कपिला वात्स्यायन के निधन ने साबित किया है कि संस्कृति की असल पहचान से ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादी’ कितने दूर हैं

शंकर शरण

सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों की दृष्टि अपनी पार्टी का प्रचार, पार्टी नेताओं की पूजा-आरती और दूसरों की निंदा से आगे कभी नहीं जा सकी. यदि वे धर्म और संस्कृति को सर्वोपरि समझते तो उनका रिकॉर्ड बहुत भिन्न रहा होता.

कपिला वात्स्यायन जैसी अनूठी विदुषी के निधन पर राष्ट्रीय नेताओं की चुप्पी ने ध्यान खींचा. इसलिए भी क्योंकि अभी अपने को ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादी’ कहने वालों का बोलबाला है. वे चालू नेताओं, फिल्मी और खेल हस्तियों पर भी बधाई या संवेदना संदेश देते रहते हैं. परंतु संस्कृति क्षेत्र की इतनी बड़ी हस्ती उनकी संवेदना के दायरे से बाहर रहीं. जबकि देश-विदेश से अनेक विशिष्ट जनों और देश के अंदर सुदूर छोटे-छोटे स्थानों तक से संस्कृतिकर्मियों, कलाकर्मियों ने उनके देहांत पर शोक महसूस और प्रकट किया.

दशकों पहले ‘राष्ट्रीय चरित्र’ की परिभाषा बताते हुए कपिला जी ने लिखा था- ‘व्यक्तिगत और सार्वजनिक संबंधों का बचा हुआ स्वाद, जब उन घटनाओं और समय के संदर्भ का बाकी सब कुछ स्मृति से लुप्त हो जाता है.’ कितना मर्मभूत अवलोकन. दशकों पहले पढ़ी यह बात मेरी स्मृति में बैठी हुई है. अभी याद आया कि हमारे राष्ट्रीय और सांस्कृतिक चरित्र का स्वाद कितना फीका होता गया है.

हमारे कथित सांस्कृतिक राष्ट्रवादी अनौपचारिक रूप से अपने को हिन्दूवादी भी कहते हैं. इस का संकेत कर राजनीतिक लाभ भी उठाते हैं. इस दृष्टि से भी उन की उपेक्षा ध्यान देने योग्य है, जब देखें कि कपिला वात्स्यायन का संपूर्ण सांस्कृतिक कार्य एवं योगदान शुद्ध ‘हिन्दू’ श्रेणी का था.

अत्यंत जानी-मानी हस्ती और दो बार राज्य सभा सदस्या होने के बावजूद, उन्होंने कभी राजनीतिक, दलीय काम या लेखन-वाचन नहीं किया. उनके शैक्षिक, बौद्धिक और कला संस्कार शुद्ध रूप से हिन्दू थे. जिसे उन्होंने न तो दिखावे की वस्तु बनाया, न ही छिपाने या लीपा-पोती की.

संवेदन शून्य राजनीतिक सत्ता

आह, कपिला जी के पति महान कवि-चिंतक सच्चिदानन्द वात्स्यायन (अज्ञेय) ने दशकों पहले इन राष्ट्रवादियों का कितना सटीक मूल्याकंन किया था. उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टियों और संघ-परिवार, दोनों को संकीर्णता ग्रस्त पाया.

वात्स्यायन जी के शब्दों में, दोनों ‘एक तरह का छुआछूत मानते हैं, शुद्धतावादी हैं और हमेशा जिसे वे ‘अपना’ नहीं समझते उसे दूर रखने पर जोर देते हैं– बहिष्कारवादी हैं.’ इस एक वाक्य में ही संघ-परिवार की बुनियादी भूल निरूपित है जिसका प्रमाण अभी उन्होंने कपिला जी के अवसान पर दिया है.

एक विदेशी विद्वान, कूनराड एल्स्ट ने इस विडंबना को दूसरे रूप में नोट किया है. हिन्दू धर्म-समाज से गहरी सहानुभूति रखने वाले एल्स्ट कहते हैं कि भारत में सांस्कृतिक गतिविधियों, मूल्यवान धरोहरों और परंपराओं को संरक्षण देने के प्रति कांग्रेस सत्ताधारी अधिक सचेत और उदार रहे हैं. उन्होंने देशज कलाओं, हस्त-कला, परंपराओं को संरक्षण देने के लिए अनेक संस्थाएं बनाईं. विदेशों में भी भारतीय कला, संस्कृति का प्रचार कराया. विभिन्न कला विभूतियों, कलाकारों, विद्वानों का सम्मान करने, कला-संस्कृति से संबद्ध संग्रहालय स्थापित करने में भी कांग्रेस सत्ताधारी आगे रहे हैं.

कांग्रेस की तुलना में भाजपा की सत्ताएं, राज्य या केंद्र में, एक जैसी ठस या संवेदन शून्य रही हैं. इस प्रवृत्ति में किसी गौरवशाली हिन्दू संस्कृति की छाप नहीं है.

यही कारण है कि अपने को सांस्कृतिक कहते हुए भी, संघ परिवार ठीक सांस्कृतिक, बौद्धिक क्षेत्र में निष्प्रभावी रहा है. क्योंकि उनकी रुचि राजनीति बल्कि केवल उसकी जड़-कुर्सियों में रहती है. उसके उपयोग पर भी नहीं. इसीलिए बौद्धिक प्रभाव का उपभोग आज भी नेहरूवादी-वामपंथी ही कर रहे हैं. उनकी नीतिगत इच्छाओं के विरुद्ध चलने की ताब संघ-परिवार के सत्ताधारियों में नहीं है. उनके नीति-दस्तावेज भी इस के प्रत्यक्ष प्रमाण है.

संस्कृति की पहचान से काफी दूर है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

यह कैसा दोहरापन है! कपिला जी ने आज के आम भारतीय के चरित्र पर लिखा था कि वह ‘पाखंडी और विखंडित, दोनों, और जीवन व्यवहार में न केवल दोहरे बल्कि अनेक मानदंडों से चलने वाला होता है. वल्गैरिटी और भद्दापन जिस का स्वभाविक परिणाम होना ही है. अनुभूति और बौद्धिक निष्ठा के बीच एक तीखा अंतर्विरोध उभरता है और अपने हर अर्थ में सुरुचि का अभाव ही वह अंतिम स्वाद है, जो बचा रह जाता है.’

कितना दुखद है कि हमारे देश के बड़े नेताओं पर भी यह टिप्पणी सटीक बैठती है. यह कोई नई गड़बड़ी भी नहीं है. सच्चिदानन्द वात्स्यायन ने इस पर दशकों पहले ऊंगली रखी थी. उन के शब्दों में, ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वयं अपने दावे के अनुसार एक सांस्कृतिक संगठन है… उसने धर्म संस्कार की रक्षा के मामले में एक आक्रामक नहीं तो संघर्षशील प्रवृत्ति को तो उकसाया, लेकिन संस्कृति के प्रति गौरव का भाव उस ने भी नहीं जगाया. संस्कृति के लिए हम लड़ें तो, मगर वह संस्कृति अभिमान के योग्य भी हो, यह आवश्यक नहीं है! ऐसी मानसिकता की कार्यक्षमता कितनी होगी यह सहज ही सोचा जा सकता है.’

इस प्रकार, यह अनायास नहीं है कि संघ संगठनों के लिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद महज एक जुमला है. जिस के किसी अर्थ से वे परिचित नहीं लगते. अन्यथा, कपिला वात्स्यायन न केवल अपने लेखन और कर्म में बल्कि व्यक्तित्व में भी पहली नज़र में ही प्रतिनिधि हिन्दू विदुषी लगती थीं. असमी हथकरघे की साड़ी, सौम्य भाव भंगिमा और माथे पर तुलसी-चंदन का टीका. देखते ही मन में आदर उपजे.

मगर ऐसी अनूठी हिन्दू विदुषी भी मानो हमारे राष्ट्रीय कर्णधारों के लिए ‘पराई’ थीं. कपिला जी के अवसान के समाचार पर उन्हें कोई राष्ट्रीय या सांस्कृतिक क्षति का बोध नहीं हुआ. इसी नासमझी के कारण उन्हें दकियानूसी, पिछड़ा, आदि बताने में वामपंथियों को मदद मिलती रही. यह विडंबना ही है कि भारत में वामपंथी लोग संस्कृति की बेहतर पहचान रखते हैं, उस के प्रति शत्रुता रखते हुए भी.

जबकि संघ-परिवार चाहे संस्कृति की बातें खूब करता रहा है पर उस की पहचान से बिलकुल पैदल है. वरना, सच्चिदानन्द वातस्यायन और कपिला वात्स्यायन, दोनों ही अनूठे मनीषी उनकी सहज श्रद्धा के पात्र होते. उनके काम, सीख और नाम को देश में नई पीढ़ी तक पहुंचाना उनका एक आवश्यक कार्य होता. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, न होने का कोई संकेत है. इसे पार्टी-हित में धर्म, संस्कृति और देश-हित का विस्मरण ही कहना चाहिए. सांस्कृतिक नासमझी और मतिहीनता की पराकाष्ठा.

सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों की दृष्टि अपनी पार्टी का प्रचार, अपने पार्टी नेताओं की पूजा-आरती और दूसरों की निंदा से आगे कभी नहीं जा सकी. यदि वे धर्म और संस्कृति को सर्वोपरि समझते तो उनका रिकॉर्ड बहुत भिन्न रहा होता. कपिला जी के निधन पर उनके आश्चर्यजनक व्यवहार ने हमें अपनी संस्कृति के अधिकाधिक फीके पड़ते स्वाद की याद दिलाई है.

(लेखक हिंदी के स्तंभकार और राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)सौजःदप्रिंटः लिंक नीचे दी गई है-

https://hindi.theprint.in/culture/demise-of-kapila-vatsyayan-has-proved-that-the-taste-of-our-national-and-cultural-character-is-fading/172198/

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