श्वेता त्रिपाठी
कश्मीर में चल रहे लंबे लॉकडाउन का एक साल बीते 5 अगस्त को पूरा हो गया। पिछले वर्ष यह तारीख अनुच्छेद 370 हटाये जाने के साथ जम्मू-कश्मीर को अंतहीन दिखते लॉकडाउन के सुपुर्द करने के नाम रही, तो इस वर्ष अयोध्या में राम-मंदिर के शिलान्यास के नाम! 5 अगस्त को ऐतिहासिक दिन के रूप में स्थापित करने की ललक में भारतीय जनता पार्टी के नेता विजय गोयल ने दिल्ली के बाबर मार्ग की संकेत-पट्टिका के ऊपर ‘पाँच अगस्त मार्ग’ का पोस्टर लगा दिया। उधर जम्मू और कश्मीर मेंकेंद्र सरकार ने नया डोमिसाइल कानूनलागू कर दिया।
नये कानून जम्मू-कश्मीर डोमिसाइल प्रमाणपत्र प्रक्रिया नियम, 2020 के अनुसार जिस व्यक्ति ने जम्मू-कश्मीर में पंद्रह साल बिताये हैं या सात साल पढ़ाई की है और 10वीं/12वीं की परीक्षा क्षेत्र के किसी स्थानीय संस्थान से दी है, वही यहां का निवासी होगा। साथ ही राहत और पुनर्वास आयोग द्वारा ‘विस्थापित’ के रूप में पंजीकृत पश्चिमी पाकिस्तान से आये शरणार्थियों को भी नये कानून के तहत अधिवास प्रमाण पत्र मिल सकेगा। इनमें विभाजन के बाद से अलग-अलग समय पर विस्थापित हो कर आये ज़्यादातर हिन्दू हैं।
अधिवास प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए इन ‘विस्थापितों’ को राशन कार्ड, बिजली का बिल, अचल संपत्ति, नियोक्ता प्रमाण पत्र जैसे काग़ज़ जमा करने होंगे, जबकि जम्मू-कश्मीर के मौजूदा स्थानीय निवासियों को पहले अपने पुराने अधिवास प्रमाण पत्र (पुराने कानून के अनुसार) को स्थानीय तहसीलदार से खारिज करवाना होगा। आवेदन के सात दिनों के भीतर प्रमाण पत्र जारी नहीं करने पर संबंधित तहसीलदार या राहत-पुनर्वास विभाग के सम्बद्ध अधिकारी के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी- यानी उनके वेतन से 50,000 रुपये की वसूली।
ज़ाहिर है, इस धारा को कश्मीर के अधिकारियों (जो स्थानीय निवासी भी हैं) के संभावित प्रतिरोध को दबाने के लिए ही कानून में डाला गया है। जम्मू-कश्मीर में इस नये कानून का मुख्यधारा की सभी राजनीतिक पार्टियों ने कड़ा प्रतिरोध किया है और केंद्र-सरकार के एकतरफा क़दम पर अपनी नाराजगी ज़ाहिर की है। यहां तक कि केंद्र सरकार की करीबी कही जाने वाली नयी राजनीतिक पार्टी ‘अपनी पार्टी’ ने भी नये कानून का विरोध किया है।
क्या नये डोमिसाइल कानून को लाते वक़्त पहचान के अधिकार के लिए कश्मीरियों के ऐतिहासिक संघर्षों के प्रति कोई समझ बनायी गयी? ऐसे में जबकि असम, मणिपुर, नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम सहित कई राज्यों में संविधान के अनुच्छेद 371 के अंतर्गत वहां के निवासी जम्मू-कश्मीर के पुराने ‘स्थायी निवासी’ की परिभाषा की ही तर्ज़ पर समान नियमों के साथ ‘अधिवासी’ बने हुए हैं, जम्मू-कश्मीर में ‘स्थायी निवासी’ की परिभाषा को हटाकर एक नया कानून लाये जाने का मतलब क्या है?
जनसांख्यिकी परिवर्तन के आरोपों को निराधार करार देते हुए केंद्र सरकार का कहना है कि नया कानून व्यापक परामर्श के बाद लाया गया है। क्या यह व्यापक परामर्श की प्रक्रिया एक बंद कमरे की प्रक्रिया भर थी, जिसमें कश्मीर के प्रतिनिधित्व को सहूलियत के आधार पर ही चिह्नित करके शामिल किया गया? यदि जनसांख्यिकी परिवर्तन के आरोप निराधार हैं, तो पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थियों (ज़्यादातर हिन्दू) को नये कानून में अधिवास की पात्रता दिये जाते वक़्त जम्मू से हजारों की संख्या में विस्थापितों को भी इसमें जगह क्यों नहीं दी गयी?
सड़क और मूर्तियों के नामकरण से लेकर तारीखों को अपने अनुसार ऐतिहासिक बना देने को आतुर वर्तमान सरकार का जनता के इतिहास से, उनके संघर्षों से कोई सरोकार नहीं है, लेकिन क्या सरकारों के चाहने भर से जनता अपने संघर्षों को भूल सकती है? क्या आने वाले समय की रचना बिना अतीत से परामर्श के संभव है?
जम्मू-कश्मीर के लोगों के दीर्घकालिक और सघन प्रयासों-संघर्षों ने उन्हें ‘स्थायी निवासी’ के रूप में मान्यता दिलायी थी। एक ऐसे दौर में जबकि जम्मू-कश्मीर में क़ानूनों और नीतियों में लगातार बदलाव हो रहे हैं, अपने नागरिक अधिकारों की मान्यता के लिए वहां के लोगों के लंबे संघर्ष को समझना बहुत महत्वपूर्ण होगा।
वर्ष 1886 में कश्मीर को डोगरा शासक महाराजा गुलाब सिंह ने अमृतसर की संधि के तहत अंग्रेजों से 75 लाख में खरीदा था। डोगरा शासक जम्मू के राजा थे जिनका भूमि पर वंशानुगत स्वामित्व था। डोगरा शासन द्वारा कश्मीर को खरीदे जाने के बाद मालिकाना हक़ राजशाही के अंतर्गत दरबार- जिसमें राजशाही के करीबी रिश्तेदार, शीर्ष अधिकारी (ज़्यादातर कश्मीरी पंडित) शामिल थे – को मिल गया।
डोगरा शासन और अंग्रेजों के बीच की समझ के अनुसार कश्मीर में तमाम सुधारों को लागू करने के लिए एक स्थायी ब्रिटिश रेसिडेंट की स्थापना की गयी। लंबे समय तक ब्रिटिश अधिकारियों की सिफ़ारिशों-संस्तुतियों के बाद 1895-96 में भूमि पर दखल के अधिकार को मान्यता मिल सकी। जम्मू में ज़मीन पर मालिकाना हक़ से संबन्धित नये नियमों की घोषणा की गयी, मगर कश्मीर के किसानों और खेतिहरों (मुस्लिम वर्गों) के पास अब भी कोई मालिकाना हक़ नहीं था क्योंकि श्रीनगर और कुछ प्रमुख शहरों को छोड़कर ज़मीन पर स्वामित्व अब भी डोगरा राजशाही में ही निहित था।
आखिरकार 1931 में जनता के आंदोलन के परिणामस्वरूप तत्कालीन डोगरा सम्राट महाराजा हरि सिंह को कश्मीर के किसानों को पूर्ण मालिकाना हक का आदेश देना पड़ा था। इस आंदोलन में 22 कश्मीरियों (महाराजा के सिपाहियों द्वारा) की हत्या हुई जिसके बाद वहां के लोगों के तीव्र आंदोलन ने डोगरा नरेश को ग्लैन्सी कमीशन का गठन करने को मजबूर किया। ब्रिटिश अधिकारी बी जे ग्लैंसी की अध्यक्षता में ग्लैन्सी कमीशन दो प्रमुख कानून लेकर आया- कृषि भूमि खरीदने के लिए काश्तकारों के पूर्व अधिकारों को मान्यता देता पूर्व खरीद अधिकार अधिनियम (प्रायर पर्चेज़ ऐक्ट) 1937 और खेतिहरों (पेज़ेंट्स) को अपनी ज़मीन के एक-चौथाई हिस्से पर निर्णय लेने (कृषकों को स्थानांतरित करने संबंधी) का अधिकार देता भूमि अलगाव अधिनियम 1933 (लैंड एलियनेशन कानून)।
ज़मीन पर वंशानुगत खेतिहरों/ किसानों के मालिकाना हक को स्पष्ट करते इन दो क़ानूनों के बाद भी डोगरा शासन का जागीरदारी-चकदारी प्रणाली के तहत ज़मीन के बड़े हिस्से पर कब्जा कायम रहा। सनद रहे कि जागीरदारी-चकदारी प्रणालियाँ कश्मीरी पंडितों के नियंत्रण में थीं जो डोगरा शासन के दरबार में राजस्व अधिकारी थे। कश्मीर मुद्दों के जानकार एम. जे. असलम लिखते हैं कि 1941 की जनगणना के अनुसार कुल कृषि योग्य भूमि- 22 लाख एकड़ जमीन में से अनुमानित 11.60 एकड़ जमीन सामंती जमींदारों के अधीन थी, जिसे वे किसानों/खेतिहरों को खेती करने के लिए किराये पर देते थे।
बाद में वर्ष 1950 में राज्य ने बिग लैंडेड एस्टेट्स एबोलिशन एक्ट पारित किया, जिसके तहत बड़े पैमाने पर जागीरदारी उन्मूलन के साथ-साथ खेतिहरों/हरवाहों के नाम भू-हस्तांतरण किया गया। अंततः कृषि सुधार अधिनियम 1972 (बाद में वर्ष 1976 में संशोधित) के तहत किसानों/ खेतिहरों को उचित स्वामित्व अधिकार मिला और अनुपस्थित ज़मींदारी की प्रथा (प्रणाली भी) समाप्त हो सकी।
भू-अधिकारों के लिए लंबे संघर्ष के साथ कश्मीर के मुस्लिम समुदाय को सरकारी नौकरियों और शिक्षा के अधिकार के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा, जिसे अंततः 1927 और 1932 की अधिसूचनाओं के तहत मान्य किया गया। बाद में यही दो अधिसूचनाएं नेहरू और शेख अब्दुल्ला के बीच वर्ष 1952 के दिल्ली समझौते का आधार बनीं, जिसके तहत बाद में जम्मू और कश्मीर के संविधान में स्थायी निवासी से संबन्धित प्रावधानों को डाला गया। इस तरह यहां के लोगों को स्थायी निवासी का अधिकार प्राप्त हुआ।
आज से 73 साल पहले 1947 में विभाजन दौर में भी जम्मू क्षेत्र की जनसांख्यिकी को बदलने की एक कोशिश की गयी थी। तत्कालीन डोगरा शासक हरि सिंह के नेतृत्व में अर्धसैनिक बलों और भीड़ की हिंसक कार्रवाइयों के फलस्वरूप वहां के मुसलमानों को व्यवस्थित ढंग से खत्म करने की कोशिश की गयी, जब तक कि वे पश्चिमी पंजाब (अभी का पाकिस्तान) की ओर पलायन नहीं कर गये।
द टाइम्स, लंदन की 10 अगस्त, 1948 की रिपोर्ट के अनुसार उस भीषण हिंसक दौर में लगभग 2,37000 मुसलमानों का पलायन हुआ था, जिसके बाद जम्मू में मुसलमानों की संख्या 39 प्रतिशत से घटकर 7 प्रतिशत रह गयी। हरि सिंह के दौर में जम्मू में एक खास समुदाय के प्रति बर्बर हिंसा कश्मीर में कभी न ख़त्म होने वाले विवाद का आधार बन गयी।
आज इतने साल बाद एक बार फिर जम्मू और कश्मीर की जनसांख्यिकी स्थिति को बदलने की कवायद शुरू की गयी है। स्थिति यह है कि लगभग 1.25 करोड़ जनसंख्या वाले जम्मू-कश्मीर में- जहां 6 लाख से ऊपर सुरक्षाकर्मियों की तैनाती है और पहले से ही 7 लाख से अधिक प्रवासी मजदूर रहते हैं- नये अधिवासी कानून ने असुरक्षा की भावना को और गहरा कर दिया है। महामारी के दौरान डोमिसाइल (अधिवासी) प्रमाण पत्र वितरित करने की प्रक्रिया जारी है। 25000 से अधिक अस्थायी निवासियों को अधिवासी प्रमाण-पत्र बांटा भी जा चुका है। इन सबके बीच कश्मीर में प्रमुख कॉर्पोरेट घरानों और व्यापारियों को लुभाने के लिए केंद्र सरकार ने लगभग 6000 एकड़ भूमि बैंक को विनिवेश के लिए प्रस्तावित किया है।
कुछ आलोचकों ने नये डोमिसाइल कानून के अंतर्गत चलायी जाने वाली प्रक्रियाओं की तुलना इज़रायल के कब्जे वाले वेस्ट बैंक की बस्तियों के साथ भी की है।
पिछले कुछ वर्षों में तारीखों-नामकरण आदि-आदि से इतिहास बनाने की कोशिश बहुत की गयी है। खास तौर पर भारतीय जनता पार्टी की तमाम कोशिशें इतिहास में किसी तरह नाम दर्ज करने की ही रही हैं। या यूं कहें कि केंद्र सरकार द्वारा इतिहास की वास्तविक पट्टिका के ऊपर एक नये इतिहास का स्वरचित-स्वनिर्मित पोस्टर लगा लेने का एकतरफा प्रयास अनवरत जारी है, लेकिन क्या इन एकतरफा निर्णयों या जाली पोस्टरों से इतिहास को बदला जा सकता है?
इतिहासकार एडवर्ड हैले कार के मुताबिक वर्तमान और अतीत के बीच कभी न खत्म होने वाला संवाद ही इतिहास है। इस इतिहास को अपने अनुसार गढ़ने की प्रक्रिया में जुटी सरकारें ऐतिहासिक संघर्षों-यातनाओं को अपनी सहूलियत से भूलने की कोशिश भले कर लें, लेकिन सच तो यही है कि इतिहास का महत्व उन्हें भी पता है। तभी तो संकेत पट्टिकाओं से लेकर तारीखों तक सब कुछ अपने अनुसार ऐतिहासिक बनाए जाने का चौतरफा प्रयास जारी है। क्या वर्तमान के गढ़े जा रहे ऐतिहासिक प्रतीकों के साथ जनता का अपना वर्तमान आने वाले समय के लिए इतिहास बनकर फिर सामने खड़ा नहीं होगा? क्या अतीत की प्रासंगिकता भ्रामकताओं के दौर में यूं ही भुला दी जाएगी?
इन सवालों के साथ कश्मीरी कवि आग़ा शाहिद अली के अल्फ़ाज़ ख़ुद-ब-ख़ुद मौजूं हो जाते हैं-
मैं वो सब कुछ हूँ जो तुमने खो दिया है
मेरी यादें तुम्हारे इतिहास के रास्तों में हर बार आ जाती हैं!
लेखिका दिल्ली स्थित सामाजिक कार्यकर्ता और स्तंभकार हैं