फ़िल्मकार सईद मिर्ज़ाः इंसानियत की तलाश में एक शख्सियत का नाम है

गोपाल नायडू

इंटरनॅशनल कल्चरल आर्टिफॅक्ट फिल्म फेस्टिव्हल  (ICA ) का आयोजजन पुणेमहाराष्ट्र में  प्रति वर्ष होता है। इस साल यह फेस्टीवल 17 से 31 जनवरी के बीच आयोजित किया जा रहा है।  इस साल इंटरनॅशनल कल्चरल आर्टिफॅक्ट फिल्म फेस्टिव्हल में लेखक-निर्देशक सईद मिर्जा को जीवनगौरव पुरस्कार से  सन्मानित किया जाएगा. इस मौके पर सईद मिर्जा के व्यक्तित्व और कृतित्व पर  गोपाल नायडू का आलेख  – संपादक

            टिपिकल  बॉलीवुड सिने-जगत में लोकप्रिय सांस्कृतिक विमर्श का अंग बन चुकी हैं वे फिल्में जिनका बजट 100 करोड़ से ऊपर होता है और जो‘ब्लॉक बस्टर्स’ मानी जाती है। मारधाड़, विस्फोट और ‘स्पेशल इफेक्ट’ को और प्रभावी बनाने में लगातार निवेश होता रहता है। पूंजी और तकनीक की ताकत पर बॉलीवुड निर्णायक गढ़ बना हुआ है। इस गढ़ में सेंध लगाने वाले फ़िल्मकारों में एक सईद मिर्ज़ा का  नाम बड़े अदब से लिया जाता है।

            सईद मिर्ज़ा के फिल्मों की सार्वभौमिकता का अवलोकन इस बात से किया जा सकता है। मसलन, सिनेमा प्रथमत: केवल अभिव्यक्ति ही नहीं वह देश के लोगों की गरीबी, राष्ट्रीय उत्पीड़न और संस्कृति का ताल-मेल  होता है। उसकी तरजीहों की अभिव्यक्ति, उसकी रूढ़ियों और पैटर्नों की अभिव्यक्ति है।  समाज के हर दौर में नए मूल्य, नए ‘टैबू’ और नए ‘पैटर्न’ बनते रहते हैं। बिगड़ते भी रहते हैं। कुल मिलाकर जन संस्कृति इन सब आकलनों पर आधारित होती है। समाज के हर स्तर पर अंदर और बाहर से होने वाले विस्तारों की अभिव्यक्ति होती है। केवल यही शर्त नहीं है। बल्कि सतत इसके नवीकरण और गहनीकरण की शर्त है। यही सिनेमा के लिए संघर्ष की गति और लय प्रदान करती  है। यही वह रास्ता है जो सृजन के जरिए एक नया दृष्टिकोण पैदा करता है।इस क्रम में सईद मिर्ज़ा की फिल्में,वृतचित्र और लेखन एक मील का स्तम्भ है। 

            सईद मिर्ज़ा  लेखक, फिल्म पटकथाकार और निर्देशक हैं। न भुलाई जाने वाली  फिल्मों का जब भी जिक्र किया जाता है तो समांतर फिल्म के एक बड़े हस्ताक्षर के रूप में उनका नाम उभरकर आता   है। उनकी फिल्म ‘मोहन जोशी हाजिर हो’ (1984) में प्रदर्शित हुई। इस फिल्म को राष्ट्रीय सम्मान से नवाजा गया। इस फिल्म में जोशी दंपति के संघर्ष के जरिए भ्रष्ट वकील, जज  और लँडओनर की साँठगांठ को उकेरा है।  यह  फिल्म समाज में बदलते परिवेश याने  आर्थिक पहलुओं पर रौशनी डालती  है। यह उनके सामाजिक आर्थिक पहलू के प्रतिजागरूकता को उजागार करता है।’

            उनकी प्रत्येक फिल्में सामाजिक राजनीतिक  जर्जर ढांचे की दास्तान है। उन्हे 1979 में फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवार्ड उनकी फिल्म ‘अरविंद देसाई की अजीब दास्तान’ के लिए दिया गया।उनकी ‘अल्बर्ट पिंटो  को गुस्सा क्यूँ आता है’ (1980)’,‘सलीम  लँगड़े पे मत रोओ’ (1989),‘नसीम’(1995)फिल्म को भी  राष्ट्रीय अवार्ड दिया गया। फिल्म निर्माण में उनकी जो पकड़ है ठीक उसी तरह टी॰वी॰  सिरियल में भी थी। उनके द्वारा बनाई गई ‘नुक्कड़’ (1986) सिरियल आज भी जेहन में बसी हुई है। वह बेमिसाल सिरियल थी। उनके सामाजिक सांस्कृतिक एक्टिविसिज्मकी बानगी उनके  वृतचित्रों में देखने को मिल जाती है। उनके वृतचित्रों का लेखा-झोखा बहुत है। एक ओर ‘जबलपुर के रिक्शा वाले’ पर निर्मित बेमिसाल वृतचित्र है तो वहीं ‘अजंता और एलोरा’ पर कलात्मक वृत चित्र है। यह उनके विस्तृत और गहरे दृष्टिकोण को प्रतिबिम्बित करता है।         

            जब भी जिक्र ‘नया दौर’ और ‘वक्त’ फिल्म का होता है तो  इसके स्क्रिप्ट रायटर अख्तर मिर्ज़ा की याद हो आती है। यह सईद मिर्ज़ा के पिताजी  है। कलम के ताकत की धार सईद मिर्ज़ा में यहीं से आई है, ऐसा मानने में हर्ज क्या है। 30 जून 1943  का वह दिन जब सईद मिर्ज़ा ने इस धरती पर पहली बार आँखें खोली। क्या मालूम था कि इस दिन जन्मा  यह  बालक सिने-जगत में बेहद आत्मीय ढंग से एक लंबी रेखा खींच देगा। बेहतरीन फिल्मों की  यह रेखा हम लोगों  के लिए प्रेरक-तत्व  के तौर पर है। यहाँ यह मान लेना कि यह पूर्ण विराम है, गलत होगा। चूंकि नई पीढ़ी के लिए सईद मिर्ज़ा ने एक विरासत की इमारत खड़े कर दी है।  बस जरूरत है तो इन जैसे फ़िल्मकारों को आत्मसात कर पहलकदमी करने की।    

                        सईद  मिर्ज़ा ने देश में  हजारों किलोमीटर यात्रा की। यह यात्रा  देश में इंसानियत के जज्बे को जानने के लिए की थी। इस क्रम में वे गुजरात के अहमदाबाद में थे। यह वह समय था जब गुजरात विशेषकर अहमदाबाद धार्मिक दंगे की आग में धधक रहा था। उन अनुभव से गुजरते हुए  मिर्ज़ा अपनी किताब ‘Memory in the Age of Amnesiaमें लिखते हैं कि,‘95% लोग अमन चाहते हैं। वहाँ के लोगों को खामोश करा दिया गया। उनकी जुबान पर ताला जड़ दिया गया।’ उन्होने सूफी संत बुले शाल को याद करते हुए कहा,‘शांति ही मेरा संदेश है। गुजरात के माहौल पर गुस्सा आता है।’ मिर्जा ने गुजरात को लेकर तीखे शब्दों में  बॉलीवुड के सितारों की चुप्पी पर  खेद व्यक्त किया। और कहा,‘गुजरात पर मेरा वृतचित्र इस नफरत भरी भाषा व मानवीयता  पर हो रहे हमले  के खिलाफ सोचने पर बाध्य करेगा।’

            सईद मिर्ज़ा अहमदाबाद के दो दिन के मुकाम के दौरान  बेहद दु:खी और भावुक थे। यह दु;ख और भावुकता के चलते उन्होने  बहुलवाद और आपसी भाई-चारे की संस्कृति पर कहा,‘बकर शाह की  दरगाह की  सुरक्षा और देख-रेख हिन्दू परिवार कर रहा है। यहाँ सिर्फ नफरत नहीं प्यार भी है।’ यह कहकर मिर्ज़ा ने  देश को एक बड़ा संदेश दिया कि तय करो –‘नफरत और प्यार, शांति और अशांति, अमानवीय और मानवीय मूल्यों में से किसके पक्ष में खड़े होना चाहते हो।’ ये विचार उनके दिल की आवाज थी। इसीलिए इस तरह की अभिव्यक्ति  उनकी फितरत को दर्शाती है। 

            जब विएतनाम का युद्ध  हुआ उस समय पूरी दुनिया लिब्रल मूवमेंट के दौर से गुजर रही थी। वे कहते,‘यह मेरे लिए प्रश्न था। लेकिन आज हम प्रश्न करना ही भूल गए। प्रत्येक दिन लोकतांत्रिक अधिकार और आज़ादी पर  संकट छाया हुआ है। मैं 75 साल  का हो गया हूँ लेकिन मुझे 25 साल  के युवकों की चिंता है।’ उनके कहने का तात्पर्य है कि अगर प्रश्न नहीं करोगे तो ‘सही’ और ‘गलत’की पहचान कैसी होगी। यह नई पीढ़ी के लिए एक तरह से चेतावनी और निर्देश भी है। यह उनकी पुस्तक के अंश है।

            इसी पुस्तक के कुछ अंश इस तरह है कि,‘कैफी आज़मी मेरे दोस्त थे। मैं नसीम फिल्म  के दादा के रोल के लिए एक चेहरे की तलाश में था जो बेड रिडेन है। एक दिन मैंने कैफी साहब से कहा,क्या आप मेरी फिल्म में एक्टिंग करेंगे।वे बोले क्या कहा तुमने, काम करेंगे ? और बस उन्होने शौकत (कैफी  की पत्नी) को बुलाया और मुझसे कहा, फिर से पूछ… । मैंने उन्हे फिर से वही पूछा। तब कैफी ने शौकत  से कहा,‘यह मुझे रोल दे रहा है। मैं जीवित हूँ। हाँ, मैं करूंगा। लेकिन मुझमें वह रौनक कहाँ है जो श्रीलाल शुक्ल  या फिर गालिब या टैगोर  में है?’ इस पर मिर्ज़ा ने टिप्पणी की  ‘फिलवक्त ऐसी  गरिमा  देश से गायब है।’         

            उनके द्वारा लिखी गई यह किताब इतिहास का महत्वपूर्ण पन्ना है। जब कोई किताब इतिहास के पन्ने के रूप में दर्ज होती है,तो इसका मतलब है उसके लेखक का अनुभव जगत और विचारों का आपसी संयोजन है। इसीलिए लगता है कि बस पन्ने पलटते जाओ  और एक-एककर इतिहास के बहुमूल्य क्षण आपके आँखों के सामने खुलते जाएंगे और एक दास्तान कह देंगे। चाहे वो फिर गुजरात का दंगा हो या सिखों का कत्लेआम या बाबरी मस्जिद का तोड़ने का हो। और अधिक जानने के लिए  पुस्तक से गुजरना ही बेहतर विकल्प है।

   अगर हम उनकी पुस्तक की भाषा और फिल्म दोनों से गुजरे तो भारतीय परिवेश के पहलुओं और विभेद को भली-भांति समझ सकेंगे।  हम अपने आपको ऐसे परिवेश में पाएंगे जहां सामूहिक भलाई के लिए बदलाव लाने की एक नई भाषा से रु-ब-रु हो रहे हैं। सईद मिर्ज़ा को पुणे स्थित इंटरनॅशनल कल्चरल आर्टिफॅक्ट फिल्म फेस्टिव्हल में जीवनगौरव पुरस्कार से 17 जनवरी 2020 को सन्मानित किया जा रहा है. फिलवक्त  सईद मिर्ज़ा को सलाम।

गोपाल नायडू शिल्पकार, चित्रकार, लेखक और अनुवादक है. वे नागपूर में रहतेहै

संपर्क – gopalnaidu.art@gmail.com मोबा. 9422762421

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