जाना और ’लौटना’ सामान्य क्रियाएं नहीं हैं. ये जिस भाव भूमि और विचार भूमि से उत्पन्न होती हैं, उन्हें समझे बगैर इनके अर्थ-मर्म की पहचान कुछ कठिन है. ‘जाना’ क्रिया में जहां आशा, उत्साह और उम्मीद है, वहीं ‘लौटना’ में थकान, हताशा और निराशा है. अज्ञेय ने लिखा है, ’घर’ लौटने के लिए होता है. थकान के बाद हम सब अपने घरों की ओर लौटते हैं.
लॉकडाउन के बाद हजारों-लाखों लोगों का घर लौटना, सौ-दो सौ किलोमीटर से अठारह सौ किलोमीटर तक पैदल जाना इक्कीसवीं सदी के भारत का दिल दहला देनेवाला दृश्य है. स्त्रियां अपनी गोद और कंधे पर बच्चों को लिये, मर्द-स्त्री सब अपने-अपने सिर पर झोले ढोते हुए लौट रहे थे अपने उन गांव-घरों की ओर, जहां से वे रोजगार के लिए नगरों-महानगरों में आये थे. वे कामगार थे, दैनिक मजदूर थे, रोज कमा कर रोज खानेवाले थे. गांवों से नगरों, महानगरों और देश की राजधानी दिल्ली में वे जिन उम्मीदों से आये थे, वे लॉकडाउन के बाद लगभग ध्वस्त हो गयीं. वे पदयात्री नहीं थे.
उम्मीद और भरोसे के टूटने के बाद ही वे गांव-घर लौटे. दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, अहमदाबाद जैसे महानगरों में न उनका कोई स्थायी ठिकाना था, न रोजगार. वे प्रवासी थे और लौट रहे थे. उनके लिए न कोई ‘स्टेट’ था, न सरकार. अपने जीवन में उन्होंने रंग-बिरंगी, सतरंगी सरकारें देखी थीं. सरकारें बाद में सक्रिय हुईं.
लॉकडाउन से पहले मुश्किल से चार घंटे का समय मिला सबको. उनके लिए सबसे बड़ी समस्या पेट की थी, भूख की थी. वे हताश, निराश और घबराये हुए भारतीय नागरिक थे.
लॉकडाउन से लगभग 38 करोड़ लोग प्रभावित हैं, जो जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. देश के गोदाम अन्न से ठंसे पड़े हैं, पर वितरण प्रणाली ठीक नहीं है. पहले दिन हर गली-मोहल्ले में यह घोषणा की जा सकती थी कि घबराने की कोई बात नहीं है. सरकार की नींद देर से टूटी और लोग पैदल चलते गये. रास्ते में ही कई मर गये. बाद में कई गांवों ने भी उनके प्रवेश पर रोक लगा दी. कहीं वे अपने साथ कोरोना तो नहीं ला रहे. कोरोना बीमारी ही नहीं, भय भी है.
‘तीसरी कसम’ का हिरामन याद आता है. हीराबाई को लेकर वह फारबिसगंज के जिस मेले में गया था, वह ‘फारबिसगंज, तो हिरामन का घर-दुआर’ था. गांव नहीं. सामान लादकर वह यहां आता-जाता रहा था. वह जहां रहता है, उसे अपना ‘मुलक’ कहता है-‘हमलोगों के मुलक की जनाना नहीं है.’ पचास के दशक में एक ही मुल्क के कई ‘मुलक’ थे. भारत के गांव अब भी पूरी तरह नष्ट नहीं हुए हैं. वहां अब भी थोड़ा-बहुत ही सही, अपनापा है, सामाजिकता है. घर लौटना एक छांह में जाना है.
नेहरू ने अपनी ‘आत्मकथा’ में लिखा था कि शहरों ने गांव से कुछ भी अच्छा ग्रहण नहीं किया और गांव ने शहरों का सब-कुछ बुरा पा लिया. वहां एक-दूसरे की फिक्र में कमी आयी है, पर अभी एक-दूसरे के प्रति थोड़ी चिंता शेष है. पहले यह चिंता अधिक थी. ‘तीसरी कसम’ में अन्य गाड़ीवानों के रहते हिरामन होटल में कैसे खाता? ‘चार आदमी के भात में दो आदमी खुशी से खा सकते हैं-बासा पर भात चढ़ा हुआ है…
हम लोग एकहि गांव के हैं, गांव गरामिन के रहते होटल और हलवाई के यहां खायेगा हिरामन?’ कहानी में ही नहीं, उस समय हकीकत में भी एक-दूसरे की चिंता होती थी. हीराबाई का पलटदास कोई नहीं है. पलटदास को हीराबाई की चिंता है. ‘हिरामन भाई जनाना जात अकेली रहेगी गाड़ी पर? कुछ भी हो, जनाना आखिर जनाना ही है.’ वहां ‘कंपनी की औरत’ को भी देखने की एक नैतिक सामाजिक दृष्टि है. हीराबाई के चले जाने पर हिरामन को मेला ‘खोखला’ लगा था. वह गांव लौटता है.
जिन स्थलों को हम जीवन में छोड़ चुके होते हैं, वहां विपत्ति के क्षणों में लौटना, सामान्य लौटना नहीं है. कामगार गांव-घरों की ओर जिस हताशा में लौटे, उस हताशा को सरकारें नहीं समझ सकतीं. वे नगरों-महानगरों के लिए बहिरागत हैं.
मात्र 21 दिनों के लिए भी हमने उनके जीवन के बारे में नहीं सोचा या कम सोचा. दिल्ली सबकी न है, न होगी. गांव-घरों की ओर लौटनेवाले निरुपाय और बेबस हैं. उनका विश्वास टूट चुका है. भरोसा उठ चुका है. वे ‘नागरिक’ कम ’मतदाता’ अधिक हैं. दिल्ली उनकी नहीं है. और देश? स्वाधीन भारत में आज भी भूख बड़ी समस्या है.
संभव है, वे मजदूर वहां भी भूख से मरें, पर लौटने में एक उम्मीद है. शहरों में अगर इनके ठिकाने होते, रहने और खाने-पीने की सुविधा होती, तो क्यों लौटते? कोरोना एक संक्रामक बीमारी है, पर उससे भी बड़ी बीमारी भूख है. भारत में सैकड़ों जिले हैं, लाखों गांव हैं. शहरों के गली-मुहल्लों में, गांवों में, पंचायतों तक में यह घोषणा करायी जा सकती थी कि कोई घबराये नहीं, सबके खाने-पीने की व्यवस्था होगी. जिलाधिकारी को आदेश दिया जा सकता था. हम सब अपने इन भाइयों- बहनों को रोक सकते थे. सर्वोच्च न्यायालय ने कामगारों के पलायन को ‘कोरोना से कहीं ज्यादा बड़ी समस्या’ माना है. गांव-घर लौटने में दर्द है. जब तक हममें यह दर्द नहीं होगा, हम गांव-घर लौटने का अर्थ नहीं समझेंगे.
रविभूषण, वरिष्ठ साहित्यकार ravibhushan1408@gmail.com