हरजिंदर
किसानों का कहना है कि मंडी समिति के जरिये संचालित अनाज मंडियां उनके लिए यह आश्वासन थीं कि उन्हें अपनी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाएगा। मंडियों की बाध्यता खत्म होने से अब यह आश्वासन भी खत्म हो जाएगा। किसानों के मुताबिक़, मंडियों के बाहर जो लोग उनसे उनकी उपज खरीदेंगे वे बाजार भाव के हिसाब से खरीदेंगे और यह उन्हें परेशानी में डाल सकता है।
अभी दो सप्ताह पहले जब हम देश की विकास दर के 24 फीसदी तक गोता लगा जाने पर आंसू बहा रहे थे, तब इस बात पर संतोष भी व्यक्त किया जा रहा था कि कृषि की हालत उतनी खराब नहीं है। देश की बड़ी आबादी जिस कारोबार से जुड़ी है उसकी विकास दर भले ही कम हो लेकिन संकट काल में भी वह सकारात्मक बनी हुई है, यह राहत की बात थी।
लेकिन दो हफ्तों के अंदर ही देश भर के किसान सड़कों पर उतर आए और संकट सिर्फ सड़कों पर ही नहीं दिखा, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन भी इसकी जद में आ गया। 1997 से लगातार गठबंधन के साथ कदम मिला रहा अकाली दल इसी मुद्दे पर उससे छिटक गया।
केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल के मंत्रिमंडल से इस्तीफा देते ही यह भी स्पष्ट हो गया कि केंद्र सरकार ने कोरोना काल के बाद कृषि सुधार के नाम पर जो तीन अध्यादेश जारी किए थे वे राजनीतिक रूप से उस पर भारी पड़ सकते हैं, भले ही सरकार पर फिलहाल कोई संकट न हो। संसद के इस सत्र में ये तीनों अध्यादेश विधेयक के रूप में पेश किए जा रहे हैं ताकि उन्हें कानून बनाया जा सके।
ये तीन विधेयक हैं- कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य विधेयक, मूल्य आश्वासन तथा कृषि सेवाओं पर किसान समझौता और आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक। कोरोन काल का लाॅकडाउन शुरू होते ही केंद्र सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपये के जिस कथित राहत पैकेज की घोषणा की थी, इन विधेयकों का एलान भी उसी के साथ हो गया था।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने तब कहा था कि किसान अब अपनी उपज पूरे देश में कहीं भी बेच सकेंगे। ‘एक देश एक मंडी’ जैसे नारे भी दिए गए थे। हालांकि सरकार के राहत पैकेज की असलियत समझने में थोड़ा सा समय लग गया था और इन कानूनों के पेच तो और भी देर से समझ में आए हैं।
आढ़ती भी विरोध में उतरे
अभी तक देश में कृषि मंडियों की जो व्यवस्था है, उसमें अनाज की खरीद के लिए केंद्र सरकार बड़े पैमाने पर निवेश करती है। इसी के साथ किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का आश्वासन मिल जाता है और करों के रूप में राज्य सरकार की आमदनी हो जाती है।
ऐसी बिक्री पर आढ़तियों को जहां 2.5 फीसदी का कमीशन मिलता है तो वहीं मार्केट फीस और ग्रामीण विकास के नाम पर छह फीसदी राज्य सरकारों की जेब में चला जाता है। यही वजह है कि किसानों के अलावा स्थानीय स्तर पर आढ़तिये और राज्य सरकारें भी इसका विरोध कर रही हैं। यह बात अलग है कि जिन राज्यों में बीजेपी या एनडीए की सरकारें हैं वे विरोध की स्थिति में नहीं हैं।
नए कानून के हिसाब से कोई भी व्यक्ति जिसके पास पैन कार्ड हो वह कहीं भी किसानों से उनकी उपज खरीद सकता है- उनके खेत में भी, किसी कोल्ड स्टोरेज में भी और किसी बाजार में भी। केंद्र सरकार का कहना है कि कृषि उपज का ट्रेडिंग एरिया जो अभी तक मंडियों तक सीमित था, उसे अब बहुत ज़्यादा विस्तार दे दिया गया है।
किसानों का कहना है कि मंडी समिति के जरिये संचालित अनाज मंडियां उनके लिए यह आश्वासन थीं कि उन्हें अपनी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाएगा। मंडियों की बाध्यता खत्म होने से अब यह आश्वासन भी खत्म हो जाएगा।
केंद्र सरकार का तर्क
किसानों के मुताबिक़, मंडियों के बाहर जो लोग उनसे उनकी उपज खरीदेंगे वे बाजार भाव के हिसाब से खरीदेंगे और यह उन्हें परेशानी में डाल सकता है। हालांकि केंद्र सरकार यही कह रही है कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य को ख़त्म नहीं करने जा रही है लेकिन किसान मानते हैं कि इसका अंतिम नतीजा न्यूनतम समर्थन मूल्य का खत्म होना ही होगा।
एमएसपी से छेड़छाड़ का डर
कृषि क्षेत्र में लंबे समय से चल रहे संकट और देश भर में किसानों की आत्महत्याओं के बावजूद खेती-बाड़ी करने वालों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य एक निश्चित आमदनी की गारंटी की तरह था। इसलिए इससे किसी तरह की छेड़छाड़ या इस पर किसी तरह की आशंका किसानों को स्वीकार नहीं होगी।
यह सच है कि देश के कृषि क्षेत्र को बड़े पैमाने पर सुधार और इसमें भारी निवेश की ज़रूरत है। किसान संगठन यह मानते हैं कि अभी तक जो सुधार सामने आ रहे हैं उसमें केंद्रीय चिंता किसानों को लेकर नहीं बल्कि कृषि व्यापार को लेकर है। इसलिए ऐसे सुधारों में अक्सर सभी स्टेक होल्डर्स, खासकर किसानों और किसान संगठनों को भरोसे में नहीं लिया जाता और इस बार तो राज्य सरकारों तक को भरोसे में नहीं लिया गया, जबकि संविधान में कृषि राज्यों की सूची का मामला है।
कोरोना काल में जीएसटी ने राज्यों के आर्थिक संकट को काफी बढ़ा दिया है, अब वे कृषि सुधार के नाम पर इसे बढ़ाने का और जोखिम नहीं लेना चाहेंगे।
अकाली दल की राजनीति
इन कानूनों का जमीनी स्तर पर क्या असर हुआ है, इसे अकाली दल की प्रतिक्रिया से ज्यादा अच्छी तरह समझा जा सकता है। पंजाब में सत्ता का वनवास और केंद्र में सत्ता सुख भोग रहे अकाली दल ने शुरू में आमतौर पर इस पर चुप्पी साधे रखी। लेकिन संसद सत्र शुरू होने के साथ ही जिस तरह से हरियाणा और पंजाब में अचानक ही किसान सड़कों पर उतर आए उससे अकाली दल की नींद खुली और उसे यह समझ में आया कि यह उदासीनता उसके लिए महंगी साबित हो सकती है। इसलिए फटाफट न सिर्फ इन विधेयकों का विरोध शुरू हुआ बल्कि हरसिमरत कौर बादल से इस्तीफा भी दिलवा दिया गया।
पंजाब के पिछले विधानसभा चुनाव और फिर लोकसभा चुनाव में अकाली दल की हालत काफी खराब रही है। इस बीच वह पंजाब में किसी बड़े मुद्दे को भी नहीं उठा सकी। अब वह इन विधेयकों का विरोध करके वापसी की उम्मीद बांध रही है।
पंजाब की राजनीति ने जिस तरह से करवट ली है, वैसी ही राजनीतिक करवट आने वाले समय में हमें दूसरे कई राज्यों में भी दिख सकती है। खासकर उन राज्यों में जहां किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य के भरोसे किसानी करते हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, समसामयिक विषयों पर लिखते रहते हैं। ये उनके निजि विचार हैं। सौज- आउटलुकः लिंक नीचे दी गई है-