डॉ. आलम शाह ख़ान के रचना संसार पर चार दिवसीय व्याख्यान श्रृंखला

सुप्रसिद्ध लेखक डॉ.आलम शाह ख़ान की कहानियाँ वर्तमान समय में बहुत प्रासंगिक हो गई हैं। भारतीय सामाजिक जीवन का गहराई से अनुसंधान करके, पाठक की जड़ता को तोड़ते हुए उसे परिवर्तन के लिए उद्वेलित करती हैं I यही उनकी विशिष्टता है जो उनको ‘वक्त से आगे का रचनाकार’ बनाती है तथा उनकी रचनाओं को कालजयी बनाती है।  ये विचार आलमशाह ख़ान यादगार समिति द्वारा आलमशाह ख़ान की पुण्य तिथि के अवसर पर आयोजित चार दिवसीय व्याख्यान श्रंखला -” आलमशाह  खान: व्यक्तित्व एवं कृतित्व” विषयक में उभरकर आये।

इसमें चार दिन तक देश के जाने-माने लेखकों एवं विचारकों ने विभिन्न विषयों  पर लिखी उनकी बारह कहानियों का गहराई से विश्लेषण किया। कार्यक्रम की संयोजक डॉ तराना परवीन ने बताया कि पहले दिन  सत्रह मई को “कहानी एवं डाक्टर आलमशाह खान” विषय पर बनास जन  के सम्पादक,आलोचक और दिल्ली विश्वविद्यालय में व्याख्याता डा. पल्लव और वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. दुर्गा प्रसाद अग्रवाल ने फेसबुक लाईव पर विषय प्रवेश कराते हुए प्रो. आलमशाह खान के संस्मरण सुनाऐ और वर्तमान समय में साहित्य की भूमिका के साथ ही आधुनिक कहानी के विकास में खान साहब की महती भूमिका की चर्चा की।
अठ्ठारह मई को “आलम शाह खान:व्यक्तित्व एवं कृतित्व”पर प्रथम व्याख्यान श्रृंखला फेसबुक पर लाइव की गई। प्रथम कड़ी में श्री विजय रंचन पूर्व आईएएस एवं फिल्म क्रिटिक ने कहा कि ‘किराए की कोख’ कहानी जिस पर “कोख” नामक फिल्म बनी है को पढ़ने के बाद आप इतने विचलित हो जाते हैं कि आसानी से नींद नहीं आ सकती। उनकी कहानियों में स्तम्भन ‘बोध’ की भूमिका बनाता है तो विचलन कार्य के लिए उत्तेजित करता है । यह विचित्र काव्य रस स्वाद है जो हिंदी कहानी में कहीं देखने को नहीं मिलता, सिर्फ आलम शाह खान की कहानियों में दिखता है। वे हिंदी के प्रथम कहानीकार हैं जिनकी कहानियों में विभत्स अन्त तक विभत्स ही रहता है तथा जो लिखते हैं कि उन्हें इतिहास के साथ-साथ भूगोल भूगोल भी परेशान करता है । उनकी कहानियों में इतिहास के स्थान पर भूगोल यानी कि ज़मीनी हकीकत की विद्रूपता बहुत प्रबलता से प्रकट होने के बावजूद उनमें कोई कड़वाहट नहीं आती तथा उनकी मानवीय करुणा का दरिया बहता ही रहता है।
इसी सत्र में  जयपुर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री ईश मधु तलवार  ने “एक और मौत” कहानी पर चर्चा करते हुए कहा कि इस कहानी में आलम शाह ख़ान इतनी खूबी से उपेक्षित तबके की तस्वीर शब्दों के ज़रिए सामने लाते हैं कि उसका दर्द सीने में सीधा उतरता है। इस कहानी में कुल्फी वाला सिर्फ कुल्फी ही नहीं सूरज की झुलसा देने वाली किरणें भी ढोता है । पड़ोस में हुई जवान मौत में जब उसे जबरन शामिल होना पड़ता है जिससे उसकी उस दिन की कुल्फियां,जिसे उसने अपने बच्चे के पैर का चांदी का तार चुराकर, बेचकर बनाई थी बिगड़ जाती हैं तो यह एक और मौत या उसकी खुद की मौत होने के बराबर ही था। शव यात्रा में शामिल हो उसका राम नाम सत्य की जगह ‘कुल्ही मलाई’ की टेर लगा देना उसके बिगड़े हुए मानसिक संतुलन को दर्शाता है। इस तरह कहानी का अंत सिर्फ प्रोफ़ेसर खान ही कर सकते थे। उनकी दूसरी कहानी “किराए की कोख” जो कि सारिका में छपी थी तथा बहुत चर्चित हुई थी  को उन्होंने बहुत ही मार्मिक और अंदर तक धंस जाने वाली कहानी बताया और कहा कि आलम शाह ख़ान चाहते थे कि संसार बहुत सुंदर बने जो कि साहित्य का उद्देश्य होता है और उनका यह सपना पूरा होने की उम्मीद की।
      प्रोफेसर हेमेंद्र चंडालिया ने “मौत का मजहब” कहानी को आज की कहानी बताते हुए कहा कि आज के दौर में जब मौत का तांडव कोरोना की वजह से चारों ओर फैला है और धार्मिक उन्माद तथा निराशा छाई है तब यह कहानी हमें अंधेरे में प्रकाश देती है और यह निराशा के दौर में उम्मीद की किरण बनकर सामने आती है। कहानी भोपाल गैस त्रासदी की तर्ज़ पर लिखी गई है। तब भी हवाओं में जहर घुल गया था और आदमी एक सांस के लिए तड़प रहा था, आज भी हवाओं में ज़हर है और आज भी आदमी एक सांस के लिए तड़प रहा है। तब भी लाशों का ढेर था आज भी है। कहानी की शुरुआत एक और कब्रें  तो दूसरी और चिताएं तैयार होने से होती है। कहानीकार बताता है कि लाशों के ढेर को मजहब के हिसाब से कतारों में रखा जा रहा है “जो लोग जीते जी आटा- केरोसिन की लाइनों में साथ लगे थे बाद मरने के अपने अपने मजहब के एतबार से अलग-अलग कतारों में लगा दिए गए”। यह स्थिति 1944,1984,1992 और आज 2021 तक कायम है। लेखक इस कहानी द्वारा धार्मिक उन्माद एवं असहिष्णुता से निकलकर तार्किक, वैज्ञानिक और मानवीय दृष्टिकोण के विकास के लिए प्रेरित करता है। चौथे वक्ता डॉ. आशीष सिंह ने उन्हें साठोत्तर के दशक के बाद के महत्वपूर्ण कहानीकार बताते हुए कहा  कि उनकी भाषा, चरित्र गठन, तकनीक और परिवेश चित्रण उनको समकालीन लेखकों से अलग ही स्थान प्रदान करता है । उनकी कहानियों में स्त्री पात्रों की चर्चा करते हुए कहा कि “चीर हरण के बाद”,” आज की द्रौपदी”,” एक और सीता”आदि में  जो स्त्रियां हैं वे जिंदगी से जूझती हुई जिंदगी की तलछट में जीती हुई  हार नहीं मानने वाली स्त्रियां हैं। उनकी सभी कहानियों में नरेटर कहीं नहीं है, कहानी के संवाद ही पात्रों की जद्दोजहद और परिवेश को बयान करते हैं। इसी वजह से उनकी कहानियां हिंदी साहित्य में एक अलग स्थान रखती हैं।
     कार्यक्रम की दूसरी श्रृंखला में उन्नीस मई को जयपुर की डा. प्रणु शुक्ला ने डा. आलमशाह ख़ान को एक चेतनावादी रचनाकार बताते हुए कहा कि उनकी कहानी “अबला जीवन का गणित” स्त्री विमर्श की प्रतिनिधि कहानी है। यह एक देहाती स्त्री  जसोदा की कहानी है जिसने सिर्फ बच्चे जनने में और दूसरों की सेवा में अपना जीवन व्यतीत किया है, परंतु  पचास की उम्र के बाद उसे आत्मबोध होता है तथा अब वह अपना  जीवन अपने लिए ,अपनी पसंद – नापसंद के हिसाब से जीना चाहती है । लेखक चाहता है कि स्त्रियों को आत्मबोध और अस्तित्व बोध हो और वे  स्वयं के लिए भी जीना सीखें। “भूखे फरिश्ते खुशबू की दावत ” कहानी में  लेखक ने छोटे भूखे गरीब बच्चों को खुशबू सूंघने से भी वंचित करने की  दिल दहलाने वाली कथा को ऐसे ताने-बाने में बुना है कि पाठक उनकी भूख मजबूरी और दर्द को महसूस करता है। वे कहानियों के कथानक का ऐसा चित्रण करते हैं कि स्वयं रचना प्रक्रिया के भीतर उतर जाते हैं और पाठक को भी उस पीड़ा को महसूस करा देते हैं । कहानी के रचाव और निर्माण प्रक्रिया में कहानीकार का इतना संगुंम्फन है कि अगर कुछ भी हटा दे तो कहानी अधूरी लगेगी। आलम शाह खान के चरित्रों की खासियत है कि वे घिघियाते या गिड़गिड़ाते नहीं हैं वरना अपनी पूरी शक्ति  को पूंजीभूत कर हालात से  उठकर खड़े होते हैं और समाज के सामने अपना एक नया रूप प्रस्तुत करते हैं। डा.इन्दिरा जैन ने डॉक्टर आलम शाह ख़ान के व्यक्तित्व पर बोलते हुए कहा कि वे यथार्थवादी व्यक्ति थे जो बात जैसी है उसे वैसी कहने में उन्हें कोई झिझक नहीं होती थी। हिंदी के कुछ शब्द तो उनसे मिलकर बात करने से ही समझ आ जाते थे। “बर्थडे पार्टी” कहानी में उन्होंने बड़ी रचनात्मकता से बाल मन का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है। “कुंवारा सफर” कहानी में निम्न मध्यम वर्ग की बेटियों को उनकी शादी को लेकर कितनी मानसिक वेदना झेलनी पड़ती है इसका बड़ा ही मर्मस्पर्शी एवं अनोखे ढंग का विवरण है। उनकी अन्य कहानियों की तरह ये दो कहानियां आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि  भारतीय समाज आज भी उसी दोराहे पर खड़ा है।
डा. गोपाल सहर ने उन्हें एक प्रतिबद्ध लेखक बताते हुए कहा कि उनका व्यक्तित्व पहाड़ जैसा था, जिसमें ऊंचाई एवं गहराई दोनों थी। ऊपर से रूखा-सूखा दिखने वाले किंतु उनके अंदर संवेदना के झरने बहते थे। “खूनी-खेती” कहानी का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि वे मानवीय संवेदनाओं को अपने जीवन एवं कहानियों दोनों में बेबाकी से बयान करने वाले बेजोड़ कहानीकार हैं। डा. प्रमिला चण्डालिया ने “मेहंदी रचा ताजमहल” को मानवीय प्रेम की अनमोल  कहानी बता कर कहा कि उदात्त मानवीय प्रेम के वैश्विक प्रतीक  ताजमहल को मेहंदी की भीनी भीनी खुशबू और  सुर्ख रंग  में जनसामान्य दुलारी के की हथेली पर उकेरने का साहस सिर्फ डॉक्टर आलम शाह खान ही कर सकते थे । संविधान के अनुसार अपने विश्वास का पालन करने का अधिकार हर व्यक्ति को है। अपनी वैचारिक स्पष्टता के द्वारा डॉ ख़ान ने इस कहानी के द्वारा देश के सामाजिक सांस्कृतिक ताने-बाने को बनाए रखने का संदेश दिया है जो आज भी अत्यंत प्रासंगिक है । उन्होंने कहा कि इस कहानी का अनुवाद अधिक से अधिक भाषाओं में होना चाहिए।
    चौथे दिन इक्कीस मई को सम्पन्न तीसरी कड़ी मे वरिष्ठ पत्रकार श्री उग्रसेन राव ने ‘बाँधो ना नाव इक ठाँव” और  ‘तिनके का तूफान” कहानियों का विश्लेषण कर बताया कि शिल्प , कथावस्तु , भावभूमि और प्रभाव-प्रेरणा की कसौटी पर डा.आलमशाह खान की सभी कहानियां निस्संकोच उच्च कोटि के साहित्य में स्थान बनाती हैं। उक्त दोनों ही कहानियों में विवाह के बंधन की नये सिरे से व्याख्या की गई है, जिससे पति – पत्नी के सम्बंध फिर से परिभाषित हुए हैं। इनमें यौन संसर्ग गौण है किन्तु परस्पर सहयोग, सम्मान और मैत्री प्रमुख है, जिन्हें सामाजिक कुरीतियों ने बंधक बना लिया है। । डा. हेमेंद्र पानेरी ने ‘एक ओर सीता” तथा “मुरादो भरा दिन” कहानियों को श्रेष्ठ रचनाएं बताते हुए कहा कि यह कहानियां पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों के दैहिक शोषण ,उनकी व्यथा और उनकी आवाज को मुखरित करने वाली , उनके अंदर छिपे दर्द की वास्तविकता से रूबरू कहानी कराने वाली मार्मिक कहानियां हैं, जो पाठक को सोचने पर मजबूर क देती हैं। आलम शाह खान की कहानियों में स्त्रियां हार नहीं मानती , वे अपनी परिस्थितियों से जूझती हैं । उनकी अन्य कहानियों के पात्र भी गरीब मजबूर हो सकते हैं पर वे जुझारू पात्र हैं। वे किसी के आगे हाथ नहीं फैलाते।  उन्होंने कहानीकार की रचना प्रक्रिया पर विस्तार से चर्चा  करते हुए कहा कि उन्होंने जीवन में जिन विषम परिस्थितियों को जिया और देखा उसे उजागर किया, जो भोगा वही लिखा।
अन्तिम  वक्ता के रूप में प्रो. श्रीनिवासन अय्यर ने “अ-नार ” कहानी का विश्लेषण कर कहा कि इसमें रचनाकार द्वारा थर्ड जेन्डर की पीड़ाओं को बखूबी सामने लाया गया है।सत्तर के दशक में लिखी यह कहानी अपने समय से बहुत आगे की कहानी है। 

फेसबुक लाईव की कड़ियों के अन्त में आलमशाह ख़ान यादगार समिति के अध्यक्ष व मशहूर शायर आबिद अदीब ने आलमशाह खान के संस्मरण सुनाते हुए कहा कि वे खुश तबीयत  अदीब थे जो किसी भी छोटे कहलाने वाले आदमी से बात करते ,उसकी व्यथा सुनते तथा कहानियों में भी बेबाकी से उसे बयान करते। उनका साहित्य हमेशा याद रखा जाएगा। उन्होने सभी भागीदारों को धन्यवाद दिया तथा भविष्य में भी समिति द्वारा साहित्यिक गतिविधिया तेज़ करने की घोषणा की। कार्यक्रम का तकनीकी संचालन अफ्शां खान और ज़हीन ख़ान ने किया। कार्यक्रम संयोजक डा. तराना परवीन ने सभी भागीदारों,  आयोजन में सहयोग करने वालों तथा यादगार समिति के सदस्यों को धन्यवाद अर्पित किया। सभी कार्यक्रम आलम शाह ख़ान  यादगार समिति के फेसबुक पेज पर उपलब्ध है। 

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