हाल में जारी अपनी रिपोर्ट में ‘फ्रीडम हाउस’ ने भारत का दर्जा ‘फ्री’ (स्वतंत्र) से घटाकर ‘पार्टली फ्री’ (अशंतः स्वतंत्र) कर दिया है. इसका कारण है भारत में व्याप्त असहिष्णुता का वातावरण और राज्य का पत्रकारों, विरोध प्रदर्शनकारियों और अल्पसंख्यकों के साथ व्यवहार. गत 19 मार्च को झांसी रेलवे स्टेशन का घटनाक्रम इसी स्थिति को प्रतिबिंबित करता है. उस दिन सेक्रेड हार्ट कांग्रीगेशन की दो ननों, जो दो लड़कियों के साथ दिल्ली से ओडिशा जा रहीं थीं, को ट्रेन से उतरने पर मजबूर किया गया. बजरंग दल और अभाविप जैसे संगठनों के कुछ कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया कि ननें दोनों लड़कियों को उनका धर्मपरिवर्तन करवाने के लिए ले जा रही हैं. उन्होंने ननों से उन लड़कियों के पहचान संबंधी दस्तावेज मांगे और यह भी पूछा कि उन दोनों का धर्म क्या है. घटना के जो वीडियो सामने आए हैं उनसे स्पष्ट है कि कार्यकर्ताओं का बात करने का अंदाज अत्यंत आक्रामक और अपमानजनक था.
लड़कियों ने कहा कि वे दोनों ईसाई हैं और नन बनना चाहती हैं. फिर पुलिस को बुला लिया गया जिसने चारों को ट्रेन से उतारकर हिरासत में ले लिया. उन्हें अगले दिन अपनी यात्रा जारी रखने की इजाजत दी गई. केरेला कैथोलिक बिशप्स कान्फ्रेस ने एक बयान जारी कर कहा कि दोनों ननों को अकारण हिरासत में लिया गया और अपमानित किया गया. चूंकि दोनों ननें केरल से थीं इसलिए वहां के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह को पत्र लिखकर अपना विरोज जाहिर किया और पूरे मामले की जांच की मांग की.
बजरंग दल और अभाविप के कार्यकर्ता उत्तरप्रदेश के धर्मांतरण निषेध कानून का हवाला देते हुए महिलाओं को डरा-धमका रहे थे. दक्षिणपंथी संगठनों के कार्यकर्ताओं द्वारा इस तरह की हरकतें पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बढ़ी हैं. ऐसा दो कारणों से हुआ है. पहला यह कि उन्हें अच्छी तरह से पता है कि उनका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है. दूसरे, वे यह भी जानते हैं कि ऐसी हरकतें करके वे भाजपा के शीर्ष नेताओं की नजर में आ सकते हैं और उन्हें उचित इनाम मिल सकता है. इस घटना की भले ही मीडिया में अधिक चर्चा हुई हो परंतु यह एक तथ्य है कि ईसाई पादरी काफी समय से इस तरह की स्थितियों का सामना करते रहे हैं. पर्सीक्यूशन रिलीफ रपट, (2019) के अनुसार “ईसाईयों के समागमों पर हमलों की घटनाओं में तेजी आई है, विशेषकर रविवार की सुबह होने वाली प्रार्थना सभाओं और घरों में होने वाले धार्मिक समारोहों पर. पास्टरों और श्रद्धालुओं की पिटाई की जाती है और कई मामलों में उनके हाथ-पैर तोड़ दिए जाते हैं. चर्चों में तोड़फोड़ की जाती है. पीड़ितों के साथ न्याय करने और उनके हमलावरों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने की बजाए पुलिस उन्हें ही इस आरोप में धर लेती है कि वे हिन्दुओं का धर्मपरिवर्तन करवा रहे हैं. अब तक सैकड़ों ईसाईयों को हिन्दुओं का धर्मपरिवर्तन करवाने के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है.”
फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट में मुसलमानों पर हमलों की प्रमुखता से चर्चा है. मुसलमानों पर हमले की घटनाएं ज्यादा प्रमुखता पाती रही हैं जबकि ईसाईयों पर हमलों की उतनी चर्चा नहीं होती. भारत में ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा की शुरूआत 1990 के दशक में हुई और शुरू से ही उसकी प्रकृति मुसलमानों पर हमलों से कुछ अलग थी. ईसाईयों पर हमले की पहली बड़ी घटना थी 1999 में पास्टर ग्राहम स्टेन्स को उनके दो अवयस्क बच्चों के साथ जिंदा जला दिया जाना. बजरंग दल के दारा सिंह (राजेन्द्र पाल) ने इस बहाने से लोगों को पास्टर के साथ यह क्रूर व्यवहार करने के लिए उकसाया था कि वे कुष्ठ रोगियों की सेवा करने के नाम पर हिन्दुओं का धर्मपरिवर्तन करवा रहे हैं.
उस समय देश पर एनडीए का शासन था. अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे और लालकृष्ण आडवाणी गृहमंत्री के पद को सुशोभित कर रहे थे. उस समय आडवाणी ने कहा था कि वे बजरंग दल के कार्यकर्ताओं को अच्छी तरह से जानते हैं और वे ऐसी हरकत कर ही नहीं सकते. यह घटना इतनी भयावह थी कि तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने उसे ‘दुनिया की काले कारनामों की सूची में एक और प्रविष्टि’ बताया था. घटना की राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक चर्चा से मजबूर होकर एनडीए सरकार ने इसकी जांच के लिए मंत्रियों की एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया. इस समिति में मुरली मनोहर जोशी, जार्ज फर्नांडीस और नवीन पटनायक शामिल थे. समिति इस निष्कर्ष पर पहुंची की यह घटना एनडीए सरकार को अस्थिर करने की अंतर्राष्ट्रीय साजिश का हिस्सा थी. आडवाणी ने घटना की जांच के लिए वाधवा आयोग की नियुक्ति भी की. वाधवा आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि बजरंग दल कार्यकर्ता दारा सिंह, वनवासी कल्याण आश्रम और विश्व हिन्दू परिषद आदि की गतिविधियों में भाग लेता रहता था. आयोग ने यह भी पाया कि पास्टर स्टेन्स जिस इलाके में काम करते थे वहां ईसाईयों की जनसंख्या में कोई वृद्धि नहीं हुई थी.
इस घटना के बाद से देश के विभिन्न इलाकों में ईसाई विरोधी हिंसा आम हो गई. इस तरह की घटनाएं मध्यप्रदेश के झाबुआ, गुजरात के डांग और ओडिशा के कई क्षेत्रों में हुईं. हर साल क्रिसमस के आसपास ईसाईयों पर हमले की घटनाओं में बढ़ोत्तरी होती थी. इस हिंसा का चरम था अगस्त 2008 में ओडिशा के कंधमाल में हुई हिंसा जिसमें करीब सौ ईसाई मारे गए, सैकड़ों चर्चों को या तो नुकसान पहुंचाया गया या जलाकर राख कर दिया गया और हजारों ईसाईयों को अपने घरबार छोड़कर भागना पड़ा. दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए. पी. शाह की अध्यक्षता में गठित नेशनल पीपुल्स ट्राईब्यूनल इस नतीजे पर पहुंचा कि ‘कंधमाल में जो कुछ हुआ वह राष्ट्रीय शर्म का विषय था और इसने मानवता के चेहरे पर कालिख पोती है…पीड़ितों को अब भी डराया-धमकाया जा रहा है, उन्हें सुरक्षा उपलब्ध नहीं करवाई जा रही है और उन्हें न्याय से वंचित रखा जा रहा है.’
देश में जहां भी ईसाई विरोधी हिंसा होती है वहां उसके पहले यह दुष्प्रचार किया जाता है कि ईसाई मिशनरियों को विदेशों से भारी मात्रा में धन प्राप्त हो रहा है और वे हिन्दुओं को बहला-फुसलाकर और लोभ-लालच देकर ईसाई बना रही हैं. हो सकता है कि ईसाईयों के कुछ पंथों की मिशनरियों का उद्धेश्य धर्मांतरण हो परंतु अधिकांश का एकमात्र लक्ष्य लोगों को ईसाई बनाना नहीं है- कम से कम लोभ-लालच और धोखाधड़ी से तो कतई नहीं. ईसाई धर्म भारत में लगभग दो हजार साल पहले आया था. ऐसा बताया जाता है कि 52 ईस्वी में सेंट थामस मलाबार तट पर पहुंचे थे और वहां उन्होंने चर्चों की स्थापना की थी. तब से देश के अनेक हिस्सों – जिनमें दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर बड़े शहर तक शामिल हैं – ईसाई मिशनरियां काम कर रही हैं. उनका मुख्य फोकस शिक्षा और स्वास्थ्य पर है. यहां हम यह भी नहीं भूल सकते कि आडवाणी और जेटली सहित अनेक हिन्दुत्ववादी सितारे ईसाई मिशनरी स्कूलों में पढ़े हैं.
ईसाई मिशनरियों के खिलाफ दुष्प्रचार का मुख्य उद्धेश्य आदिवासी क्षेत्रों में उनकी गतिविधियों की राह में रोड़े अटकाना है. वे आदिवासी इलाकों में बीमारों को राहत प्रदान कर रही हैं और शिक्षा के जरिए आदिवासियों का सशक्तिकरण कर रही हैं. सन् 1980 के दशक के बाद से विहिप और वनवासी कल्याण आश्रम का मुख्य फोकस आदिवासी क्षेत्रों पर है. वहां इनके स्वामी काम में जुटे रहते हैं. गुजरात के डांग में असीमानंद, ओडिशा में लक्ष्मणानंद और झाबुआ में आसाराम बापू इनके उदाहरण हैं.
शबरी और हनुमान को आदिवासियों का भगवान और उन्हें हिन्दू बताया जा रहा है. यही प्रचार उनके खिलाफ हिंसा की जड़ में है और इसी प्रचार के नतीजे में झांसी जैसी घटनाएं हो रही हैं.
लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)