संजय शाम
कोरोना के इस विकट समय में भी सूर्योदय समय पर हो रहा है और तारे भी आसमान पर समय से जगमगा रहे है प्रकृति की दिनचर्या अब भी ज्यों कि त्यों है । हमारी दिनचर्या जरूर अपने जीवन के सबसे बड़े बदलाव के दौर से गुजर रही है । दुनियाभर में लाखों लोग वायरस से अप्राकृतिक मौत मर रहे है जिसमें अमेरिका सहित पूरे यूरोप के देश भी शामिल हैं जिन्हे अपने पर सबसे बड़ा होने का गर्व था जो डालर को ही अपनी ताक़त और खुदा समझते थे , जोकि उनका भ्रम ही था वक़्त ने जिसे अब चूर- चूर कर दिया है और उनकी आंखों के सामने ही लाखों लोग कैसे डालर के होते हुए भी पीपीई किट , वेंटिलेटर और बिना दवा के , कीड़े मकोड़ों की तरह मरने को मजबूर है और उनके पहरुए उन हालातों को सिर्फ देख रहे है करने के लिए उनके पास लाचारी के सिवा कुछ नहीं है । सारी समृद्धि सारा विकास मुंह चिढ़ा रहे है ।
आखिर ये कैसी सदी है? कहते थे इक्कीसवीं सदी में कभी रात नहीं होती चौबीसों घंटे उजाला , सूरज से ज्यादा रौशनी और बिना रुके भागती दौड़ती जिंदगी , जैसे भारत में मुंबई, गुड़गांव, बेंगलुरु और भी मेट्रो जिनके बारे में प्रसिद्ध है कि वो कभी नहीं सोते , लेकिन आज सब तरफ अंधेरा ही अंधेरा है जैसे कोई बहुत लंबी, मुसलसल काली रात हो , और फिर पता भी नहीं कि यह अंधेरा कब छटेगा ? आखिर इस रात की सुबह कब होगी ? कुछ पता नहीं ?
इन सबके बीच जो सबसे ज्यादा पिस रहा , जिसकी स्थिति सबसे ज्यादा खराब है वो है गरीब, किसान, और मजदूर जिनके हिस्से में 21 वीं सदी की कभी न खत्म होने वाली चकाचौंध कभी आई ही नहीं । मजदूरों की जिंदगी एक लम्बी, गहरी, अंधेरी अंतहीन सुरंग है जो आदिकाल से ऐसे ही चली आ रही है । संत्रास और यातनाओं से भरी जिंदगी, वही रोज जीने और रोज मरने कि कहानी से बजबजता जीवन । इस बीमारी ने हमारी दुनिया की इस सच्चाई को पूरी तरह उघाड़ कर रख दिया है आज पूरी दुनिया में लाखों करोड़ों मजदूर अपने घर से दूर, बहुत दूर रोजी रोटी की तलाश में अपने बूढ़े मां बाप और अपाहिज परिजनों को घरों में उनके हाल पर अकेला छोड़कर अपने गांव, घर से सैकड़ों मील दूर कमाने खाने कि जुगत में निकल गए लोग वही फंसे हुए है न उनके पास रोटी है न पैसा । वो वापस लौटना चाहते है उसी तरह तंगहाल लेकिन लौट नहीं सकते क्योकि उनके पास साधन नहीं है । वो फिर भी लौटना चाहते है अपने पैरों पर पांव पांव चलकर अपने छोटे छोटे बच्चों को सिर पर गठरी की तरह उठाए । मां अपने एक बच्चे को गोद में,एक पिता के कांधे पर तो दूसरे कि उंगली थामे तीसरा अपने भीतर कोख में छुपाए चलने को तैयार । फिर भी उनका हौसला सरकारी आदेश के सामने ढेर जगह -जगह नाकेबंदी राज्यों की सीमाएं सील आखिर मजदूर कहां जाए क्या करे , अजब त्रासदी है एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई, एक तरफ कोरोना महामारी दूसरी तरफ भूख परदेश की भूमि और अपनों से दूर होने की तड़प , कैसी विकट परीक्षा है ।
आज मजदूर दिवस है मै चाहता हू कि उन्हें शुभकामनाएं दूं ,पर कैसे ? मजदूर दिवस की बधाईयां दूं पर किस मन से ? ये सच है कि इससे भी बुरे दिनों की लंबी लड़ाई और सदियों के संघर्ष के बाद हजारों लाखों दुनिया भर के मजदूरों ने अपनी जान पर खेलकर अपने खून से रंगे कपड़ों का परचम उठाए अपनी जीत का जश्न मनाया था यह सोचकर कि अब दुनिया बदलेगी लेकिन आज भी, क्या सचमुच इनका जीवन बदला है जैसा उनका सपना था । जब -जब दुनिया पर संकट आया है तब सबसे पहले यही उसका शिकार होते है क्योंकि ये सहज उपलब्ध हैं । इनके पास इससे लड़ने के लिए सिवा लड़ने की अहर्निश इच्छाशक्ति के ,जो इनकी जीवन शक्ति है और कुछ नहीं है । इसी जीवन शक्ति से हमारी दुनिया आसान बनती है, पूरी मानवता के लिए जीने कि राह बनाती है । उनकी भी जो इन्हें इंसानों कि गिनती में नहीं लेते । फिर भी, शिकागो के शहीदों के याद करते हुए अपनी इस इच्छा को नहीं रोक पाता कि एक बार फिर से दुहराउं कि दुनिया के मजदूरों एक हो , कि आज भी तुम्हारे पास खोने को कुछ नहीं है ।
संजय शाम युवा कवि हैं। प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर इकाई के सचिव एवं ट्रेड यूनियन लीडर हैं । (यह लेख 1 मई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के अवसर पर लिखा गया ।- संपादक)
बहुत ही सम्वेदनशीलता के साथ लिखा गया लेख।