इस समय हमारा देश कोरोना महामारी की विभीषिका और उससे निपटने में सरकार की गलतियों के परिणाम भोग रहा है. इस कठिन समय में भी कुछ लोग इस त्रासदी का उपयोग एक समुदाय विशेष का दानवीकरण करने के लिए कर रहे हैं. नफ़रत के ये सौदागर, टीवी और सोशल मीडिया जैसे शक्तिशाली जनसंचार माध्यमों के जरिये धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ अभियान चला रहे हैं. इस अभियान में फेक न्यूज़ एक बड़ा हथियार है. जो हो रहा है उसे देख कर किसी को भी ऐसा लग सकता है कि दोनों समुदायों के बीच इतनी गहरी खाई खोद दी गई है कि उसे भरना असंभव नहीं तो बहुत कठिन ज़रूर है. परन्तु इस अंधेरे में भी आशा की एक किरण है. और वह है दोनों समुदायों के लोगों का एक दूसरे की मदद के लिए आगे आना.
सांप्रदायिक सौहार्द की सबसे मार्मिक घटना अमृत और फारूख से जुड़ी है. वे एक ट्रक से सूरत से उत्तरप्रदेश जा रहे थे. रास्ते में अमृत बीमार पड़ गया और अन्य मजदूरों ने संक्रमण के डर से उसे आधी रात को ही रास्ते में उतार दिया. परन्तु जब वह ट्रक से उतरा तब वह अकेला नहीं था. उसका साथी फारूक भी उसके साथ था. फ़ारूक़ ने सड़क किनारे अमृत को अपनी गोद में लिटाया और मदद की गुहार लगाई. आसपास के लोग आगे आये और जल्दी ही एक एम्बुलेंस वहां आ गई, जिसने अमृत को अस्पताल पहुँचाया.
एक अन्य घटना में एक मजदूर, जिसका बच्चा विकलांग था, ने एक अन्य मजदूर की साइकिल बिना इज़ाज़त के ले ली. उसने एक कागज़ पर यह सन्देश भी छोड़ा कि उसे उसके बच्चों के साथ दूर जाना है और उसके पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है कि वह साइकिल चुरा ले. साइकिल के मालिक प्रभु दयाल ने इसका जरा भी बुरा नहीं माना. साइकिल ले जाने वाले शख्स का नाम था मोहम्मद इकबाल खान.
मुंबई के सेवरी में पांडुरंग उबाले नामक एक बुजुर्ग की अधिक उम्र और अन्य बीमारियों से मौत हो गई. लॉकडाउन के कारण उसके नजदीकी रिश्तेदार उसके घर नहीं पहुँच सके. ऐसे में उसके मुस्लिम पड़ोसी आगे आये और उन्होंने हिन्दू विधि-विधान से उसका क्रियाकर्म किया. इसी तरह की घटनाएं बैंगलोर और राजस्थान से भी सामने आईं. दिल्ली के तिहाड़ जेल में हिन्दू बंदियों ने अपने मुसलमान साथियों के साथ रोज़ा रखा. पुणे में एक मस्जिद (आज़म कैंपस) और मणिपुर में एक चर्च को क्वारेंटाइन केंद्र के रूप में इस्तेमाल के लिए अधिकारियों के हवाले कर दिया गया. दिल को छू लेने वाले एक अन्य घटनाक्रम में, एक मुस्लिम लड़की ने एक हिन्दू घर में शरण ली और मेज़बानों ने तड़के उठ कर उसके लिए सेहरी का इंतजाम किया.
ऐसे और भी कई उदाहरण हैं. यह भी साफ़ है कि ऐसी असंख्य घटनाएं देश के अलग-अलग हिस्सों में हुईं होंगीं और उनमें से बहुत कम मीडिया में स्थान पा सकी होंगीं. कोरोना के हमले के बाद से जिस तरह का माहौल बनाया जा रहा था और जिस धड़ल्ले से कोरोना बम और कोरोना जिहाद जैसे शब्दों का इस्तेमाल हो रहा था उससे ऐसा लग रहा था कि सांप्रदायिक तत्त्व हिन्दुओं और मुसलमानों को एक दूसरे का दुश्मन बनाने के अपने अभियान में सफल हो जाएंगे. परन्तु अंततः यह सिद्ध हुआ कि नफरत फैलाने वाले भी मनुष्य की मूल प्रवृत्ति पर विजय प्राप्त नहीं सकते. धार्मिक राष्ट्रवादियों की लाख कोशिशों के बाद भी वह बंधुत्व और सद्भाव, जो हमारे स्वाधीनता संग्राम की विरासत है, मरा नहीं है. वह लोगों के दिलों में जिंदा है.
भारतीय संस्कृति मूलतः सांझा संस्कृति है जो विविधताओं को अपने में समाहित कर लेती है. भारत के मध्यकालीन इतिहास को अक्सर एक स्याह दौर के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. सम्प्रदायवादी लेखक उसे एक ऐसे काल के रूप में चित्रित करते हैं जिसमें हिन्दुओं पर घोर अत्याचार हुए. परन्तु यही वह दौर था जब भक्ति परंपरा फली-फूली और भारतीय भाषाओं में विपुल साहित्य सृजन हुआ. यही वह दौर था जिसमें राजदरबारों की भाषा फारसी और जनता की भाषा अवधी के मेल से उर्दू का जन्म हुआ. यही वह दौर था जब गोस्वामी तुलसीदास ने भगवान राम की कथा एक जनभाषा में लिखी. तुलसीदास ने अपनी आत्मकथा ‘कवितावली’ में लिखा है कि वे मस्जिद में सोते थे. उसी दौर में अनेक मुस्लिम कवियों ने हिन्दू देवी-देवताओं की शान में अद्भुत रचनाओं का सृजन किया. रहीम और रसखान ने भगवान श्रीकृष्ण पर जो कविताएँ लिखीं हैं उनकी कोई सानी नहीं है.