ऐसा नहीं है कि पूंजीपतियों के दिलों में अचानक जनता के लिए बड़ा प्यार उमड़ आया है। बात सिर्फ इतनी है कि वे इतने जमीन पर रहने वाले तथा यथार्थवादी हैं कि वे इस सच्चाई को देख सकते हैं कि अर्थव्यवस्था में नयी जान डालने के लिए, जनता के हक में नकदी हस्तांतरण जरूरी हैं।
आर्थिक नीति के पहलू से मोदी सरकार, दुनिया की शायद सबसे ज्यादा रूढ़िवादी (conservative) सरकार निकलेगी। महामारी के इस पूरे दौर में, जब करोड़ों लोगों की आमदनियां तथा जीवन यापन के सहारे छिन गए हैं, दुनिया भर में ज्यादातर सरकारों ने अपनी-अपनी जनता को सार्वभौम नकदी हस्तांतरण (universal cash transfers) मुहैया कराए हैं, लेकिन मोदी सरकार ने ऐसा नहीं किया है।
बेशक, तीसरी दुनिया की कई सरकारें भी ऐसे सार्वभौम नकदी हस्तांतरण मुहैया नहीं करा पायी हैं, लेकिन उनके तो हाथ बंधे हुए थे। इन सरकारों के सिर पर भारी विदेशी ऋण चढ़े हुए हैं और उन पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी एजेंसियों ने, उनके ऋणों को आगे खिसकाने के बदले में, कटौतियां थोपी थीं। लेकिन, भारत पर तो इस तरह का कोई बाहरी दबाव था ही नहीं कि वह खर्चों में कटौतियां करता और मेहनतकश जनता के हक में ऐसे हस्तांतरण करने से दूर ही रहता।
अपने देश की जनता के प्रति मोदी सरकार की यह घोर कृपणता (कंजूसी) तो पूरी तरह से उसका अपना ही निर्णय थी, जो राजकोषीय रूढ़िवाद में उसकी अंधी आस्था से निकला था। और इस रूढ़िवाद का दीवालियापन अब सब को दिखाई दे रहा है।
सरकार ने अपने खर्चों को सीमित बनाए रखा है ताकि राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाए रख सके और मुद्रास्फीति कम बनी रहे। लेकिन, सरकार के अपने खर्चे सीमित बनाए रखने के बावजूद, मई के महीने में थोक मुद्रास्फीति 12.94 फीसद और खुदरा मुद्रास्फीति 6.30 फीसद हो गयी और यहां तक कि वर्तमान जीडीपी के अनुपात के रूप में राजकोषीय घाटा भी तेजी से बढ़ रहा था। सरकार यह मानकर चल रही थी कि लॉकडाउन के उठाए जाने की ही देर थी, कार्पोरेट क्षेत्र को जो भारी कर रियायतें दी गयी थीं उनके बल-बूते पर, अर्थव्यवस्था में नयी जान पड़ जाएगी। लेकिन, मई के महीने में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में वृद्धि दर 3.1 फीसद ही थी, जो कि अप्रैल में रही 4.3 फीसद की वृद्धि से भी रफ्तार सुस्त पडऩे को दिखा रही थी और इसके पीछे तुलना आधार के नीचे होने जैसा कोई प्रभाव भी काम नहीं कर रहा था।
इसी प्रकार, यह मानकर चला जा रहा था कि ये रूढ़िवादी नीतियां, वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी को खुश करेंगी, वित्तीय प्रवाहों को आकर्षित करेंगी और रुपये की विनिमय दर को ऊपर उठाए रहेंगी। लेकिन, पिछले कुछ अर्से में रुपये पर उल्लेखनीय रूप से ज्यादा दबाव बना रहा है। इस तरह ये रूढ़िवादी आर्थिक नीतियां, उनसे जिन नतीजों के आने के दावे किए जा रहे थे, उनसे ठीक उल्टे ही नतीजे दे रही हैं। अब तो खुद पूंजीपति तक इन नीतियों से आजिज़ आ चुके हैं। जिस वर्ग के हित में इन नीतियों को चलाया जाने की बात थी, खुद वही वर्ग अब इन नीतियों का खुलकर विरोध कर रहा है।
पूंजीपति वर्ग तक विरोध में आया
टाटा ग्रुप के एक एक्जिक्यूटिव हैं टी वी नरेंद्रन, जो इस समय कान्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआइआइ) के अध्यक्ष भी हैं। उन्होंने सीआईआई की ओर से एक प्रस्ताव पेश किया है, जिसमें 3 लाख करोड़ रुपये के एक राजकोषीय उत्प्ररेण का सुझाव दिया गया है, जिसमें नकदी हस्तांतरण भी शामिल हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि नकदी हस्तांतरण का सुझाव अब सभी दायरों से आ रहा है। इस सुझाव को अब सिर्फ अर्थशास्त्रियों, विपक्षी पार्टियों तथा नागरिक समाज संगठनों द्वारा ही नहीं रखा जा रहा है बल्कि खुद पूंजीपतियों के निकाय द्वारा भी रखा जा रहा है। बेशक, ऐसा नहीं है कि इन सभी हलकों के सुझाव एकदम एक जैसे हों। फिर भी, वे सभी उस सच्चाई को पहचान रहे हैं, जो मोदी सरकार को छोड़कर बाकी सब को ही दिखाई दे रही है। यह सच्चाई इस में निहित है कि आज हमारी अर्थव्यवस्था की समस्या की असली जड़, जनता के हाथों में क्रय शक्ति की कमी है और इस समस्या को दूर करने का एक ही उपाय है कि, जनता को नकदी हस्तांतरण महैया कराए जाएं। इसके विपरीत, इस सरकार के अर्थशास्त्री इस तरह के बेतुके दावे कर रहे हैं कि जनता के हाथों में क्रय शक्ति देने का कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि इससे उपभोग पर उनके खर्चे में तो कोई बढ़ोतरी होगी ही नहीं!
इतना ही ध्यान खींचने वाला तथ्य यह है कि कोटक महेंद्रा बैंक के मालिक, उदय कोटक ने इस तरह के हस्तांतरणों के लिए सिर्फ राजकोषीय घाटे को बढ़ाने की ही मांग नहीं की है बल्कि इसके लिए नोट छापने की भी बात कही है, जो ऐसी चीज है जिसके संबंध में तो रूढ़िवादी अर्थशास्त्री कभी सोच भी नहीं सकते हैं। इस तरह के रुख की तुलना जरा सरकार के रुख से कर के देखें, जिसका बयान उसने सुप्रीम कोर्ट में दिए गए अपने एक एफीडेविट में किया है। इस ऐफीडेविट में सरकार ने कहा है कि कोविड-19 से हुई मौतों के लिए अनुकंपा भुगतान करने के लिए उसके पास पैसे ही नहीं हैं।
अगर हम केंद्र सरकार के आंकड़ों से ही चलें और इन आंकड़ों को अपडेट भी कर लें, तब भी कोविड-19 के चलते जान गंवाने वालों की संख्या 4 लाख से ज्यादा नहीं बैठेगी। 4 लाख प्रति मृतक के हिसाब से, इन मौतों का कुल मुआवजा 16,000 करोड़ रुपये बैठता है। जो सरकार, सेंट्रल विस्टा जैसी आडंबरपूर्ण, गैर-जरूरी तथा घोर कलाभंजक परियोजना पर 20,000 करोड़ रुपये खर्च करने के लिए तैयार है, उसके पास कोविड के शिकार हुए लोगों के परिवारों को देने के लिए कोई पैसा ही नहीं है–इससे इस सरकार की नैतिक प्राथमिकताओं के बारे में बहुत कुछ पता चल जाता है।
लेकिन, यहां प्रासंगिक नुक्ता यह है कि उदय कोटक जैसा बैंकर तक, यह मानता है कि सरकार के अतिरिक्त नोट छापने में कुछ भी गलत नहीं है। दूसरे शब्दों में सरकार यह दावा कि उसके पास अनुकंपा भुगतान करने के लिए कोई पैसा नहीं है, पूंजीपतियों तक के गले नहीं उतर रहा है।
नकदी हस्तांतरण की जरूरत पूंजीपति भी देख सकते हैं
ऐसा नहीं है कि पूंजीपतियों के दिलों में अचानक जनता के लिए बड़ा प्यार उमड़ आया है। बात सिर्फ इतनी है कि वे इतने जमीन पर रहने वाले तथा यथार्थवादी हैं कि वे इस सच्चाई को देख सकते हैं कि अर्थव्यवस्था में नयी जान डालने के लिए, जनता के हक में नकदी हस्तांतरण जरूरी हैं।
मोदी द्वारा जिस रूढ़िपंथी अर्थशास्त्र को पेश किया जा रहा है, उसकी दरिद्रता ठीक इसी चीज में है: इसका यह मानना है कि अर्थव्यवस्था में नयी जान डालने के लिए, जनता के हाथों में क्रय शक्ति को बढ़ाने की नहीं बल्कि उसे घटाने की जरूरत है। इसकी तर्क शृंखला इस प्रकार चलती है: आर्थिक बहाली के लिए या तो सरकारी खर्चे में किसी बढ़ोतरी की ही जरूरत नहीं है या मुख्यत: ढ़ांचागत निवेश पर होने वाले खर्चों में ही बढ़ोतरी होनी चाहिए। चूंकि राजकोषीय घाटे को नियंत्रित रखना जरूरी है और पूजीपतियों पर कर लगाया ही नहीं जा सकता है (उल्टे उन्हें तो प्रोत्साहन देने की जरूरत है), सरकारी खर्चों में कोई भी बढ़ोतरी की जाती है, तो उसके लिए वित्त व्यवस्था मजदूरों की कीमत पर ही करनी होगी। यह करने का बेहतरीन उपाय है, अप्रत्यक्ष करों को बढ़ाना।
इस सोच में स्वत: स्पष्ट गलती यह है कि अगर सरकार के खर्चों में बढ़ोतरी की भरपाई, मजदूरों पर कर का बोझ बढ़ाने से की जाती है, तो चूंकि मजदूर अपनी करीब-करीब सारी आय का उपभोग करते हैं, सकल मांग में शुरू से बढ़ोतरी बहुत ही कम रहने जा रही है। इसलिए, सरकार के खर्चे में जो बढ़ोतरी होने जा रही है, उसे मजदूरों के उपभोग में कमी से पैदा होने वाली मांग की कमी निष्प्रभावी बना रही होगी। इन हालात में अर्थव्यवस्था में कोई नयी जान पडऩे वाली नहीं है।
इसके अलावा, चूंकि जनता को अप्रत्यक्ष करों के जरिए निचोड़ा जा रहा है, कीमतों में बढ़ोतरी हो रही है। अतिरिक्त कर वसूली से संचालित इस महंगाई के चलते, वास्तविक खर्च के पहले वाले स्तर को बनाए रखने के लिए भी, सरकार को रुपयों में अपने खर्च में बढ़ोतरी करनी होती है और पूंजीपतियों को भी ऐसी ही बढ़ोतरी करनी होती है। मजदूर ही हैं, जो रुपयों में अपना खर्च भी बढ़ा नहीं सकते हैं और ठीक इसी तरह से उन्हें निचोड़ा जा रहा होता है। इसलिए सरकार को, वह जो अतिरिक्त खर्च करना चाहती है, उतना खर्च मूल कीमतों पर करने के लिए, उससे कहीं ज्यादा अतिरिक्त अप्रत्यक्ष कर राजस्व की जरूरत होगी और इसका मतलब यह है कि शुरूआत में जितना आवश्यक लगता है, उससे भी ज्यादा महंगाई का सहारा लिया जा रहा होगा। इसलिए, इस उपाय से अर्थव्यवस्था के विस्तार के लिए शून्य उत्प्रेरण ही मिलता है, जबकि उल्लेखनीय मुद्रास्फीति पैदा हो जाती है।
अर्थव्यवस्था के लिए कोई उत्प्रेरण नहीं
भारतीय, अर्थव्यवस्था में ठीक यही हो रहा है। सरकारी खर्च से अर्थव्यवस्था को शायद ही कोई उत्प्रेरण मिल रहा है। लेकिन, इसके लिए वित्त जुटाने का जो तरीका अपनाया गया है उससे यानी सबसे बढक़र पेट्रालियम उत्पादों पर अप्रत्यक्ष कर बढ़ाए जाने से, जिससे देश के अधिकांश हिस्सों में पेट्रोल की कीमतें 100 रुपये से भी ऊपर निकल गयी हैं। मुद्रास्फीति भडक़ उठी है, जिसकी मार सब से बढक़र गरीबों पर ही पड़ती है। अगर सरकार, अप्रत्यक्ष करों के जरिए मजदूरों को निचोडऩे के जरिए, अर्थव्यवस्था में नयी जान डालने की मरीचिका के पीछे भागती रहेगी, तो मुद्रास्फीतिकारी प्रक्रिया तो बनी रहेगी, लेकिन अर्थव्यवस्था में कोई नयी जान पडऩे वाली नहीं है।
अब इसकी तुलना एक वैकल्पिक नीति से कर के देखें। मान लीजिए कि सरकार एक निश्चित राशि, मान लीजिए की 100 रुपये की राशि, गरीबों को हस्तांतरित करती है। चूंकि गरीब जितना भी कमाते हैं, उसका करीब-करीब पूरा ही उपभोग कर लेते हैं, यह पूरी की पूरी राशि वे मालों व सेवाओं को खरीदने पर खर्च कर रहे होंगे। अब अगर हम सरलता के लिए यह मान लें कि पूंजीपति, अपनी अतिरिक्त आय में से उपभोग पर कुछ भी खर्च नहीं करते हैं और उत्पाद में उनका हिस्सा आधा होता है, तो खर्च के विभिन्न चक्रों से होते हुए, गुणनकारी कारक के चलते, उक्त खर्च से अर्थव्यवस्था में कुल 200 रुपये की मांग पैदा हो रही होगी। इससे, 200 रुपये के अतिरिक्त मालों व सेवाओं का उत्पादन भी हो रहा होगा और कीमतों में कोई बढ़ोतरी भी नहीं हो रही होगी क्योंकि अर्थव्यस्था में पहले ही उत्पादन क्षमता ठाली पड़ी हुई है। हम जो मानकर चले हैं उसके हिसाब से, इसमें मुनाफों का हिस्सा आधा होगा यानी इस अतिरिक्त उत्पाद में से 100 रुपये अतिरिक्त मुनाफों के रूप में होंगे और हम जो मानकर चले हैं उसी के अनुसार, यह सब का सब बचत में जाएगा।
अब अगर सरकार इस 100 रुपये के अतिरिक्त मुनाफे को कर के माध्यम से बटोर लेती है, तो (1) राजकोषीय घाटे में कोई बढ़ोतरी नहीं होगी ; (2) इस प्रक्रिया की शुरूआत की तुलना में निजी संपदा में भी कोई बढ़ोतरी नहीं होगी क्योंकि अतिरिक्त संपदा बनने वाली अतिरिक्त बचतों को सरकार कर के जरिए अपने हाथ में ले रही होगी और इसलिए संपदा के वितरण में कोई अतिरिक्त गिरावट नहीं आएगी; (3) मजदूरों की स्थिति में सुधार होगा, शुरूआती हस्तांतरण के चलते भी और रोजगार में बढ़ोतरी के चलते भी; और (4) इस आर्थिक विस्तार कार्यक्रम के फलस्वरूप, कोई मुद्रास्फीति भी पैदा नहीं होगी।
इसलिए, रूढ़िपंथी आर्थिक नीति के विपरीत, जो मजदूरों की हालत बदतर बनाने के साथ मुद्रास्फीति को उन्मुक्त करती है और आर्थिक बहाली के लिए किसी भी काम की नहीं है, पूंजीपतियों पर कर लगाने के जरिए मजदूरों के पक्ष में हस्तांतरण करने पर आधारित वैकल्पिक नीति, मुद्रास्फीति पैदा किए बिना ही, आर्थिक बहाली हासिल करती है। और चूंकि पूंजीपतियों पर लगाए जाने वाले कर के जरिए भी उनके हाथों में इस प्रक्रिया में आने वाले अतिरिक्त मुनाफे को ही बटोरा जा रहा होगा, वे भी इस प्रक्रिया के शुरू होने से पहले की स्थिति के मुकाबले किसी तरह से नुकसान में नहीं रहेंगे। रूढ़िपंथी आर्थिक नीति का बेतुकापन अब तो पूंजीपतियों को भी दिखाई देने लगा है, बस मोदी सरकार को ही दिखाई नहीं दे रहा है।
Translated by राजेंद्र शर्मा सौज- न्यूजक्लिक
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