जयशंकर प्रसाद साहित्य जगत के बुद्ध थे

कविता

बनारस ज्ञान, भोग और भक्ति का संगम है तो यहां जन्मे जयशंकर प्रसाद ज्ञान, अध्यात्म और देशभक्ति का संगम थे

कुछ एक शहरों के लिए कहा जा सकता है कि वे एक जगह थमे हैं तो उतने प्रवाहमान भी हैं. बनारस इन्हीं में से एक है. अपनी सांस्कृतिक पहचान, जिसमें उसका भदेसपन शामिल है, के साथ यह आज भी थमा सा लगता है. लेकिन इन तत्वों को जीवंत बनाते हुए वह प्रवाहमान भी है. थमे होने के बीच का यह प्रवाह ही सुरताल और कविता का रास्ता बनाता है. हो सकता है जयशंकर प्रसाद की अदृश्य प्रेरणा यही हो, न हो तो भी पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि बनारस में जन्मे और पूरा जीवन यहीं बिता देने वाले प्रसाद आत्मा से कवि थे.

जयशंकर प्रसाद भारतेंदु हरिश्चंद्र के अलावा बनारस में पैदा हुए दूसरे ऐसे साहित्यकार हैं जो पूरे हिंदी भाषी भारत में सबसे जानामाना नाम हैं. भारतेंदु की तरह उन्होंने भी साहित्य की विभिन्न विधाओं को एक साथ साधा और नए आयाम दिए. उनका रचना क्षेत्र नाटक, कहानी और कविता लेखन रहा बस अंतर यह है कि भारतेंदु की तरह पत्रकारिता या पत्रकारिक लेखन उन्होंने नहीं किया.

और इस सबसे भी ऊपर कहीं मृत्यु, दर्द और शोक से सारे जीवन लड़ते और जूझते प्रसाद साहित्य के बुद्ध थे. बुद्ध की तरह ही रोग, शोक और मृत्यु के प्रश्न उन्हें जीवनभर व्यथित और परेशान करते रहे. अगर जयशंकर प्रसाद के व्यक्तित्व के मूल तत्वों और रसायनों को टटोला जाए तो कुल जमा ये तीन बातें या कि गुण ही थे, जो उन्हें प्रसाद बनाते थे. जैसे बनारस ज्ञान, भोग और भक्ति का अद्भुत संगम है; प्रसाद ज्ञान, अध्यात्म और देश-भक्ति का संगम थे.

वैराग्य के रास्ते पर आना प्रसाद के लिए अनायास नहीं था. देश के हालात, पारिवारिक मुश्किलें और संकट जिसमें अपनों की असमय मृत्यु (सत्रह साल की उम्र में मां और बड़े भाई, फिर पिता और पत्नी की मृत्यु) से उपजा भावनात्मक खालीपन भी शामिल था, से जूझते हुए जयशंकर प्रसाद ने पत्नी की मृत्यु के बाद संन्यासियों का बाना ओढ़ लिया था.

जीवन नश्वर है, देह नश्वर है, साथ चलने और जानेवाला कोई नहीं होता, इस बोध ने उनको संन्यास की तरफ उन्मुख किया पर शायद उन्हें लगता था कि वे बुद्ध के रास्ते पर नहीं चल सकते. आश्रयहीन परिवार, संपत्ति लूटने को तैयार बैठे नाते-रिश्तेदार और अकेली बची विधवा भाभी की जिम्मेदारी उनके सिर पर थी और इनसे मुंह चुराना उनके लिये संभव नहीं हो पाया. संन्यास अपनाने के बाद वे बुद्ध की तरह एक बार घर लौटे तो अपनी असहाय भाभी के अनुरोध को ठुकरा नहीं सके और उनके कहने पर सांसारिकता में लौट आए. हालांकि उनका यह लौटना भी सिर्फ लिखने और देश की खातिर था.

इसके बाद उन्होंने जो रचा उसमें जनता में जागृति भरने वाले कुछ नाटक और कुछ उपन्यास थे. दुनियावी लोगों के हिसाब से प्रसाद संन्यास त्यागकर लौटे व्यक्ति हो सकते हैं लेकिन उनका रचनाकर्म इसका परिचय देता है कि जिसने संन्यास छोड़ा वह उनका कर्तव्य प्रेरित तन था, मन तो वहीं कहीं अटका रह गया था. संन्यास की गुफाओं में, साधुओं की संगति में, जहां-तहां निरुद्देश्य घूमने के बंजारेपन में. ‘ओ चिंता की पहली रेखा’, ‘आह वेदना मिली विदाई’, और ‘ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे-धीरे’ इसी मन से उपजे गान हैं. इन रचनाओं में सिर्फ गहरे भाव ही नहीं थे. कर्णप्रियता और शब्दों की मिठास व चयन इन्हें और ऊंचा दर्जा देती है. जैसे –

‘ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे-धीरे जिस निर्जन में सागर लहरी, अम्बर के कानों में गहरी, निश्छल प्रेम कथा कहती हो, तज कोलाहल की अवनी रे…’

संन्यास अपनाने के बाद वे बुद्ध की तरह एक बार घर लौटे तो अपनी असहाय भाभी के अनुरोध को ठुकरा नहीं सके और उनके कहने पर सांसारिकता में लौट आए

इस रचना के कारण कई आलोचकों ने प्रसाद को पलायनवादी भी कहा. लेकिन एक दूसरे आयाम से देखें तो यह पलायन नहीं था. यह एक ऐसे लोक की कामना थी, जहां दुख नहीं था द्वेष और प्रतिस्पर्धा नहीं थी, मुक्ति थी. यह एक ‘आदर्शलोक’, एक यूटोपिया की कामना थी. यह दुख, दीनता और गुलामी से रहित एक ऐसे समाज का सपना था जिसकी कल्पना हर लेखक करता है. रवींद्रनाथ टैगोर ने भी तो लिखा था – ‘वेयर देयर माइंड इज विदाउट फीयर …’ प्रकट में साफ-साफ न कहते हुए-हुए यह अपने आजाद देश की कामना थी. उसके सपनों को लोगों के दिल में भरना और बचाए रखने की कोशिश थी यह.

देशप्रेम और देशचिंता प्रसाद की नाटकों के मूल में हमेशा रही. उनके नाटकों की ही अगर बात की जाए तो ‘कामना’ और घूंट’ को छोड़कर सभी नाटकों (इनमें ध्रुवस्वामिनी, चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त आदि काफी लोकप्रिय हैं) के केंद्र में देशप्रेम ही था. प्रसाद ने अपने पूरे जीवन-काल में तेरह नाटक लिखे, जिनमें से आठ ऐतिहासिक थे और तीन पौराणिक. नाटकों की विषयवस्तु के रूप में उन्होंने महाभारत की कथाओं से लेकर हर्षवर्धन तक के काल को समेटा. प्रसाद ने पारसी रंगमंच के प्रभाव को ठुकराते हुए युवाओं के लिए अपने देश के अतीत से जुड़ी कथाओं को सामने रखा. यहां न सिर्फ अतीत था बल्कि आज उस अतीत से ली जानेवाली प्रेरणाएं भी शामिल थीं.

प्रसाद के नाटकों के गीत भी नाटकों में प्रयुक्त होने वाले संवादों की तरह बेहद पुरअसर होते थे. दिल में कहीं गहरे घर कर जानेवाले, उसमें उमंग और उल्लास जगाने वाले. ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा.’ और ‘हिमाद्री तुंग—श्रृंग से, प्रबुद्ध-शुद्ध भारती’ जैसे गीत इन्हीं खूबियों के चलते इतने वर्षों बाद भी उतने ही प्रसिद्ध और लोकप्रिय हैं. देशभक्ति में पगी ऐसी कालजयी रचनाएं तब तक संभव नहीं हैं जबतक रचनाकार का मन खुद देशमय न हो गया हो. यह एक संन्यासी मन की अंतिम प्रतिबद्धता थी. प्रसाद के नाटकों पर आलोचकों का एक आरोप यह रहा कि इन्हें अभिनीत करना आसान नहीं है. लेकिन इसका सबसे बड़ा जवाब यही है कि ये नाटक दशकों से मंचित हो रहे हैं और यह क्रम आज तक जारी है.

प्रसाद के नाटकों पर आलोचकों का एक आरोप यह रहा कि इन्हें अभिनीत करना आसान नहीं है. लेकिन इसका सबसे बड़ा जवाब यही है कि ये नाटक दशकों से मंचित हो रहे हैं और यह क्रम आज तक जारी है

सीमित अर्थों में राष्ट्र और राष्ट्रवाद को आंकने वाले लोगों के लिए प्रसाद एक राष्ट्रवादी लेखक हो सकते हैं, प्रबल राष्ट्रवादी भी. लेकिन जिस दौर में वे थे उस समय राष्ट्रवाद उस प्रचलित अर्थ में नहीं था जैसा कि आज है. धर्म को भी आज जितने संकीर्ण नजरिए से नहीं देखा जाता था. याद रखने वाली बात है कि उसी दौर में ‘गणेश-पूजा’ और तमाम धार्मिक उत्सव लोगों को एकत्रित होने, संगठित होने और जागरूक होने के साथ-साथ देश के स्वतंत्रता हासिल करने के अभियान को गति देने का कारक होते थे. ऐसे में राष्ट्रवादी होना और प्रसाद की तरह राष्ट्रवादी होना, उस समय और समाज की पहली जरूरत थी.

छायावाद के चार स्तंभों में से एक प्रमुख स्तंभ, जयशंकर प्रसाद अपने कहानी लेखन और उपन्यास लेखन में नाटक लेखन से ज्यादा आधुनिक थे. एक कथाकार के रूप में प्रेमचंद के समकालीन होते हुए भी उन्होंने प्रेमचंद की तरह एकरेखीय और आदर्शवादी कहानियां नहीं लिखीं. उनकी कहानियों में द्वन्द, भावनाएं, मनोविज्ञान और मन के भीतर के विचलन सब आकार लेते थे. यह अलग बात है कि कहानीकार के रूप में उन्हें वह उचित प्रतिष्ठा नहीं मिल पाई. यह त्रासदी हर उस बड़े रचनाकार की है जो एक साथ कई विधाओं में काम करता है. होता यह है कि एक विधा की प्रसिद्धि आपकी दूसरे विधाओं की प्रतिभा को ढांप लेती है. 72 कहानियां लिखनेवाले प्रसाद की पहली कहानी ‘ग्राम’ 1912 में ‘इंदु’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित हुई थी. आकाशदीप, गुंडा, पुरस्कार और ‘स्वर्ग के खंडहर’ प्रसाद की प्रसिद्ध प्रेम कहानियां हैं, जिनमें वे भावनाओं की सघनता से गुजरते हुए यथार्थ और समस्याओं की तरफ मुड़ते दिखते हैं.

उपन्यासों की उनकी तिकड़ी (कंकाल, तितली और इरावती) में ‘इरावती’ वह उपन्यास है जो उनकी मृत्यु के वक़्त अधूरा ही था. मात्र 48 साल की उम्र में ( जन्म – 30 जनवरी , 1889 | मृत्यु – 14 जनवरी 1937) इस लेखक ने जो हिंदी साहित्य को सौंपा, वह अतुलनीय ही नहीं है, अभी पूरी तरह से उसका मूल्यांकन तक नहीं हो पाया. इसे एक लेखक के जीवन की घनघोरतम त्रासदी के सिवा और क्या कहा जा सकता है?

जयशंकर प्रसाद की प्रतिभा का शिखर ‘कामायनी’ को माना जा सकता है. इसकी मूल पंक्तियां ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ स्त्री की स्थिति, उसके संघर्ष और उसे आदर देने की कोशिश में आज भी रूपक की तरह इस्तेमाल होती हैं. इस रचना को कवि सुमित्रानंदन पंत ने ‘हिंदी का ताजमहल’ कहकर मान और गौरव दिया है और जाहिर है कि यह दुर्लभ सम्मान सिर्फ रचना ही नहीं उसके रचनाकार के हिस्से में भी है.

सौज- सत्याग्रहः लिंक नीचे दी गई है-

https://satyagrah.scroll.in/article/27436/jaishankar-prasad-hindi-writer-profile

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