पिछली बार मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा का प्रचार किया गया और फिर उनपर भीड़ की हिंसा को स्वतःस्फूर्त क्षोभ की अभिव्यक्ति कहा गया। इस बार सिखों के ख़िलाफ़ घृणा का प्रचार किया जा रहा है।
भारत गृह युद्ध की तरफ ढकेला जा रहा है। यह शासकों की तरफ से किया जा रहा है। या शायद गृह युद्ध सटीक शब्द नहीं है। हो यह रहा है कि सरकार और शासक दल जनता के उन हिस्सों के ख़िलाफ़ हिंसा भड़का रहे हैं, जो उसके उन क़ानूनों का विरोध कर रहे हैं जो उन्हें हानिकर लगते हैं।
दिल्ली की सरहदों पर किसान पिछले दो महीने से भी अधिक वक़्त से कड़ाके की ठंड में किसानी से जुड़े क़ानूनों को वापस लेने की माँग के साथ शांतिपूर्ण धरने पर बैठे हैं। उनपर 28 जनवरी को गुंडों की भीड़ भेजकर हमला करवाया गया।
सिंघु, टिकरी और उसके पहले ग़ाज़ीपुर में हाथ में तिरंगा लिए हुए गुंडे धरना स्थलों पर पथराव करने लगे। सबने देखा कि किस तरह पुलिस और सुरक्षा बल के जवान शांत, हाथ बाँधे उनके पीछे खड़े थे।
पुलिस क्रूरता
यह भीड़ धरना स्थल पर इस पुलिस बदोबस्त के बावजूद घुसकर तोड़फोड़ करती है, पुलिस कोई हस्तक्षेप नहीं करती। बल्कि जब दूसरी तरफ से आत्मरक्षा में विरोध होता है तो पुलिस उन्हें काबू करने पहुँच जाती है और उनपर बुरी तरह हमला करती है।
उस तसवीर को देखिए जिसमें पुलिस एक आंदोलनकारी का चेहरा बूट से कुचल रही है। क्या हमारे मन में इसे देखकर कुछ भी टूटता है?
पुलिस को यकीन है कि उसे इसके लिए शाबाशी मिलेगी। आखिर उसके कानों में वह नारा तो गूँज ही रहा है और वह साल भर बाद फिर लौटा है, “दिल्ली पुलिस लट्ठ चलाओ, हम तुम्हारे साथ हैं।”
क्या गुंडागर्दी में हम भी शामिल हैं?
जैसा कुमार प्रशांत ने कहा, 26 जनवरी की तसवीरों की जगह ये तसवीरें कहीं शर्मनाक थीं। अगर इनसे हम विचलित नहीं होते तो मान लेना चाहिए कि हम भी गुंडों की इस भीड़ में शामिल हैं। ऐसे गुंडे जी नहीं सकते अगर गुंडागर्दी का समर्थन उनकी तरफ से न हो जो सड़क पर इनकी तरह गाली गलौज करते हुए, तिरंगे लिए हुए लाठी और पत्थर नहीं चला रहे हैं। हमारे मन में, गाँधी के 1947 के शब्दों में, एक सूक्ष्म गुंडागर्दी छिपी हुई है।
इस सूक्ष्म गुंडागर्दी को यह सरकार सक्रिय कर रही है। और पुलिस इसे “स्थानीय लोगों का क्षोभ” बताकर जायज़ ठहराने की कोशिश कर रही है। हिंसक भीड़ को धरना स्थल तक जाने देने के बारे में पूछने पर पुलिस ने भोलेपन से जवाब दिया कि वह ‘स्थानीय जनता’ तो किसानों से वार्ता करने वहाँ गई थी। वह तो जब भिड़ंत हो गई तो हमने दखल दिया।
गुंडागर्दी को जायज ठहराने की कोशिश
उसके बाद एक विस्तृत बयान में उसने भीड़ के इस हमले को जायज़ ठहराने एक लिए तर्क दिया। उसने इन्हें हिंसक, उपद्रवी नहीं कहा। लिखा कि ये स्थानीय लोग थे और इनका कहना था कि अबतक हम किसानों का समर्थन कर रहे थे। लेकिन 26 जनवरी को तिरंगे के अपमान और हिंसा के बाद हम और इनका समर्थन नहीं कर सकते। इनके बैठे रहने से हमारे कारोबार पर असर पड़ रहा है।
पुलिस की व्याख्या यह है कि ये बेचारे स्थानीय अपनी बात कहने गए थे, लेकिन जब किसान उग्र हो गए तो हमें दखल देना पड़ा। पुलिस ने हिंसा के लिए किसानों को ही ज़िम्मेवार ठहराया है। ’हिन्दुस्तान टाइम्स’ की रिपोर्ट के मुताबिक़, आन्दोलनकारियों का आरोप है कि उन्हीं को जिनपर हिंसा हुई, गिरफ़्तार किया गया है।
क्या कहना है पुलिस का?
हमने पुलिस का यही तर्क पिछले साल सुना था जब सीएए का विरोध करनेवाले आंदोलनकारियों के ऊपर दिल्ली में भीड़ ने हमला किया और वह बाद में एक बड़ी हिंसा में बदल गया। पुलिस का तर्क यह था कि स्थानीय लोग धरनों से तंग आ गए थे और अपने क्षोभ की अभिव्यक्ति कर रहे थे।
यह पूछने पर कि अगर धरने से लोगों को असुविधा हो रही थी तो पुलिस ने क्यों नहीं जगह खाली करवाई, पुलिस का जवाब था कि हमने संयम से काम लिया लेकिन जो बेचारे इनसे परेशान थे वे खुद पर काबू नहीं कर पाए। तो पुलिस ‘स्थानीयों’ के क्रोध के आगे क्या कर सकती थी?
भारतीय जनता पार्टी के जिस नेता ने खुलेआम, वह भी पुलिस अधिकारी के सामने हिंसा की धमकी दी, उनके बारे में कहा गया कि वे तो सड़क खाली करने की अपील कर रहे थे, वे तो वार्ता करने आए थे। ठीक यही बात आज सिंघु और टिकरी पर हमला करनेवालों के बारे में कही जा रही है।
और योगेंद्र यादव के घर के बाहर क्यों हिंसक भीड़ “गद्दारों को गोली मारो” का नारा लगाते हुए इकठ्ठा हुई? उनकी सड़क तो योगेंद्र नहीं रोक रहे थे? क्या पुलिस ने इस हिंसक भीड़ के ख़िलाफ़ कोई एफ़आईआर दर्ज की?
घृणा का ख़तरनाक प्रचार?
क्या “गोली मारो गद्दारों को” राष्ट्रवादी नारा है, कविता है? क्या इसमें हिंसा का इरादा नहीं है? योगेंद्र को सीधे सीधे मारने की धमकी क्या अपराध नहीं है? क्या वह बात बस यों ही मजाक में कही गई है?
पिछली बार मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा का प्रचार किया गया और फिर उनपर भीड़ की हिंसा को स्वतःस्फूर्त क्षोभ की अभिव्यक्ति कहा गया। इस बार सिखों के ख़िलाफ़ घृणा का प्रचार किया जा रहा है। आन्दोलन के आरम्भ से बीजेपी ने प्रचार शुरू कर दिया था कि यह आन्दोलन किसानों का नहीं, खालिस्तानियों का है, उग्रवादियों का है, इसमें आतंकवादी हैं। सरकार के मंत्री और उसका समर्थक मीडिया जनता के बीच यही प्रचार करते आ रहे हैं।
यह ख़तरनाक प्रचार है। सोशल मीडिया पर 1984 की याद दिलाई जा रही है। यह उस दिल्ली में किया जा रहा है जहाँ सामान्य जनता ने तीन हज़ार से ज़्यादा सिखों का क़त्ल किया था। आज फिर सिख विरोधी घृणा उकसाई जा रही है।
ऑपरेशन ब्लू स्टार
नोट किया गया है कि सोशल मीडिया पर कई दक्षिणपंथी लोग ‘गोली मारो’ और “इंदिरा गाँधी की याद आ रही है” जैसे ट्वीट कर रहे हैं। एक ऐसे ही साईट पर पूछा गया कि क्या कांग्रेस विरोधी होने के बावजूद आपको इंदिरा गाँधी की याद आ रही है? छह हज़ार लोगों में 81.9 प्रतिशत ने हाँ कहा। इस प्रश्न में ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ का प्रसंग बिना कहे याद दिलाया जा रहा है। यानी जैसे स्वर्ण मंदिर पर कार्रवाई की गई थी वैसा ही कुछ करने का वक़्त आ गया है!
बहुसंख्यकवादी हिंसा
बहुसंख्यक हिंदुओं को कभी मुसलमानों के ख़िलाफ़, कभी सिखों के ख़िलाफ़ भड़काकर एक स्थायी बहुसंख्यकवादी हिंसा संगठित की जा रही है। अभी लाल किले पर निशान साहब के झंडे को लगा देने को खालिस्तानी साजिश, लाल किले पर कब्जा, आदि बताकर यह घृणा उकसाई जा रही है।
उसी दिल्ली में यह किया जा रहा है जिसमें सिखों के क़त्लेआम के 37 साल गुजर जाने के बाद भी क़ातिल इत्मीनान की ज़िंदगी गुजार रहे हैं। वे हमारे आपके पड़ोसी, हमपेशा, रिश्तेदार, मित्र, परिचित भी हो सकते हैं।
जिस मुल्क में इतने बड़े क़त्लेआम के मुज़रिमों को खोजने में और उन्हें सजा दिलाने में पुलिस और सत्ता इतनी उदासीन हो, बल्कि उसमें बाधा पैदा करे, और राजनीतिक दल भी इसे मसला न मानें, उस मुल्क में जनसंहार का विचार अस्वीकार्य नहीं है। और इसलिए उसका दुहराव भी हो सकता है।
कौन रोकेगा इसे?
1984 के मुक़ाबले आज जनसंहार के लिए तैयारी कहीं ज़्यादा है। गाँवों, कस्बों, शहरों में हिंसक गिरोह संगठित कर लिए गए हैं। उन्हें निरंतर हिंसा का अभ्यास कराया जाता रहा है। वे सोशल मीडिया पर अनुयायियों की फ़ौज भी इकट्ठा कर लेते हैं। सोशल मीडिया पर लोग इस हिंसा का आनंद ले रहे हैं। चूँकि सत्ताधारी दल के नेता और समर्थक मुसलमानों और सिखों के ख़िलाफ़ अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष घृणा और हिंसा का प्रचार करते रहते हैं, इसके लिए जनता और भी तैयार बैठी रहती है।
दिल्ली में अभी यह घृणा प्रचार चल रहा है। हिंसा समानान्तर रूप से की जा रही है। क्या सभ्य समाज इस हिंसा के जनसंहार में बदलने तक इंतजार करेगा या इसे बीच में रोकने के लिए कुछ करेगा?
अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं। ये उनके निजी विचार हैं। सौज- सत्यहिन्दीः लिंक नीचे दी गई है –