दुनिया के सबसे विशाल, समृद्ध और प्राचीन लोकतंत्रों की कमान थामे नरेंद्र मोदी, डोनाल्ड ट्रंप और बोरिस जॉनसन कुछ मायनों में एक जैसे हैं तो कुछ में जुदा अपने वैचारिक सपने को साकार करने के लिए नरेंद्र मोदी के पास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है जिसकी संगठनात्मक ताकत और संसाधन जुटाने की क्षमता अमेरिका या ब्रिटेन के किसी भी दक्षिणपंथी संगठन से बहुत ज्यादा है.
चार साल पहले की बात है. अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव हो रहे थे. इसी दौरान मुझे बेंगलुरू में स्ट्रोब टॉलबोट के साथ एक परिचर्चा का न्योता मिला. वे उस समय अमेरिका के प्रसिद्ध थिंकटैंक ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन के मुखिया थे. स्ट्रोब टॉलबोट राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के दौर में अमेरिका के उप विदेश मंत्री भी रहे. पाकिस्तान का पक्ष लेने की अमेरिका की जो परंपरागत नीति रही है उसमें बदलाव लाने और उसे तुलनात्मक रूप से भारत के हितों के अनुकूल बनाने में उनकी अहम भूमिका थी.
स्ट्रोब टॉलबोट के साथ परिचर्चा की मेजबानी मुझे नवंबर 2016 के तीसरे हफ्ते में करनी थी. तब तक राष्ट्रपति चुनाव खत्म हो जाना था. माना जा रहा था कि हिलेरी क्लिंटन की जीत तय है. लेकिन आखिरकार इस कद्दावर उम्मीदवार को पराजय मिली और स्ट्रोब टॉलबोट जब बेंगलुरु पहुंचे तो उनके चेहरे पर उल्लास की जगह उदासी थी. परिचर्चा से पहले हमारी जो बात हुई उसमें उन्होंने बड़ी ही कड़वाहट के साथ कहा कि आदतन झूठे एक शख्स ने अमेरिकी जनता को बेवकूफ बना दिया. मैंने भी इससे सहमति जताई कि डोनाल्ड ट्रंप ने चुनाव प्रचार अभियान के दौरान बहुत सी ऐसी बातें कहीं जो झूठ थीं. लेकिन मेरा यह भी कहना था कि जो दो शब्द भावी राष्ट्रपति ने बार-बार कहे उनमें सच्चाई है. ये शब्द थे ‘कुटिल हिलेरी’.
डोनाल्ड ट्रंप ने हिलेरी क्लिंटन को एक ऐसी शख्सियत के रूप में पेश किया था जो पहुंच वाले एक खास वर्ग से ताल्लुक रखती है और जिसका अतीत इस पहुंच के इस्तेमाल और दुरुपयोग के उदाहरणों से भरा हुआ है. चार साल बाद आज स्थिति काफी अलग है. अब डोनाल्ड ट्रंप एक ऐसे भ्रष्ट शख्स दिखते हैं जिसने अपना काम ठीक से नहीं किया. कोविड-19 महामारी को संभालने के मामले में उन्होंने जिस कुप्रबंधन का परिचय दिया उसने प्रशासन के मोर्चे पर अमेरिकी राष्ट्रपति की कमजोरी की पोल खोल दी. अपने टैक्स रिटर्न्स की जानकारी को लेकर वे जिस तरह बचते दिखे उसने उनकी ईमानदारी पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं. जिस तरह की भाषा वे इस्तेमाल करते हैं और महिलाओं के प्रति जिस तरह के द्वेष का प्रदर्शन उन्होंने किया है उसने 2016 में उनके साथ खड़े महिला वोटरों के एक बड़े हिस्से को उनसे दूर किया है. दूसरी तरफ जो बिडेन हैं जिन्होंने खुद को एक ऐसे सादे और शिष्ट व्यक्ति के रूप में पेश किया है जो नीतियों के मामले में अपने सनक भरे विचार नहीं थोपता बल्कि विशेषज्ञों की सुनता है. सिर्फ इतना भर करने से वे इस लेख के लिखे जाने तक अमेरिका का अगला राष्ट्रपति बनने की दौड़ में स्पष्ट रूप से आगे चल रहे हैं.
लोकतंत्र आपसी सहयोग से चलता है. लेकिन डोनाल्ड ट्रंप ऐसे डेमगॉग (एक ऐसा शख्स जो लोगों की भावनाएं भड़काकर सत्ता हासिल करता और उसे चलाता है) हैं जिसे प्रचार और आत्मप्रचार के सिवा कुछ और नहीं सूझता. अमेरिका के इतिहास में ऐसे करिश्माई राष्ट्रपति पहले भी हुए हैं जो खुद को इस तरह पेश करते थे मानो वे उस पद से भी ऊपर हैं जो जनता ने उन्हें सौंपा है. 20वीं सदी की बात करें तो ऐसे व्यक्तित्वों की सूची में जॉन एफ कैनेडी और थियोडोर रूजवेल्ट जैसे नाम हैं. अगर 19वीं सदी में जाएं तो एंड्र्यू जैक्सन याद आते हैं. लेकिन आत्ममुग्धता के मामले में इनमें से कोई डोनाल्ड ट्रंप के आसपास भी नहीं ठहरता.
फिर भी अगर ट्रंप उतना नुकसान नहीं कर पाए हैं जितना वे कर सकते थे तो उसकी वजह है अमेरिकी संस्थाओं की आंतरिक शक्ति और प्रतिरोध करने की क्षमता. वहां मीडिया से लेकर विश्वविद्यालय, रक्षा तंत्र और वैज्ञानिक समुदाय तक सबने एक बड़ी हद तक अपनी ईमानदारी बरकरार रखी है. अपने निजी एजेंडे को पूरा करने के लिए डोनाल्ड ट्रंप ने इन संस्थाओं को काबू करने और उन्हें अपने हिसाब से चलाने की खूब कोशिशें कीं, लेकिन इन सभी ने इसका प्रतिरोध किया और इसमें उन्हें अलग-अलग स्तर की कामयाबी मिली. अगर अगले महीने डोनाल्ड ट्रंप, जो बिडेन से हारते हैं तो अमेरिका के भीतर के घाव भरने और उसे फिर से खड़ा करके दुनिया में उसकी साख कायम करने में इन संस्थाओं की अहम भूमिका होगी.
दुनिया के सबसे समृद्ध लोकतंत्र की तरह दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र ब्रिटेन में भी एक डेमगॉग का शासन है. बोरिस जॉनसन के सत्ता तक आने का रास्ता डोनाल्ड ट्रंप से जुदा नहीं रहा. अपनी पार्टी में उन्हें नीरस राजनेता की छवि वाली थेरेसा मे का तेजतर्रार विकल्प माना जाता था. 2017 के आम चुनाव में वहां कंजर्वेटिव पार्टी की जीत में कुछ तो उसके मुखिया की बुद्धिमत्ता का योगदान था और बाकी इस तथ्य का कि प्रतिद्वंदी लेबर पार्टी की कमान संभालने वाले जेरेमी कॉर्बिन वोटरों के एक बड़े वर्ग को ऐसे जिद्दी और रूखे समाजवादी लग रहे थे जो देश की कमान थामने के लिहाज से फिट नहीं थे.
डोनाल्ड ट्रंप जहां नस्लवादी और तानाशाही प्रवृत्तियों वाले शख्स हैं तो बोरिस जॉनसन को एक महत्वाकांक्षी अवसरवादी कहा जा सकता है. डोनाल्ड ट्रंप की कमजोरियों पर से पर्दा उनके कार्यकाल के आखिरी साल में उठा जबकि बोरिस जॉनसन से लोग कहीं जल्दी चिढ़ने लगे हैं. कोविड-19 और ब्रेक्जिट पर उन्होंने जो रुख दिखाया उसने उनकी भविष्य के फासीवादी से ज्यादा एक अनाड़ी मसखरे जैसी छवि बनाई है. इस बीच लेबर पार्टी ने भी कॉर्बिन को किनारे कर कमान उनसे ज्यादा प्रतिभा और प्रशासनिक क्षमताएं रखने वाले कीयर स्टार्मर को दे दी है और इससे भी बोरिस जॉनसन कमजोर पड़ते दिखे हैं. ब्रिटेन में कई लोग स्टार्मर पर इतना यकीन जताते दिख रहे हैं जितना उन्होंने कॉर्बिन पर कभी नहीं जताया था और ऐसे लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है. बोरिस जॉनसन की अपनी कंजर्वेटिव पार्टी में ही कई मानते हैं कि मौजूदा वित्त मंत्री ऋषि सुनक प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी संभालने के लिए ज्यादा ठीक हैं.
ब्रिटेन में अगले आम चुनाव को अभी साढ़े तीन साल बचे हैं. हो सकता है कि बोरिस जॉनसन की पार्टी इससे पहले ही उनका समय पूरा कर दे. लेकिन डोनाल्ड ट्रंप की तरह जब भी वे जाएंगे तो उन्होंने जो नुकसान किया है उसकी भरपाई हो ही जाएगी. ऐसा उन संस्थाओं के कारण होगा जिन्हें ब्रिटेन के मुखिया ने चोट तो पहुंचाई है पर वे पूरी तरह बर्बाद नहीं हुई हैं, मसलन संसद, न्यायपालिका और मीडिया. बल्कि कहा जाए तो बोरिस जॉनसन की तमाम खामियों के बावजूद इतिहास में डेविड कैमरन का नाम उनसे बड़े खलनायक की तरह दर्ज होगा जिन्होंने तब ब्रेक्जिट पर मतदान का फैसला करके ब्रिटेन के जहाज को भंवर में फंसा दिया जब इसकी कोई जरूरत नहीं थी.
तो एक डेमगॉग वह है जो 2016 से दुनिया के सबसे समृद्ध लोकतंत्र को चोट पहुंचाने की कोशिशों में लगा है. दूसरा डेमेगॉग वह है जिसका 2017 से दुनिया के सबसे प्राचीन लोकतंत्र में कुशासन है. आखिर में और अवश्यंभावी रूप से अब हम आबादी के लिहाज से दुनिया के सबसे बड़े यानी अपने लोकतंत्र पर आते हैं. इसकी कमान थामने वाले नरेंद्र मोदी, डोनाल्ड ट्रंप से करीब ढाई और बोरिस जॉनसन से पांच साल पहले सत्ता में आए थे. उनका व्यक्तित्व भी किसी डेमगॉग की तरह ही है – यानी एक ऐसा राजनेता जिसे लगता है कि वह अपनी पार्टी और सरकार से ऊपर है और जो अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए छल-बल और झूठ के इस्तेमाल से नहीं हिचकता नहीं दिखता.
कुछ मायनों में नरेंद्र मोदी, डोनाल्ड ट्रंप और बोरिस जॉनसन के समान हैं, लेकिन कई ऐसी चीजें भी हैं जिनमें वे अलग हैं. उदाहरण के तौर पर वे, इन दोनों की तुलना में, बहुत ज्यादा समय से राजनीति में हैं. ऐसे में अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सार्वजनिक संस्थाओं का इस्तेमाल करने का उनका अनुभव कहीं ज्यादा है. ट्रंप और जॉनसन की तुलना में वे अपनी विचारधारा को लेकर कहीं अधिक प्रतिबद्ध हैं. वे हिंदू बहुसंख्यकवाद में उससे ज्यादा यकीन रखते हैं जितना ट्रंप श्वेत लोगों की श्रेष्ठता (नस्लभेद) या जॉनसन अपनी लिटिल इंग्लैंड वाली ‘दूसरों’ से घृणा करने की नीति में रखते हैं. तीसरा, अपने वैचारिक सपने को साकार करने के लिए नरेंद्र मोदी के पास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है जिसकी संगठनात्मक ताकत और संसाधन जुटाने की क्षमता अमेरिका या ब्रिटेन के किसी भी दक्षिणपंथी संगठन से बहुत ज्यादा है.
एक अंतिम कारण और है जिसके चलते मोदी, ट्रंप और जॉनसन की तुलना में अपने देश के हितों के लिए अधिक खतरनाक हैं. इन दोनों के देशों के मुकाबले भारतीय लोकतंत्र की संस्थाएं बेहद कमजोर हैं. ट्रंप एफबीआई को अपने हिसाब से नहीं चला सकते जबकि मोदी हमारी टैक्स और जांच संस्थाओं के मामले में ऐसा कर सकते हैं. हमारी न्यायपालिका भी आज उतनी सक्षम नहीं दिखती और हमारे मीडिया का एक बड़ा हिस्सा निश्चित रूप से अपनी रीढ़ खो चुका है. वे प्रधानमंत्री पर नजर रखने, उन्हें उनकी कमियों और ज्यादतियों के लिए जिम्मेदार ठहराने के मामले में अनिच्छुक या असमर्थ दिखते हैं.
अपनी सत्ता को बनाये रखने के मामले में नरेंद्र मोदी, डोनाल्ड ट्रंप या बोरिस जॉनसन से कहीं ज्यादा भाग्यशाली हैं. उनका भाग्य उनके विपक्ष की अकर्मण्यता से भी जुड़ा हुआ है. ट्रंप के लिए हिलेरी क्लिंटन की तुलना में जो बिडेन को हराना बेहद मुश्किल है. जेरेमी कॉर्बिन की तुलना में कीयर स्टार्मर, बोरिस जॉनसन के ज्यादा कड़े प्रतिद्वंद्वी हैं. दूसरी ओर राहुल गांधी 2014 और 2019 के आम चुनावों में अपमानजनक पराजय झेल चुके हैं. पिछले आम चुनाव में वे अपनी परंपरागत सीट – अमेठी – भी हार चुके हैं. और उन पर भाई-भतीजावाद और अनुभवहीनता का आरोप लगाने वालों की भी कमी नहीं हैं. इसके बावजूद कांग्रेस पार्टी द्वारा अब भी राहुल गांधी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में पेश किया जा रहा है.
सभी डेमगॉग लोकतंत्र के लिए खराब हैं, लेकिन इनमें से कुछ दूसरों की तुलना में ज्यादा खराब होते हैं. अगर डोनाल्ड ट्रंप अगले महीने हार जाते हैं, तो अमेरिका उनके द्वारा की गई क्षति से जल्द ही उबर सकता है. बोरिस जॉनसन के प्रधानमंत्री बनने से पहले ही ग्रेट ब्रिटेन अपने आप में सिकुड़ रहा था और वहां के इतिहास पर उनका प्रभाव न के बराबर ही होगा. लेकिन नरेंद्र मोदी जिस विनाश को जन्म दे सकते हैं, या जन्म दे चुके हैं, उससे उबरने में कई दशक लग जाएंगे.
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रामचंद्र गुहा जैसे इतिहासकारो ने भारत की छवि को जिस ढंग से प्रस्तुत किया है उसकी असलियत सामने आने लगी है। आब बौखलाहट में राजनीति करने लगा है। सत्य छिपा नहीं है जो अब सामने आ रहा है।