तमाम विवादों या आरोपों के बावजूद लोकतांत्रिक और सेक्युलर खेमे में शायद ही किसी को इस बात पर असहमति हो कि अग्निवेश एक सेक्युलर स्वामी थे, एक योद्धा स्वामी! आज के दौर में स्वामी कहलाने वाले कई लोग ‘कारपोरेट व्यापारी’ बन गये या सत्ता के ‘धर्माधिकारी’। पर स्वामी अग्निवेश ने वह रास्ता कभी नहीं अपनाया।
स्वामी अग्निवेश नहीं रहे। उन का निधन ऐसे समय हुआ, जब उन जैसे लोगों की हमारे समाज को ज्यादा जरूरत है। वह आर्यसमाजी थे पर संकीर्ण और आडम्बरी नहीं! वेदों, सत्यार्थ प्रकाश की वैचारिकी और यज्ञादि में उनकी आस्था रही होगी पर वह किसी अन्य धारा के धर्मावलंबी, खांटी धर्मनिरपेक्ष या नास्तिक व्यक्ति या समूह के साथ भी उतने ही सहज ढंग से पेश आते थे। जहां तक याद आ रहा है, स्वामी जी से मेरा परिचय सन् 79-80 के दौर में हुआ..बाद के दिनों में उन्हीं के यहां पहली दफा किसी वक्त कैलाश सत्यार्थी से भी परिचय हुआ–और भी बहुत सारे लोगों से स्वामी जी के यहां मुलाकात होती रहती थी। आमतौर पर हम जैसे छात्र वहां किसी बैठक या संगोष्ठी के सिलसिले में ही जाते थे। उनका दफ़्तर संघर्ष और आंदोलन से जुड़े हर किसी के लिए सहज सुलभ था।
उन दिनों मैं दिल्ली में नया-नया आया था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए करने के बाद एमफिल/पीएचडी के लिए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में दाखिला हुआ था। जहां तक याद आ रहा है, पहली बार विश्वविद्यालय के ही अपने किसी सीनियर के साथ मैं स्वामी जी के यहां किसी संगोष्ठी में गया। संभवतः वह बैठक बंधुआ मजदूरों की समस्या या ऐसे ही किसी फौरी महत्व के सवाल पर केन्द्रित थी। स्वामी जी और हम जैसे लोगों में कई मामलों में भिन्नता भी थी, मसलन; उम्र, वैचारिकी और कार्यक्षेत्र में भी काफी अंतर था। संभवतः इसीलिए अपन की उनसे कभी बहुत घनिष्ठता भी नहीं रही। पर उनके लिए आदर हमेशा बना रहा। मुलाकात भी कभी-कभी होती रही। उनमें एक अद्भुत बात देखी। वह अपने से दस या बीस वर्ष कम उम्र के किसी व्यक्ति से भी उसी तरह पेश आते थे जैसे अपनी उम्र के लोगों के साथ। शालीनता, सहजता और विनम्रता उनके व्यक्तित्व के चमकदार पहलू थे।
छात्र जीवन के बाद मैं सन् 1983 में पत्रकारिता में आ गया। मेरे कामकाज की दुनिया और प्राथमिकताएं भी बदलीं। धरना-प्रदर्शन जैसी सामाजिक-राजनैतिक गतिविधियों का हिस्सेदार होने की बजाय अब उऩको ‘कवर’ करने वाले एक युवा पत्रकार की भूमिका में आ गया। उन दिनों भी यदा-कदा किसी कार्यक्रम में स्वामी जी से मुलाकात हो जाया करती। स्वामी जी ने बंधुआ मजदूरों और बाल मजदूरों की समस्या पर बड़ा अभियान चलाया। अपने आंदोलन के मुद्दों को प्रचारित और प्रसारित करने के लिए कुछ पत्रिकाएं भी निकालीं।
आंध्र प्रदेश में सन् 1939 में पैदा हुए अग्निवेश के कार्यक्षेत्र में दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे इलाके शुमार रहे। सच बात तो ये कि वह किसी एक विषय या क्षेत्र तक सीमित नहीं रहे। बिहार, आंध्र, मध्य प्रदेश या ओडिशा के गरीब किसानों और खेत मजदूरों के मसले हों या पूर्वोत्तर के किसी राज्य में पुलिस दमन का हो या रूस-अमेरिका जैसे ताकतवर देशों की वर्चस्ववादी नीतियों का मसला हो, दलित-आदिवासी उत्पीड़न के सवाल हों या कोई जघन्य बलात्कार कांड हो, ऐसे हर सवाल पर स्वामी जी छात्र-युवा संगठनों, विपक्षी दलों या ट्रेड यूनियनों के साथ आकर खड़े हो जाते थे।
यही नहीं, हमारे कई साथियों के प्रेम-विवाह में भी उनका बड़ा समर्थन और संरक्षण मिलता रहा। बहुत आसानी से उन्होंने ऐसे साथियों की आर्य समाज रीति से किसी तड़क-भड़क के बगैर शादी कराई। इससे कोई लफड़ा भी नहीं हो सका। आज भी याद है, उन्होंने हमारे एक तेलुगू मित्र गुमडी राव और हापुड़ निवासी विजया के प्रेम-विवाह में बहुत अहम् भूमिका निभाई। एक तरह से वह संरक्षक बनकर खड़े हो गये और दोनों मित्रों की शादी आसानी से हो गई।
जन आंदोलनों की राजनीति से जुड़े कई लोग स्वामी अग्निवेश के आलोचक भी रहे हैं। उन पर तरह-तरह के आरोप भी लगते रहे। कुछ लोगों का आरोप रहा कि उनकी कुछ गतिविधियां बड़ी संदिग्ध हैं। अन्य लोगों को भरोसे में लिये बगैऱ वह कई दफा संघर्ष के मैदान से हटकर अचानक सरकार में बैठे किसी वरिष्ठ मंत्री या बड़े नौकरशाह से उन मुद्दों पर समझौता वार्ता करने लगते हैं। एक आरोप यह भी लगता रहा कि हर जगह कूद पड़ने की उनकी आदत सी हो गई है। इसके लिए एक उदाहरण अन्ना-अभियान का भी दिया जाता हैः वह अन्ना-अभियान में भी शामिल हुए थे। फिर उपेक्षा के चलते अलग हो गये।
इन तमाम विवादों या आरोपों के बावजूद लोकतांत्रिक और सेक्युलर खेमे में शायद ही किसी को इस बात पर असहमति हो कि अग्निवेश एक सेक्युलर स्वामी थे, एक योद्धा स्वामी! आज के दौर में स्वामी कहलाने वाले कई लोग ‘कारपोरेट व्यापारी’ बन गये या सत्ता के ‘धर्माधिकारी’। पर स्वामी अग्निवेश ने वह रास्ता कभी नहीं अपनाया। उन्होंने कभी सत्ता की छाँव नही तलाशी। अपने जीवन के शुरूआती दौर में वह हरियाणा से विधायक बने। फिर मंत्री भी बने। चाहते तो वह उसी दिशा में आगे बढ़े होते। पर उन्होंने सत्ता-राजनीति से अलग रहकर सामाजिक-राजनीतिक काम करने का फैसला किया तो फिर पीछे मुड़कर नही देखा। जितना मुझे मालूम है, स्वामी अग्निवेश ने अपने जीवन मूल्यों पर किसी सत्ता से कोई गर्हित समझौता नहीं किया। मौजूदा सत्ताधारियों के तो वह हमेशा कोपभाजन बने रहे। डेढ़-दो साल पहले, झारखंड के पाकुड़ में उन पर जानलेवा हमला तक हुआ पर इस बुजुर्ग स्वामी ने हिम्मत नहीं हारी। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजयेपी के निधन के बाद वह उऩके पार्थिव शरीर पर पुष्पांजलि देने गये तो वहां वाजपेयी जी के निवास के पास ही उन पर कुछ तत्वों ने हमला कर दिया। एक गेरुआधारी होने के बावजूद स्वामी अग्निवेश से संघ-भाजपा समर्थक कभी सहज नहीं रहे और स्वामी जी ने भी संघ-भाजपा की राजनीति के विरोध का अपना स्वर कभी बदला नहीं।
सामाजिक, राजनैतिक या बौद्धिक क्षेत्र में सक्रिय किसी व्यक्ति या संस्था को मैं संपूर्णता में देखने का पक्षधर हूं। मैं लोगों या संस्थाओं में में सिर्फ उनकी कमियां नहीं निहारता। कमियां किसमें नहीं होतीं! जहां तक स्वामी अग्निवेश का सवाल है, अपनी कतिपय कमियों के बावजूद वह एक जन-पक्षधर कार्यकर्ता और योद्धा स्वामी थे।
उन्हें मेरा सलाम और श्रद्धांजलि।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।ये उनके निजि विचार हैं। सौज- न्यूजक्लितः लिंक नीचे दी गई है
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