रविकान्त
डॉक्टर बी. आर आंबेडकर ने 14 अक्टूबर, 1956 को हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म अपना लिया। 64 साल पहले हुई इस महत्वपूर्ण घटना की क्या वजह थी? डॉक्टर आंबेडकर ने बौद्ध धर्म की ही दीक्षा क्यों ली?
‘असमानता और उत्पीड़न के प्रतीक, अपने प्राचीन धर्म को त्यागकर आज मेरा पुनर्जन्म हुआ है। अवतरण के दर्शन में मेरा कोई विश्वास नहीं है, यह दावा सरासर ग़लत और शातिराना होगा कि बुद्ध भी विष्णु के अवतार थे। मैं किसी हिन्दू देवी-देवता का भक्त नहीं हूँ। आइंदा मैं कोई श्राद्ध नहीं करूंगा। मैं बुद्ध के बताए अष्टमार्ग का दृढ़ता से पालन करूंगा। बौद्ध धर्म ही सच्चा धर्म है और मैं ज्ञान, सद्मार्ग और करुणा के तीन सिद्धांतों के प्रकाश में जीवनयापन करूंगा।’
आंबेडकर ने धर्म क्यों बदला?
ये शब्द बाबा साहब डा. आंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को महाराष्ट्र के नागपुर की दीक्षा भूमि में आयोजित धर्मांतरण कार्यक्रम में बौद्ध धर्म स्वीकारने के बाद कहे थे। यह दो दशक पुराना वादा था जिसे उन्होंने इस दिन पूरा किया था। अक्टूबर 1935 में येवला में डिप्रेस्ड क्लासेज के प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए बाबा साहब ने कहा था- मेरा दुर्भाग्य है कि मैं एक हिन्दू अस्पृश्य के रूप में पैदा हुआ। मैं इस तथ्य को नहीं बदल सकता। मगर मैं ऐलान करता हूँ कि ऐसे हेय और अपमानजनक हालात में जीने से इनकार करना मेरी शक्ति के भीतर है। मैं दृढ़तापूर्वक आपको यह आश्वासन देता हूँ कि मैं एक हिन्दू के रूप में नहीं मरूँगा।’
हिन्दू धर्म को सीख
इस धर्मांतरण समारोह में बाबा साहब के 3,80,000 अनुयायियों ने भी हिन्दू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म अपनाया। इसलिए आज की तारीख बाबा साहब के अनुयायियों और बौद्धों के लिए जितनी ख़ास है, उतनी ही भारतीय सामाजिक व्यवस्था के लिए अर्थवान भी है।
अलबत्ता हिन्दू धर्म के लिए यह तारीख एक सबक भी बन सकती थी। लेकिन आज भारतीय समाज और हिन्दू धर्म जिस राजनीतिक मंच पर सुशोभित हैं, उससे हम सब वाकिफ़ हैं।
विभिन्न धर्मों पर विचार
हिन्दू धर्म त्यागने के ऐलान के बाद डा. आंबेडकर ने विकल्प के तौर पर विभिन्न धर्मों पर विचार किया। एक अस्पृश्य हिन्दू के रूप में जन्मे बाबा साहब के लिए स्वतंत्रता और समानता जैसे मूल्यों के साथ दलित समाज के उत्थान का सवाल सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण था। इसलिए उन्होंने ईसाई और इसलाम धर्मों पर सबसे पहले विचार किया।
ईसाईयत
ईसाई धर्म पर विचार करते हुए वह कहते हैं कि अस्पृश्यों के लिए स्वतंत्रता और समता जैसे मूल्य यहाँ निहित हैं। पश्चिमी दुनिया का धर्म होने के नाते अस्पृश्यों को आर्थिक सहयोग भी मिल सकता है।
इसलाम
उनका कुछ यही खयाल इसलाम के बारे में भी है। इसलाम में निहित समता से प्रभावित बाबा साहब कहते हैं कि इसलामी दुनिया के मुसलमानों से अस्पृश्यों को बहुत सहयोग मिल सकता है। ईसाई और इसलाम धर्म के लोग भी बाबा साहब को अपना धर्म स्वीकारने के लिए प्रेरित करते हैं।
लेकिन बाबा साहब इन धर्मों को अभारतीय और ईश्वर के वचनों पर आधारित मानकर अस्वीकार करते हैं।
आंबेडकर का कहना था कि ईसा मसीह खुद को ईश्वर की संतान कहते हैं। इसी तरह मुहम्मद साहब खुदा के पैगंबर यानी संदेश वाहक हैं। इसलिए इनकी कही गई बातों पर तर्क नहीं किया जा सकता। आंबेडकर के लिए तर्क और विवेक ज़रूरी मूल्य हैं।
सिख धर्म
इसके बाद वे सिख धर्म पर विचार करते हैं। हिन्दू धर्म के बरक्स इसमें न तो ईश्वर का पाखंड है और न ही असमानता। यह भारतीय भी है। लेकिन चालीस लाख की आबादी ( उस समय की सिख आबादी) अस्पृश्यों को ईसाई और इसलाम की तरह ताक़त नहीं दे सकती।
वे ऐसा धर्म चाहते थे जिसमें दलितों के जीवन की गरिमा और उत्थान के अधिकार सुरक्षित हों। वे ऐसा धर्म चाहते थे जिसमें दलितों के जीवन की गरिमा और उत्थान के अधिकार सुरक्षित हों।
ऐसा लगता है कि ईसाई और इसलाम धर्म को खारिज करने के पीछे अभारतीयता का सवाल नहीं, बल्कि पूना पैक्ट के तहत प्राप्त अधिकारों के खोने की चिंता ज्यादा थी।
सिख धर्म पर विचार करते हुए उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत से अस्पृश्यों को प्राप्त अधिकारों का आश्वासन माँगा। लेकिन अंग्रेज सरकार का कोई संतोषजनक जवाब उन्हें नहीं मिला। बाबा साहब एक साल तक सिख धर्म अपनाने पर गंभीरतापूर्वक विचार करते रहे।
महाड़ आन्दोलन
डा. आंबेडकर द्वारा हिन्दू धर्म छोड़ने का पहला जिक्र 1927 में महाड़ आंदोलन के समय मिलता है। 1935 तक आते-आते तमाम अस्पृश्यों के सामूहिक धर्मांतरण के लिए बाबा साहब संकल्पबद्ध हो जाते हैं। अपने साथियों को संबोधित करते हुए वे कहते हैं, ‘हमने जिस तरह के अभावों को झेला है और जिस तरह के अपमान का घूंट पिया है उसका मूल कारण यही था कि हम हिन्दू समुदाय के सदस्य हैं। क्या हमारे लिए यह बेहतर नहीं होगा कि हम इस धर्म को छोड़कर एक ऐसा नया धर्म अपनाएं जो हमें बराबरी की हैसियत व सुरक्षित स्थान दे और जहां हमारे साथ ऐसा बर्ताव किया जाए जिसके हम हकदार हैं?’
आंबेडकर ने इसके आगे कहा, ‘मैं आपको सलाह देता हूँ कि हिन्दू धर्म के साथ अपने सारे ताल्लुक तोड़ लें और कोई नया धर्म अपनाएँ। मगर, ऐसा करते हुए, नया धर्म अपनाते हुए एहतियात बरतें और यह देखें कि वहाँ आपको व्यवहार, हैसियत और अवसरों के मामले में पूरी बराबरी मिलेगी या नहीं।’
प्रतिक्रियाएं
सामूहिक धर्मांतरण की प्रतिबद्धता के बाद विभिन्न धर्मों की प्रतिक्रियाएं आने लगीं। भारतीय ईसाइयों ने आंबेडकर के संस्थागत धर्मांतरण को खारिज कर दिया।
लेकिन इसलाम की ओर से बहुत सहानुभूतिपूर्ण प्रतिक्रिया हुई। भारत की ख़िलाफ़त सेंट्रल कमेटी के प्रतिनिधि मौलाना मुहम्मद इरफ़ान ने आंबेडकर के सामूहिक धर्मांतरण का स्वागत करते हुए कहा कि इससे उन्हें भारत में सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय का नेता बनने का मौका मिलेगा।
इसी प्रकार सिख पंथ ने भी आंबेडकर का आह्वान किया। अमृतसर के स्वर्ण मंदिर प्रबंधन समिति के उपाध्यक्ष दलीप सिंह दोआबिया ने कहा कि अस्पृश्यों का सिख धर्म में दिल खोलकर स्वागत किया जाएगा।
हिन्दू धर्मगुरुओं ने क्या कहा?
इस सबके बीच सबसे ज़रूरी सवाल यह है कि बाबा साहब के इस निर्णय पर हिन्दू धर्मगुरुओं और नेताओं की क्या प्रतिक्रिया थी? आमतौर पर हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के तौर पर महात्मा गाँधी को डा. आंबेडकर के बरक्स खड़ा किया जाता है और सिद्ध किया जाता है कि सनातनी गाँधी अछूतों के उद्धार का आन्दोलन चलाकर आंबेडकर के मिशन को कमज़ोर कर रहे थे।
यह सच है कि अस्पृश्य हिन्दू के रूप में जन्मे आंबेडकर इस बात को लेकर मुतमईन हो चुके थे कि हिन्दू धर्म में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन गाँधी लगातार सुधार करने और उच्च जाति के हिन्दुओं के मानस में परिवर्तन लाने की कोशिश कर रहे थे। वास्तव में इस मुद्दे पर डा. आंबेडकर के बरक्स हिन्दू महासभा और हिन्दू धर्मगुरुओं के विचारों को समझने की ज़रूरत है।
डा. आंबेडकर द्वारा सामूहिक धर्मांतरण के ऐलान से हिन्दू महासभा को डर सताने लगा कि अगर अस्पृश्यों ने धर्मांतरण कर लिया तो राजनीतिक रूप से महासभा कमज़ोर हो जाएगी।
अस्पृश्यों को बाँटा
इससे भी बड़ा डर यह था कि आंबेडकर के नेतृत्व में मुसलिम, ईसाई, एंगलो इंडियन आदि अल्पसंख्यक समुदाय कहीं एकजुट न हो जाएं। इसलिए सबसे पहले हिन्दू महासभा ने अस्पृश्यों की ताक़त को विभाजित किया।
आंबेडकर को अलग-थलग करने के लिए हिन्दू महासभा ने जगजीवन राम, जे. एन. मंडल, रसिक लाल बिस्वास, धर्म प्रकाश, पी. एन. राजभोज, पावलंकर बालू और एम. सी. राजा आदि अस्पृश्य नेताओं को अपने संगठन में शामिल किया।
उपरोक्त ज़्यादातर नेता चमार जाति के हैं, जबकि बाबा साहब महार जाति से ताल्लुक रखते थे। ग़ौरतलब है कि विभाजन की यह राजनीति आज और भी ज़्यादा शातिर और मुखर है।
हिन्दू महासभा
हिन्दू महासभा ने एक दूसरा रास्ता भी अपनाया। इसके नेता बी. एस. मुंजे ने नागपुर जाकर डा. आंबेडकर से गुप्त बैठक की। ये वार्ता तीन दिन तक चली। बाबा साहब के जीवनीकार क्रिस्टोफ जैफरलो लिखते हैं,
दिलचस्प बात यह है कि मुंजे ने भी आंबेडकर की इस राय से हमदर्दी और सहमति जताई कि रूढ़िवादी हिन्दू धर्म में सुधार की कोई ठोस अपेक्षा करना निरर्थक होगा।’ (क्रिस्टोफ जैफरलो, डॉ आंबेडकर के जीवनीकार)
जैफरलो इसके आगे लिखते हैं, ‘इसकी बजाय उन्होंने ये सुझाव दिया कि करवीर पीठ के शंकराचार्य, जोकि महाराष्ट्र के एक प्रमुख धार्मिक व्यक्ति थे, की सहमति से अस्पृश्य समुदाय के लोग सिख धर्म या आर्य समाज में शामिल हो जाएं जहाँ जाति व्यवस्था पूरी तरह समाप्त की जा चुकी है।’
जाहिर है कि मुंजे सिर्फ अस्पृश्यों का राजनीतिक इस्तेमाल करना चाहते थे। अगस्त 1936 में डा. आंबेडकर ने इसलाम में धर्मांतरण को खारिज कर दिया। इसे मुंजे ने अपनी जीत के तौर पर रेखांकित किया।
अब बाबा साहब सिख धर्म के लिए गंभीर थे। लेकिन अकाली नेता मास्टर तारा सिंह के विरोध और जाटों के वर्चस्व की जानकारी होने पर 1937 के आखिरी दौर में सिख धर्म अपनाने का विचार भी आंबेडकर ने त्याग दिया।
इसके बाद वे लंबे समय तक धर्मांतरण के मुद्दे पर खामोश रहे। लेकिन बौद्ध धर्म के प्रति उनका झुकाव होता गया और अंततः 1956 में उन्होंने अपने वादे को पूरा किया।
लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असि. प्रोफ़ेसर हैं।ये उनके निजि विचार हैं।सौज- सत्यहिन्दीः लिंक नीचे दी गई है-