एमनेस्टी इंटरनेशनल ने एक विस्तृत जांच के बाद जो रिपोर्ट तैयार की है, उसमें भारत की सबसे शानदार पुलिस माने जाने वाली दिल्ली पुलिस का रंग रूप बहुत घिनौना, बहुत डरावना और बहुत भयानक नजर आता है। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कहा है कि फरवरी 2020 में दिल्ली में हुई हिंसा में दिल्ली पुलिस के जवान न सिर्फ शामिल थे बल्कि उन्होंने इस हिंसा में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। इसके बावजूद, पिछले छह महीनों में दिल्ली पुलिस ने हिंसा के पहले, उसके दौरान और उसके बाद किये गये मानवाधिकार उल्लंघनों में एक भी जांच नहीं की है।
फरवरी की हिंसा याद होगी आपको, जब पूर्वी दिल्ली में अचानक कोहराम मच गया था। घर जलाये जाने लगे थे। दुकानें लूटी जाने लगी थीं। बच्चों और औरतों तक को घसीटा जाने लगा था। कम से कम 50 लोगों की जान गयी थी। इनमें हिंदू भी थे और मुसलमान भी, लेकिन 52 में 40 मुसलमान थे। 500 से ज्यादा लोग घायल हुए थे। सैकड़ों करोड़ की संपत्ति लूट ली गयी थी। पेट्रोल पंप फूंक दिया गया था। बीजेपी के नेता कपिल मिश्रा पुलिस को धमकाते हुए इस आग में घी डालने का काम कर रहे थे। तब अदालत ने दिल्ली पुलिस से पूछा था कि मिश्रा पर एफआइआर क्यों नहीं की।
उस वक्त दिल्ली पुलिस तमाशा देख रही थी। आज कठघरे में है। दिल्ली पुलिस पर ताज़ा आरोप लगा है कि जब हिंदू-मुस्लिम की बात आती है, हिंदू-सिख की बात आती है तो वो कट्टरपंथी दंगाइयों के साथ जाकर खड़ी हो जाती है। एक रिपोर्ट आयी है जो सवाल कर रही है कि ये दिल्ली पुलिस है या दंगा पुलिस है। संसार की सबसे बड़ी और प्रतिष्ठित मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने एक लंबी पड़ताल के बाद दिल्ली पुलिस के चेहरे पर बीते छह महीने से चढ़े नकाब को नोंच डाला है।
एमनेस्टी ने एक विस्तृत जांच के बाद जो रिपोर्ट तैयार की है, उसमें भारत की सबसे शानदार पुलिस माने जाने वाली दिल्ली पुलिस का रंग रूप बहुत घिनौना, बहुत डरावना और बहुत भयानक नजर आता है। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कहा है कि फरवरी 2020 में दिल्ली में हुई हिंसा में दिल्ली पुलिस के जवान न सिर्फ शामिल थे बल्कि उन्होंने इस हिंसा में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। इसके बावजूद, पिछले छह महीनों में दिल्ली पुलिस ने हिंसा के पहले, उसके दौरान और उसके बाद किये गये मानवाधिकार उल्लंघनों में एक भी जांच नहीं की है।
ये कहानी देश की राजधानी दिल्ली की है। दिल्ली की पुलिस की और उसकी सोच की है, जिसे 50 दंगा पीड़ितों, चश्मदीद गवाहों, वकीलों, डॉक्टरों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पूर्व पुलिस अफसरों से बातचीत और सोशल मीडिया पर डाले गये वीडियो के विश्लेषण के बाद एमनेस्टी इंटरनेशनल ने तैयार किया है। एमनेस्टी ने कहा है कि दिल्ली पुलिस दंगाइयों की कठपुतली की तरह काम कर रही थी और हत्यारों-हमलावरों को पुलिस की सरपरस्ती हासिल थी। कई मामलों में तो पुलिस के अफसर खुद भी शामिल थे।
एमनेस्टी के मुताबिक दिल्ली पुलिस की बेहयाई, बेशर्मी और बर्बरता की कहानी यहीं खत्म नहीं होती। लोग पुलिस मदद के लिए पुलिस को फोन करते रहे लेकिन मदद नहीं पहुंची। कई अफसर खुद दंगाइयों के साथ हिंसा में शामिल थे। दिल्ली पुलिस ने हिरासत में कैदियों को प्रताड़ित किया, सीएए के खिलाफ बैठे शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों के विरोध स्थलों को तोड़ा, प्रदर्शनकारियों पर जुल्म ढाये और दंगाइयों की हिंसा को चुपचाप देखती रही।
ये उसी दिल्ली पुलिस का सांप्रदायिक और आपराधिक चेहरा है, जिसके बारे में गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में खड़े होकर कहा था कि उसने हिंसा को रोकने के लिए तेजी से और शानदार काम किया है। एमनेस्टी ने कहा है कि ये शानदार काम था दंगाइयों के इशारे पर दिल्ली पुलिस का नाचना। पूरे विपक्ष ने दिल्ली पुलिस की भूमिका पर सवाल उठाये थे, लेकिन छह महीने बाद भी दिल्ली पुलिस की भूमिका की कोई जांच नहीं हुई है।
एमनेस्टी इंटरनेशनल की इस रिपोर्ट में बाकायदा भारतीय जनता पार्टी का नाम आया है। इस रिपोर्ट में बीजेपी नेता कपिल मिश्रा और दूसरे नेताओं के भड़काऊ भाषणों, जामिया मिलिया की लाइब्रेरी और हॉस्टल में पुलिस के हमलों, इसके बाद भड़की हिंसा को रोकने में दिल्ली पुलिस की काहिली और हिंसा को बढ़ाने में उसकी सक्रिय भागीदारी का विस्तार से जिक्र है। इसीलिए सवाल उठा है कि ये दिल्ली पुलिस है या दंगा पुलिस?
रिपोर्ट तो ये भी कहती है कि हिंसा के पीड़ितों को इलाज से रोका गया। पीड़ितों और हिरासत में लिए गए लोगों को यातना दी गयी और उनके साथ मनमानी की गयी। ये काम दंगाइयों ने नहीं, दिल्ली पुलिस ने किया, जैसा कि रिपोर्ट में दर्ज है। रिपोर्ट में साफ-साफ लिखा है कि नागरिकता कानून का विरोध कर रहे शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर जुल्म ढाने और डराये-धमकाये जाने का एक साफ़ पैटर्न सामने आता है।
ये बातें एमनेस्टी इंटरनेशनल ने तुक्के में नहीं कही हैं। उसने सोशल मीडिया पर डाले गये वीडियो में मानवाधिकार उल्लंघन के सबूतों की विश्वसनीयता की पुष्टि करने के लिए विश्व विख्यात क्राइसिस एविडेंस लैब की मदद ली है। यह लैब अत्याधुनिक, ओपन-सोर्स और डिजिटल जांच उपकरणों के ज़रिये गंभीर मानवाधिकार उल्लंघनों का विश्लेषण और उनकी पुष्टि करने का काम करती है।
क्राइसिस एविडेंस लैब ने वीडियो के समय, तारीख और स्थान की पुष्टि करके इन वीडियो को प्रमाणित किया है। इतना ही नहीं, एमनेस्टी इंटरनेशनल की टीम ने उन जगहों का दौरा भी किया है जहां ये वीडियो रिकॉर्ड किये गये थे। वहां मौजूद चश्मदीद गवाहों और पीड़ितों से भी उसने बात की है।
एमनेस्टी की क्राइसिस एविडेंस लैब से पुष्ट ऐसे ही एक वीडियो में दिल्ली पुलिस के जवानों को 24 फरवरी 2020 को पांच घायलों को लात मारते, पीटते हुए, उन्हें राइफलों से कोंचते हुए देखा जा सकता है। वीडियो के रिकॉर्ड किये जाने के बाद पांचों लोगों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया था। एमनेस्टी ने वीडियो में पुलिस की यातना के शिकार पांच लोगों में से एक 26 साल के फैज़ान की मां से बात की। फैज़ान की मां ने बताया कि उन्होंने ये वीडियो कई बार देखा था, लेकिन उन्हें बहुत बाद में इसका अहसास हुआ कि उनका अपना बेटा भी इस वीडियो में है। बाद में फैज़ान की मां बेटे की तस्वीर लेकर पुलिस थाने गयी थीं और पूछा था कि क्या उनका बेटा उनकी कैद में है, तो पुलिसवालों ने कहा था हां लेकिन उन्होंने बेटे को दिखाने या मिलवाने से इंकार कर दिया था।
जब बेहिसाब यातना के कारण उसकी हालत बिगड़ने लगी तो 36 घंटे बाद फैज़ान को उसके परिवार को सौंप दिया गया। उसकी हिरासत का कोई दस्तावेज पुलिस ने देने से मना कर दिया। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने साफ-साफ लिखा है कि दिल्ली पुलिस ने हिंसा के दौरान भारत के कानून की धज्जी उड़ाकर रख दी थी।
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने हिंसा के ठीक पहले भड़काऊ भाषण देने वाले नेताओं की भूमिका का भी विश्लेषण किया है। रिपोर्ट में लिखा है कि 23 फरवरी को भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने उत्तर–पूर्वी दिल्ली के जाफ़राबाद में शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन के खिलाफ एक रैली का नेतृत्व करते हुए दिल्ली पुलिस को प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए तीन दिन का अल्टीमेटम दिया, जिसे तमाम टीवी चैनलों पर दिखाया गया।
कपिल मिश्रा के भाषण के तुरंत बाद दिल्ली में बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क गयी थी। अभी तक किसी भी नेता के खिलाफ कोई भी मामला दर्ज नहीं किया गया है।
एमनेस्टी ने गृहमंत्री अमित शाह से मांग की है कि दिल्ली पुलिस पर मानवाधिकार उल्लंघनों के सभी आरोपों और राजनीतिक नेताओं के भड़काऊ भाषणों की त्वरित, विस्तृत, पारदर्शी, स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच की जानी चाहिए। एमनेस्टी ने 2020 की हिंसा की तुलना 1984 के सिख नरसंहार से करते हुए कहा है कि दोनों ही मामलों में दिल्ली पुलिस की भूमिका बहुत भयावह रही है।
सवाल उठता है कि जब पुलिस ही दंगाइयों, मवालियों, हत्यारों और लुटेरों के साथ जा मिलेगी तो जनता की हिफाज़त का दावा एक ढोंग से ज्यादा क्या बचेगा? इससे कहीं ज्यादा बड़ा सवाल ये है कि दिल्ली पुलिस ने दंगाइयों का साथ किसके आदेश पर दिया?
सौज – जनपथ