर शाने की तरह उनमें दाखिल करती हुई अपना हाथ पीछे की तरफ ले जाती और मेरे लिए यह तमीज करना मुश्किल था कि उसकी हरकतें इरादी है या गैर-इरादी.

मुझे उसके खाविंद की तरह उसके बच्चे और उसके लुआबआलूद चेहरे से बेहद नफरत थी. अलबत्ता बच्चे की बेचारगी पर रहम बहुत आता जो मेरे दिल में मुहब्बत के जज़्बे को उकसा देता. लेकिन इस किस्म की मुहब्बत जिसकी तह में हज़ारों नफ़रते कूट-कूटकर भरी हों, उससे तो मुहब्बत न करना ही अच्छा है.

बहुत दिनों तक मैं किसी ऐसे मौके का मुंतज़िर रहा जब मैं उस औरत से हमकलाम हो सकूँ,  जैसा बाज़ारी मुहब्बत में होता है कि किसी लड़की की कोई चीज़ गिर जाती है और कोई लड़का उसे उठाकर साफ़ करते हुए कहता है – “मोहतरमा, आपका रूमाल!”

फिर वह लड़की मुस्कराकर शुक्रिया अदा करती है और बस मूहब्बत शुरू हो जाती है. मैं  बहुत दिनों तक देखता रहा कि उस औरत की कोई चीज़ गिरे और मैं कहूँ – “मोहतरमा, आपकी….. आपकी….. आपकी….

और फिर मुहब्बत शुरू हो जाए. मगर वह औरत बहुत मोहताज थी और उसने मुझे कोई ऐसा मौका न दिया. अकसर वह मुझे इर्द-गिर्द मंडलाते देखती, लेकिन मैं उसको मुतवज्जह न कर सका.

आख़िर उसे एक दिन माल्टे ख़रीदने की जरूरत पेश आ गई. उस वक़्त बच्चे की जुराबें, रबड़ की गुड़िया और खाने की चंद चीज़ें जिनके आसपास कौए मंडला रहे थे, पड़ी थीं. अगर वह खा जाते और शायद बच्चे की चमकती हुई आँखों को ठोंग भी लेते. बच्चे में पहचानने की सलाहियत पैदा हो रही थी और वह माल्टों का सुर्ख रंग पसंद करता था। उस औरत ने कई मर्तबा उठना चाहा लेकिन सब बातों की वजह से वह उठ न सकी. मैंने मौका पाकर उसे कुछ कहना चाहा लेकिन चंद दिनों से उससे मुख़ातिब करने के लिए जो अल्फ़ाज़ मैंने हिफ्ज़  कर रखे थे, भूल गए और मैं फ़कत यही कह सका-

“मोहतरमा, आप क्या चाहती हैं?”

और उस औरत के तेवर बदस्तूर कायम रहे, जो उसे अपने खाविंद की आँखों में दिखाई देता था, उसने फिर उसी नफ़रत से भरी हुई आवाज़ में कहा ‘जी नहीं, मुझे आपकी मदद की जरूरत नहीं.”
और मेरी मोहब्बत मुकफ्फल पड़ी रही.
उस औरत का खाविंद मवेशियों के अस्पताल में मुअल्लिज था. कम-अज़-कम उसकी शक्ल और बातों से तो यही पता चलता था। हर वक़्त हैवानों के साथ रहने से उसमें एक खास किस्म की हैवानियत पैदा हो चुकी थी। उसे अपने लकवाज़दा बच्चे पर कभी प्यार नहीं आता था और जब उसकी बीवी बच्चे को उसके बाजुओं में धकेलने की कोशिश करती तो वह घबराता हुआ पीछे हट जाता, “है है ! मेरे कपड़े खराब हो जाएँगे – मेरे,….मेरे….

और फिर वह उन्हीं गुरसना निगाहों से अपनी बीवी की तरफ देखता हुआ कहता “चलो मेरी जान. शोफ्राब बहुत शोर मचा रहा है.”

उस औरत का नाम दम्मो था. खाविंद और बीवी की बाहम गुफ्तगू से मुझे उसके नाम का पता चल गया था दम्मो कितना खूबसूरत नाम है! आहिस्ता से पुकारा जाए तो कितना अच्छा लगता है! और जब मम्मी नाराज हो जाए तो यह नाम लेकर उसे पुचकारने में कितना लुत्फ है..शायद यह सबकुछ मुझे ही महसूस होता था…

एक दिन उसका खाविंद कह रहा था –
“हमारे अस्पताल में यही होता है.”
“तो हुआ करे,” दम्मो नफ़रत से बोली. “वह कोई इनसान थोड़े ही है ….”
“वो बेहतर इनसान हैं”
खाविंद नथने फुलाते हुए बोला – ”क्या तुम्हारा ख्याल है कि एक घोड़े को लँगडा हो जाने पर मारना नहीं चाहिए?” क्या यह अच्छा है कि उसक मालिक उससे बराबर काम लेता हुआ उसे हर रोज़ चाबुकों से जख्मी करता रहे?”

दम्मो ने बदस्तूर नफ़रत से उसकी तरफ़ देखते हुए कहा, “तो क्या उसे खुला नहीं छोड़ सकते?”

दम्मो का खाविंद अपने बेटे की तरह अहमकाना हँसी हँसने लगा और बोला “इस तरह कोई उसे खाने के लिए कुछ न देगा और वह भूखों मर जाएगा. अब यह फैसला तुम्हारे हाथ रहा कि उसके एक दफा गोली मारकर अजीयत देना भला है या उसका रोज-रोज का मरना.”

दम्मो लाजवाब हो गई. उसने लुआब से भरे हुए अपने बच्चे की तरफ देखा और फिर उसे एक गहरे मादराना जज्बे से अपनी छाती के साथ भींच लिया और बच्चा खू-खू करता हुआ खला में हाथ-पाँव हिलाने लगा. दम्मो ने उसे इतना प्यार किया कि उसकी आँखों में आँसू आ गए. मैं इन सब बातों से डाक्टर के खौफनाक इरादों से मतला हो चुका था। एक डॉक्टर के लिए यह बात कौन सी मुश्किल है वह दो-तीन दिन तक सबको कहता फिरेगा बच्चा बीमार है, और फिर एक दिन चुपके से उसे सुला देगा…. उस वक्त बच्चा घिनावने अंदाज में खू-खू करने लगेगा और अपने हाथ-पाव मौतो-हयात की कशमकश में इधर-उधर हिलाएगा. उसकी माँ जहाँ कहीं भी बैठी होगी, उसे अपने बच्चे की तकलीफ का एहसास हो जाएगा. वह यकीनन अपने वहशी हवस-राँ’ शराबी खाविंद के उस जुर्म को बरदाश्त न कर सकेगी.

अगले दिन मैं बैंक से वापसी पर हस्बे-मामूल सुंबुल के साये में पहुँच गया. वहाँ वही तालिबे-इल्म अपने मखसूस खिलंदड़े अंदाज में दो गेंदों को उछालकर बयक-वक्त पकड़ने की कोशिश कर रहा था और उसकी किताबें हमेशा की तरह बंद, करीब के दरख़्त के साये में पड़ी थीं. दम्मो अपने बच्चे को लिए मौजूद थी और अपने बच्चे के लिए उसके प्यार की हर लपट से जाहिर होता था कि गुजिश्ता दिन की तमाम बातें उसके जेहन में महफूज हैं और वह मोहब्बत की हर करवट के साथ अपने बच्चे को जिंदा कर लेती है.

उस वक़्त वह बच्चा रेंगता हुआ गाड़ी से कुछ दूर सुंबुल के नीचे आ गया था और सुंबुल के फीके बेमज़ा फल को दाँतों से पपोल रहा था और उसकी माँ उसे ज़िन्दगी में पहली दफा चंद कदम रेंगते हुए देखकर खुश हो रही थी. मैं उस वक्त सनोबर के साये से निकला और मार्केट से चंद कीमती सुर्ख माल्टे खरीदकर नसीमबाग को लौट. आया वह बच्चा अभी तक सूर्ख फल को पपोल रहा था. मैंने माल्टे उसकी तरफ़ बढ़ा दिए और बच्चा रेंगता हुआ मेरी तरफ़ बढ़ने  लगा. आख़िर उसने एक माल्टा हाथ में थाम लिया और मेरे हाथ से दूसरा माल्टा लेने के लिए मेरी तरफ बढ़ने लगा. दम्मो मेरी तरफ मुतवज्जह हुई. मुझे उसके चेहरे से उसके जज्ज्बात का पता चल रहा था। वह सोचती थी, शायद उसका बच्चा जिसे कल ही उसका वहशी शौहर महज इस बिना पर मार डालना चाहता था कि वह उनकी मुहब्बत के रास्ते में खललअंदाज था, किसी आसमानी बरकत के नुज़ूल से चलने लगे. उसके चेहरे पर उम्मीदों-बीम के तारसुरात  दिखाई देने अगले दिन मैंने बाज़ार से चंद एक रंगदार गुब्बारे खरीदे और उन्हें धागे से बाँधकर बच्चे के पास रख दिया. और जब वो नजदीक आकर उन्हें पकड़ने की कोशिश करने लगा तो मैंने धागा खींचना शुरू कर दिया और गुब्बारे मेरी तरफ़ सरकना शुरू हो गए। और बच्चा आहिस्ता-आहिस्ता रेंगता-रेंगता उन गुब्बारों की तरफ बढने लगा.

दम्मो ने करीब आते हुए कहा: “धागे को जरा आहिस्ता-आहिस्ता खींचिए. मैंने धागे को आहिस्ता से खींचते हुए कहा, “नहीं तो…. इसे जरा तेज़ चलने की मश्क करनी चाहिए.”

उसके बाद वह खामोश हो गई और अपनी पुरानी जगह, जहाँ कि वह हर रोज बैठा करती थी, वापस चली गई. फिर आई और फिर चली गई लेकिन यूँ मालूम होता था जैसे वह वहाँ बैठ नहीं सकती। कुछ देर बाद बच्चे का लुआबआलूदा फ्राक बदलने की गरज से वह फिर चली आई और मैंने कहा –

“मोहतरमा कौन जाने इसका लकवा भी अच्छा हो जाए.”

दम्मो का चेहरा चमक उठा। कई रोज़ ऐसा ही होता रहा. मैं हर रोज़ बैंक से लौटते हुए उस बच्चे के लिए कुछ न कुछ ले जाता. अगर एक दिन मैंने बहुत देर तक बच्चे को गोद में उठाए रखा. मैंने अपनी जेब से रूमाल निकाला और उसका लुआब से भरा हुआ मुँह पोंछा. उसके बाद मैंने बच्चे का मुँह चूम लिया. दम्मो का चेहरा हया से सुर्ख हो गया. थोड़े से गुमगू  के बाद वह मेरे करीब आ गई और मुस्कुराने लगी.

उस वक़्त सुंबुल का दरख़्त तेज हवा की वजह से जोर-जोर से हिल रहा था और वह खिलंदडा तालिबे-इल्म सर्द हवा के झोंकों से मुतास्सिर होकर वही गीत गुनगुनाने लगा-
 
”जब सर्दी आती है तो बहार दूर नहीं रह जाती.”

उस वक्त लकवाज़दा बच्चा मेरी गोद से उतरकर हमारे पाँव में रेंगने लगा और दोनों जानते थे कि उसका लकवा ठीक नहीं हो सकता.

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