नंद चतुर्वेदी की जयंती 21 अप्रैल पर उनकी कुछ कविताएंः

21 अप्रैल, 1923 को जन्मे साहित्यकार नंद चतुर्वेदी को लोग प्यार से नंद बाबू कहते थे । ब्रजभाषा से कविताई आरंभ करने वाले  नंद बाबू एक कवि के साथ ही बहुत अच्छे गद्यकार भी थे। एक कवि के रूप में नंदबाबू की दृष्टि प्रगतिगामीऔर वैश्विक थी । निबंध संग्रह‘शब्द संसार की यायावरी’ और कविता संग्रह-यह समय मामूली नहीं जैसी पुस्तकों के साथ ही पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके बेहद पठनीय और विचारणीय लेख इसके उदाहरण हैं । वे ‘बिंदु’ पत्रिका के संपादक रहे । निबंध संग्रह ‘शब्द संसार की यायावरी’ के लिए नंद जी को राजस्थान का सर्वोच्च पुरस्कार दिया गया था। । 91 वर्ष की आयु में  25 दिसंबर, 2014 को उनका निधन हो गया। आज जयंती पर पढें उनकी कुछ कविताएं-

(संपादक) 

नन्द चतुर्वेदी  की कविताएं –

1 कुछ काम और करने के

कुछ काम और करने के हैं अभी
मसलन उस पुराने कोट का अस्तर
जो नीचे है उसे ऊपर कराना और
ऊपर वाले का नीचे

बाजार जाना है शाम को होने के पहले
जो बच गया है उसमें से चुनने
जो किसी ने नहीं लिया उसे लाना है घर तक
चुनने की जिन्दगी जब न बची हो
चुनने के लिए अजीब-अजीब वस्तुएँ हों
तब का रास्ता पार करना है
कठिन

जो लोग वहाँ खड़े हैं
उन से सलाह लेनी है आगे के रास्तों के लिए
सिर बचाने की नहीं, पैर बचाने की
चलने के लिए

उस चिट्ठी पर मैंने पता नहीं लिखा है
तब भी मुझे जल्दी है
मैं उसे चिन्ता करने वाले लोगों तक पहुँचा दूँ
समय से पहले

उस नदी के घाट फिर से देखने हैं
जहाँ अथाह पानी था
जब मैं डरता था और किसी ने धक्का दिया था

बहुत से काम करने हैं मुझे
वह घड़ी जिसका काँटा रूका है
उसे दिखाना है
जूता भी सिलाना है उस जगह से
जहाँ से अँगूठा बाहर आ जाता है
और ठोकर लगने का डर है।

2 आह ह्वेनसाँग 

पारिजात के वन बारूद की सुरंगों में धधक रहे हैं
प्रत्येक देवदारू के नीचे मृत्यु निःशंक खड़ी है
ह्वेनसाँग क्या तुम इन्हीं मार्गों से भारत आये थे ?

इस पीढ़ी के बालकों ने इतिहास के उन पृष्ठों को फाड़ दिया है
जहाँ तुम्हारे देश का नाम लिखा है
तुम्हारी आकृति पर न जाने किन काले-पीले या नीले
रंग के चिन्ह अंकित कर दिये हैं
आह ह्वेनसाँग ! उन्हें समझाना कठिन हो गया है कि
तुम कोई आक्रान्ता नहीं थे
यायावर थे

सुनो ह्वेनसाँग ! घृणा विष है
और वह फैल रहा है
युवक इन दिनों प्रेम, श्रृंगार और युवतियों की बातें
नहीं करते हैं
वयस्क और वृद्ध तेज चलते हैं
तीखे बोलते हैं और अकारण छड़ियाँ घुमाते हैं
युवतियाँ कुछ भिन्न प्रकार से जूड़े कसती हैं
जनता अनभिव्यक्त व्यथा 
आक्रोश और प्रतिशोध
मुट्ठियाँ तान-तानकर व्यक्त करती हैं
बुद्ध को सब श्रद्धा से नमस्कार तो करते है
लेकिन बन्दूक चलाने की दीक्षा लेते हैं
क्योंकि वे छले गये हैं

आह ह्वेनसाँग ! माओ-त्से-तुंग ने सेतु नहीं बनाये हैं
उन्होंने इतिहास की निरर्थक सरणियाँ दुहरायी हैं
क्योंकि उन्हें यह नहीं मालूम कि इतिहास की
स्याही रक्त नहीं है

हिन्दुस्तान ने युद्ध लड़े है, ह्वेनसाँग !
किन्तु वे युद्ध ही थे
अब युद्ध और घृणा दोनों हैं
युद्ध याद नहीं रहते
लेकिन घृणा घायल सर्प है
जो इतिहास के द्वार पर बार-बार
आहत फन पटकता है
और जनता शस्त्र उठाती है

तुम भारत से अपरिचित नहीं हो ह्वेनसाँग
उसका आकाश अभी भी स्वच्छ और नीला है
लेकिन भविष्य की अनेक पीढ़ियों की शिराओं में
यह जो घृणा का रक्त बहेगा
उसका दायित्व कौन सँभालेगा
दुःख है, ह्वेनसाँग जब बन्दूकें उठती हैं
लोग बुद्ध को भूल जातें हैं।

(भारत-चीन युद्ध के समय लिखी कविता)

3 सूख गयी है झील रसवन्ती

सूख गयी है झील रसवन्ती
मिट्टी ही बची है नरम, साँवली, सहस्त्रों दुःख, दरार वाली
अब वे दिन याद आते हैं
इस किनारे से उस किनारे तक अछोर पानी और हवा
धुँध की चादर में लिपटे सज्जनगढ़ के
पुराने महलों से बातें करता ढलता
पश्चिम का वर्षा भीगा सूर्य

नीमज माता के देवरे से ‘धुप्पाड़ा’ करके
दोनों हाथों से बादल हटाता ढलान पर रखे
गीले रपटीले पत्थरों को कूदता
अपने घर आता
नाथू भोपा का छोटा बेटा सोहना

कीकर के सघन पेड़ों पर वर्षा-बूँदें झाड़कर
बैठी है सैलानी चिड़ियायें
कुछ और नीचे आ गये है मेघ
कुछ और गहरी हो गयी हैं
‘टॉपरीवालों’ की चिंतायें

चाचा कागद को गोलियाँ भरकर
बंदूक चलाता है
अमरूद वाले बाग से हजारों तोते
उड़ आते हैं इधर के आसमान में
मचान पर रखा है चाचा का रेडियो
कुणी…..ए खुदाया कुआ-बावड़ी
पणिहारी जी….ए…..लो
मिरगानेनी जी….ए…लो
(किसने खुदाये हैं ये कुआ-बावड़ी
मृगनयनी पनिहारिन)
कितनी दुर तक चली गयी है
ए….लो…..ए…..लो की राग-धुन
उदयपुर के शांत सर्पीले रास्तों पर 

झमाझम……झमाझम बरसने लगा है पानी
आर्द्रा नक्षत्र की घटायें फतहसागर के
पश्चिम तट पर इकट्ठी हो गयी हैं।

4 सब हमारे पक्ष में हैं

तुम्हारे हाथ अभी थके नहीं हैं
यह कहने का सुख ही
इस कविता का कथ्य है
थोड़े से दिन और हैं
सहने के 
फैलाने के लिए ये हाथ नहीं हैं

निर्द्वन्द्व रहो
यह जंगल नहीं है
न होने दें इसे जंगल
नहीं यहाँ नहीं रूकेगी
कोई भी नहीं
इस प्रवाह का
इस चकित कर देनी वाली
यात्रा का सुख ही
इस कविता का कथ्य है

किसी को तो छोड़ना ही पड़ेगा
छोड़ना ही पड़ेगा यह सुख
इस नये पत्ते पर इस धुंध में
बूँद तो है
सूर्य के भाग्य में यह सुख नहीं है

छिन्न-भिन्न हुआ मन
लौटता है पीछे
पीछे कुछ नहीं है
सन्नाटा है
डर है

डरो मत
यहाँ दूब है और छोटी चिड़िया
छोटे लोगों को क्या डर है ?
क्या डर है भाग्य के मारे लोगों को ?

यह शताब्दी क्रुर लोगों की है
लेकिन हमारी भी है
यह युद्ध है
खड़े रहो

कोई पाप आकस्मिक नहीं होता
तुमने होने दिया तो हुआ
सिर्फ इच्छाओं से रास्ते बदलते नहीं है

सत्ता की हार-जीत
यह दुःख
हमारा नहीं
युद्धरत रहो
जिसे बदलना है
बदलेगा

ये वपस्पतियाँ जलेंगी नहीं
न यह कृति अनुर्वरा होगी
अब की बार पकड़ लें
हवा, बादल
और भविष्य
सब हमारे पक्ष में हैं।

5 पुराना घर

अब मुझे वहाँ नहीं जाना था
पचास वर्ष बाद
चजुर्भज सिलावट का मकान पूछने

रास्ते कहीं-से-कहीं मिल गये थे
या जिन्हें मैं ही भूल गया था
कैसा मकान और कहाँ

मैंने कहा मैं सुदर्शनलाल जी का पुत्र हूँ
हमारे श्यामा घोड़ी थी
वहाँ मैं चलकर गया
जहाँ वह अब नहीं थी
कभी बँधती रही हो शायद

हमारे घर के पीछे अनार के पेड़ थे
खिड़कियों तक लाल फूल वाले
वहाँ कुण्ड था पीछे
स्फटिक की तरह चमकती सीढ़ियों वाला

दो बहनें
मैंने दूर से देखा था जिन्हें
लाल चूनर वाली-वे
वह अचरज से यह वृतान्त सुनता
मुझे देखता रहा
आप बहुत दिनों बाद आयें हो
शायद

हमारे रहते-रहते भी
शहर बदल जाते हैं इतने
कुछ बदलता हुआ नजर नहीं आता
जब हम इतनी जगह रूकते हों
पूछते हों अपने पुराने घर।

6 किला

वह किला पूरी तरह ध्वस्त हो गया था
एक पूरे शानदार इतिहास के बावजूद
वे वीरांगनाएँ आग में कूद गयी थीं
अपने कृतघ्न और क्लीव पतियों के लिए
जिन्हें प्रेम करना नहीं आता था

वे सुन्दर और अप्रतिम थीं
क्योंकि मर चुकी थीं
और अब वे स्वतंत्र थे
उनके पति
प्रेम का विरूद गाने को

कोई नहीं था
वह ज़िन्दगी देखने वाला
जो उन्होंने दी थी

वे पैदल आयी थीं
या शिविकाओं में
अकेली-अकेली
या एक साथ
शान्त, विक्षुब्ध या रोती हुईं
अपने पतियों का आलिंगन करके
या उन्हें शाप देतीं
सब से आगे कोई वृद्धा थी
या किशोरी

रोशनी बची थी
और बुर्ज पर कोई पुरूष था 
बालक सो गये थे
या चीखते रहे

शान्ति पाठ करने आये तो होंगे
ब्राह्मण
उन्होंने कहा भी होगा
वे फिर यहाँ आएंगी
अपना बचा हुआ जीवन
जीने के लिए

इतिहास सिर्फ मौत बताता है
बाद की बातें तो
ज़िन्दगी को ही तलाश करनी पड़ती हैं।

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