हाल में चार राज्यों और एक केन्द्रशासित प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए. कोरोना की दूसरी अत्यंत घातक लहर के बीच जिस ढंग से ये चुनाव करवाए गए, वह केंद्र में गद्दीनशीन पार्टी के हितों के अनुरूप थे. पश्चिम बंगाल के नतीज़ों का सबको बहुत बेसब्री से इंतजार था और जब वे आये तब कई अलग-अलग कारणों ने उनका स्वागत किया गया. भाजपा को असम और पुडुचेरी में खासी सफलता मिली. पश्चिम बंगाल में भी उसे कुल वोटों का अच्छा ख़ास हिस्सा हासिल हुआ और उसकी सीटें बढीं.
यह दिलचस्प है कि असम में महाजोत (कांग्रेस व एआईयूडीएफ का गठबंधन) को सबसे ज्यादा वोट मिले परन्तु फिर भी भाजपा गठबंधन की तुलना में उसे कम सीटों पर जीत हासिल हुई. यह आश्चर्यजनक है कि असम में एनआरसी के कारण लोगों को हुई परेशानियों के बावजूद भाजपा वहां फिर से सत्ता में आने में सफल रही. एनआरसी और सीएए के चलते लोगों को हुई तकलीफों के बावजूद धार्मिक ध्रुवीकरण और पार्टी की कसी हुई चुनाव मशीनरी के कारण भाजपा की जीत संभव हो सकी. आरएसएस और भाजपा ने पूरे देश में चुनाव मशीनरी खड़ी कर ली है जो अत्यंत कार्यकुशल है और एक के बाद एक चुनावों में उनकी जीत सुनिश्चित करती आ रही है.
अगर देश को किसी नतीजे का सबसे ज्यादा इंतज़ार था तो वे थे पश्चिम बंगाल के नतीजे. राज्य में जहाँ भाजपा की सीटें 3 से बढ़कर 77 हो गईं वहीं तृणमूल कांग्रेस ने 213 सीटें जीतीं, जो पिछली बार से दो ज्यादा हैं. टीएमसी को मिले वोटों के प्रतिशत में भी इज़ाफ़ा हुआ. भाजपा की ताकत में काफी बढ़ोत्तरी हुई परन्तु इसे भाजपा की उपलब्धि के रूप में नहीं देखा गया. इसके कई कारण थे. भाजपा ने चुनाव में अपनी विजय की सुनिश्चितता को लेकर बड़े-बड़े दावे किये थे. उसने बार-बार कहा था कि उसे 200 से ज्यादा सीटें मिलेंगीं. पश्चिम बंगाल में भाजपा और उसके पितृ संगठन आरएसएस ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी. आरएसएस के साथी संगठनों जैसे विवेकानंद सेंटर, वनवासी कल्याण आश्रम, विहिप, बजरंग दल और ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद के हामी अन्य संगठनों ने भाजपा को चुनाव में विजय दिलवाने के लिए जबरदस्त प्रयास किये. आरएसएस-भाजपा ने इन चुनावों में जितना धन और मानव संसाधन झोंके वह अभूतपूर्व था. भाजपा नेताओं की रैलियों में ज़बरदस्त भीड़ उमड़ी. न तो वक्ता और ना ही श्रोता मास्क पहने दिखे और सोशल डिसटेनसिंग का तो कोई सवाल ही नहीं था.
टीएमसी, सीपीएम और अन्य पार्टियों से जितने विधायक और अन्य नेता बिकाऊ थे उन सब को भाजपा ने खरीद लिया. ये सभी व्यक्तिगत तौर पर सत्ता और धन हासिल करना चाहते थे और भाजपा ने अनेक तरह के प्रलोभन देकर उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया. पिछले कई वर्षों से चुनाव के पहले दलबदल करवाना भाजपा की आदत बन गई है. वह अपनी सरकार बनाने के लिए भी दलबदल करवाती है. कई राज्यों में उसने इसी तरह सरकार बनाई है. भाजपा के प्रमुख रणनीतिकार अमित शाह ने दावा किया था कि धीरे-धीरे टीएमसी खाली हो जाएगी और उसमें केवल ममता बनर्जी बचेंगीं.
गोदी मीडिया ने पूरे देश में हल्ला कर दिया कि बंगाल में भाजपा की स्थिति बहुत मज़बूत है. जिन लोगों ने केंद्र और राज्यों में भाजपा का शासन देखा है वे जानते हैं कि पार्टी की नीतियां और कार्यक्रम कितने एकाधिकारवादी होते हैं और उनका आम लोगों पर कितना कुप्रभाव पड़ता है. भाजपा जिस तरह साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देती है वह भी सब जानते हैं. बंगाल में कई भाजपा नेताओं ने भद्दी भाषा का प्रयोग किया. इनमें मोदी का ‘दीदी ओ दीदी’ का संबोधन शामिल है.
देश के अलग-अलग भागों में चुनाव जीतने के लिए भाजपा अलग-अलज नीतियां अपनाती हैं. इस मामले में वह बहुत लचीली है. भाजपा-संघ का मूल एजेंडा तो यही है कि जाति, वर्ग और लिंग के मामले में समाज में यथास्थिति बनी रहे. परन्तु वे यह भी जानते हैं कि चुनाव जीतने के लिए उन्हें दलितों और महिलाओं के वोट भी चाहिए. इसीलिये संघ ने सामाजिक समरसता मंच की स्थापना की जिसका लक्ष्य सोशल इंजीनियरिंग के जरिये दलितों को भाजपा-आरएसएस के पाले में लाना है. यह दिलचस्प है कि संघ के इस एजेंडा के बाद भी, दलितों और आदिवासियों में भाजपा की पैठ बढ़ी है.
सीएसडीएस द्वारा 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद किये गए एक अध्ययन से पता चला कि 2014 और 2019 के बीच, दलितों, आदिवासियों और ओबीसी में भाजपा समर्थकों की संख्या दो गुना हो गई. यह इस तथ्य के बावजूद कि इन वर्गों के लोग सबसे गरीब हैं. सन 2021 के चुनाव के बाद हुए सर्वेक्षणों से स्पष्ट है कि ऊंची जातियों की तुलना में, दलितों और ओबीसी का भाजपा को ज्यादा समर्थन मिल रहा है.
कैंब्रिज विश्वविद्यालय में समाजशास्त्री मनाली देसाई बतातीं हैं कि भाजपा आदिवासियों और दलितों को अपने पाले में लाने के लिए किस प्रकार अलग-अलग तरीके अपनाती है. इन समूहों को लगता है कि अन्य पार्टियों की तुलना में भाजपा उन्हें अधिक सम्मान और मान्यता देती है और उन्हें समाज के अन्य तबकों के समकक्ष मानती है. इससे इन वर्गों को एक प्रकार की गरिमा का अहसास होता है जिस कारण वे भाजपा को मत देने के लिए प्रेरित होते हैं. बंगाल के मतुआ समुदाय, जिसकी राज्य में बहुत बड़ी आबादी है, के बारे में भाजपा का रुख यही बताता है. मोदी की बांग्लादेश और मतुआ मंदिर की यात्रा इसी रणनीति का हिस्सा थे.
यद्यपि भाजपा पश्चिम बंगाल में सत्ता में नहीं आ सकी है तथापि उसने समाज के कई तबकों में अपनी पैठ बना ली है और यही कारण है कि उसे इतने मत मिले हैं. यह संतोष का विषय है कि भाजपा बंगाल में सरकार नहीं बना सकी क्योंकि यदि ऐसा हो जाता तो इससे विपक्ष के मनोबल को गहरा धक्का लगता और उन लोगों को भी जो ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद के वर्चस्व के विरोधी हैं. अगर भाजपा बंगाल जीत जाती तो उसके आत्मविश्वास में जबरदस्त इज़ाफ़ा होता और वो अन्य राज्यों में और तेजी से घुसपैठ करने लगती.
यह भी हो सकता है कि कोरोना महामारी को नियंत्रित करने में सरकार के असफलता और घोर कुप्रबंधन ने अंतिम चरणों के मतदान को प्रभावित किया हो. ‘जय श्रीराम’ की आक्रामक संस्कृति को बंगाल के लोगों ने अस्वीकार कर दिया. ममता को ‘बेगम’ कह कर धार्मिक ध्रुवीकरण करने के प्रयास असफल हो गए. एनआरसी-सीएए की पृष्ठभूमि में मुस्लिम समुदाय, भाजपा को सत्ता से बाहर रखने का अवसर खोना नहीं चाहता था इसलिए उसने असादुद्दीन ओवैसी जैसे लोगों को नज़रअंदाज़ किया.
देश के सामने एक बड़ा सवाल यह है कि यह कैसे सुनिश्चित किया जाए कि देश में एक प्रजातान्त्रिक सरकार का शासन हो जो समावेशी हो और आम लोगों का ख्याल रखे. मुद्दा यह है कि क्या सामाजिक आन्दोलन और राजनैतिक दल एक मंच पर आ सकते हैं ताकि हमारे स्वाधीनता आन्दोलन के मूल्यों की रक्षा हो सके और गाँधी, अम्बेडकर और भगत सिंह के विचारों का भारत आकार ले सके.
लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)