दिल्ली । ‘साहित्य भारतीय भाषाओं में लिखा गया हो या भारतीय भूमि में या भारतीय संवेदनाओं के साथ लिखा गया हो, उसे भारतीय साहित्य के अंतर्गत परिगणित किया जाना चाहिए । भारतीय साहित्य को समझने के लिए भारत को समझना आवश्यक है । भारत एक नक्शा नहीं संस्कृति है अर्थात् भारत को एक भौगोलिक क्षेत्र के बजाए सांस्कृतिक क्षेत्र की तरह देखा जाना चाहिए ।’ हिंदू कॉलेज के हिंदी विभाग की हिंदी साहित्य सभा द्वारा आयोजित ऑनलाइन व्याख्यान में सुप्रसिद्ध आलोचक और इग्नू के समकुलपति प्रो. सत्यकाम ने उक्त विचार व्यक्त किए ।
उन्होंने ‘भारतीय साहित्य की अवधारणा’ विषय पर बोलते हुए कहा कि भारतीय साहित्य का सबसे बड़ा गुण लोकतांत्रिक होना है । भारतीय साहित्य जन-जन का विश्वास ग्रहण करता है । उसमें एक वर्ग या समुदाय का नहीं बल्कि समस्त समाज का चित्रण मिलता है । इससे पूर्व उन्होंने बल्गेरिया विश्वविद्यालय के अपने अनुभव को एक कहानी के रूप में साझा करते हुए कहा कि साहित्य को राष्ट्रीयता के दायरे में नहीं बांधा जा सकता। साहित्य मानवतावाद, वैश्विकता और वसुधैव कुटुंबकम् की विराट अभिव्यक्ति है।
उनके अनुसार भारतीय साहित्य एक ही है जो अनेक भाषाओं में लिखा जाता है किंतु कुछ आलोचकों द्वारा भारतीय साहित्य को अनेक कहना भारतीय साहित्य और उसकी भारतीयता को कमजोर करने का प्रयास है । भारत में हजारों जातियां, संस्कृतियां, सभ्यताएं, धारणाएं और भाषाएं हैं । नई शिक्षा नीति का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उसमें जो भाषा की विविधता है और विद्यालयी स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करने की बात बहुत महत्वपूर्ण है । भारत की संकल्पना राजनीतिक या भौगोलिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक है और भारतीय साहित्य को समझने से पूर्व इस सांस्कृतिक संकल्पना को समझना जरूरी है । अपनी बात स्पष्ट करने के लिए उन्होंने महाभारत का उदाहरण देते हुए संजय द्वारा व्यक्त भारत की परिभाषा उद्धृत करते हुए कहा कि भारतीय साहित्य एक है और विविधताओं के साथ है क्योंकि हम उन विविधताओं के बीच ही जीते हैं ।
रवींद्रनाथ ठाकुर का कथन उद्धृत करते हुए उन्होंने भारतीयों के आध्यात्मिक के साथ-साथ भौतिक होने पर बल दिया । प्राचीन काल से साहित्य, दर्शन, कला और विज्ञान में कोई फर्क नहीं रहा । इन सभी क्षेत्रों में होने वाली रचनाएं (शून्य का आविष्कार आदि) हमारे भौतिक होने का प्रमाण है । भारतीय साहित्य मनुष्यता की खोज है । साहित्य के इतिहास पर बात करते हुए उन्होंने भक्तिकाल के साहित्य को जन-साहित्य कहा है जो आध्यात्मिकता, भौतिकता तथा सामूहिक भावना को सुंदर व्यक्त करता है । प्रो. सत्यकाम ने मीजो कविता के पाठ से अपने व्याख्यान का समापन किया जिसका हाल ही में उन्होंने अनुवाद किया था।
प्रश्नोत्तरी सत्र में ‘दक्षिण भारत हिंदी के प्रति उत्कट विरोध भारतीय एकता की पुष्टि पर सवाल उठाते हैं’ को महत्वपूर्ण प्रश्न मानते हुए उन्होंने कहा तमिल सबसे प्राचीन भाषा है और भारत की कोई भी भाषा कमतर नहीं है । विरोध केवल राजनीतिक है । उसका कोई भी सामाजिक या सांस्कृतिक संदर्भ नहीं है । लेकिन हिंदी वालों को तमिल साहित्य पढ़ना-लिखना चाहिए और उनके मनोविज्ञान को समझने की भी ज़रूरत है तो उनमें भी हिंदी के प्रति सद्भावना उत्पन्न होगी । सभी प्रश्नों के विस्तार से उत्तर देते हुए उन्होंने विद्यार्थियों के मन में उत्पन्न जिज्ञासाएं शांत की । इस सत्र का संयोजन साहित्य सभा की उपाध्यक्ष गायत्री द्वारा किया गया।
वेबिनार के प्रारंभ में विभाग के वरिष्ठ प्राध्यापक डॉ. विमलेंदु तीर्थंकर ने प्रो. सत्यकाम का स्वागत करते हुए उनके व्यक्तित्व की सरलता और सहजता को रेखांकित किया। उन्होंने प्रेमचंद द्वारा हिंदी साहित्य सभा की प्रथम अध्यक्षता को याद करते हुए इसके गौरवशाली इतिहास से भी श्रोताओं का परिचय कराया । प्राध्यापक नौशाद अली ने वक्ता का परिचय देते हुए करोनाकाल में उनके नव-परिवर्तन शैक्षिणिक कार्य, रिकॉर्डेड व्याख्यानों को विद्यार्थियों तक पहुंचाने की सक्रिय भूमिका पर प्रकाश डाला।
धन्यवाद ज्ञापन करते हुए विभाग प्रभारी डॉ. पल्लव ने कहा कि ऐसे व्याख्यान न केवल विद्यार्थियों के लिए बल्कि प्राध्यापकों एवं सामान्य पाठकों के लिए भी लाभदायक हैं। उन्होंने भारत के विभिन्न क्षेत्रों (झारखंड, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, गोवा आदि) से जुड़ने वाले साहित्य प्रेमियों का आभार व्यक्त किया। आयोजन का संयोजन प्राध्यापक डॉ धर्मेंद्र प्रताप सिंह ने किया। वेबिनार में विभाग के वरिष्ठ अध्यापको डॉ अभय रंजन, डॉ हरींद्र कुमार सहित अन्य विश्वविद्यालयों के प्राध्यापक, शोधार्थी और छात्र भी उपस्थित थे ।