इंदिरा गांधी और आचार्य विनोबा भावे को लिखे देवरस के पत्रों से यह तो जाहिर होता ही है कि आरएसएस आधिकारिक तौर पर आपातकाल विरोधी संघर्ष में शामिल नहीं था। हाल ही में आपातकाल की 46वीं बरसी के मौके पर कई लोगों ने मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए भारतीय लोकतंत्र के उस त्रासद और शर्मनाक कालखंड को अलग-अलग तरह से याद किया। याद करने वालों में ऐसे तो हैं ही जो आपातकाल के दौरान पूरे समय जेल में रहे थे या भूमिगत रहते हुए आपातकाल और तानाशाही के खिलाफ संघर्ष में जुटे हुए थे। मगर आपातकाल को उन लोगों ने भी बढ़-चढ़कर याद किया, जो अपनी गिरफ्तारी के चंद दिनों बाद ही माफीनामा लिखकर जेल से बाहर आ गए थे, ठीक उसी तरह, जिस तरह विनायक दामोदर सावरकर अंग्रेजों से माफी मांग कर जेल से बाहर आए थे।
आपातकाल को याद करते हुए कांग्रेस को कोसने वालों में वे लोग भी शामिल हैं जो जेल जाने से बचने के लिए रातोंरात अपनी राजनीतिक पहचान बदल कर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी की जय-जयकार करने लगे थे। सरकार से माफी मांग कर जेल से बाहर आने वालो ने अपने माफीनामे में तत्कालीन इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय और संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करते हुए वादा किया था कि वे भविष्य में किसी भी तरह की राजनीतिक गतिविधियों में शामिल नहीं होंगे। ऐसा करने वालों में ज्यादातर लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस और तत्कालीन जनसंघ यानी आज की भाजपा से जुड़े हुए थे।
पिछले सात वर्षों के दौरान अपने क्रिया-कलापों के जरिए आपातकाल को बहुत पीछे छोड़ चुके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने भी उस आपातकाल को याद करते हुए कहा कि वह दौर कभी भुलाया नहीं जा सकता। हालांकि मोदी और शाह न तो उस दौर में जेल गए थे और न ही आपातकाल विरोधी किसी संघर्ष से उनका कोई जुड़ाव था। अमित शाह की तो उस समय उम्र ही 10-12 वर्ष के आसपास रही होगी।
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ”आपातकाल के दौरान हमारे देश ने देखा कि किस तरह संस्थाओं का विनाश किया गया। हम संकल्प लेते हैं कि हम भारत की लोकतांत्रिक भावना को मजबूत करने का हर संभव प्रयास करेंगे और हमारे संविधान में निहित मूल्यों पर खरा उतरने की कोशिश करेंगे।’’
इसी तरह गृह मंत्री अमित शाह ने भी कहा कि कांग्रेस ने देश पर आपातकाल थोप कर संसद और न्यायालय को मूकदर्शक बना दिया था। आपातकाल की बरसी के मौके पर अमित शाह के नाम से कुछ अखबारों में लेख भी छपे हैं, जिनमें दावा किया गया है कि भाजपा ही देश में एक मात्र ऐसी पार्टी है जो लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखती है और देश मे लोकतंत्र इसलिए बचा हुआ है, क्योंकि आज सरकार चला रहे नेता उन लोगों में से हैं, जिन्होंने आपातकाल के खिलाफ दूसरी आजादी की लड़ाई लड़ी थी।
हालांकि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के दावों के बरअक्स संसद, न्यायपालिका और चुनाव आयोग सहित विभिन्न संस्थानों की पिछले सात वर्षों के दौरान किस कदर दुर्गति हुई है, संविधान को किस कदर नजरअंदाज किया जा रहा है और असहमति की आवाजों का कितनी निर्ममता से दमन किया जा रहा है, यह सब एक अलग बहस का विषय है
बहरहाल अमित शाह का यह दावा पूरी तरह हास्यास्पद है कि देश मे लोकतंत्र इसलिए बचा हुआ है, क्योंकि आज सरकार चला रहे नेता उन लोगों में से हैं, जिन्होंने आपातकाल के खिलाफ दूसरी आजादी की लड़ाई लड़ी थी। वैसे तो उनके इस दावे को फर्जी साबित करने वाले कई तथ्य सरकारी और गैर सरकारी दस्तावेज में दर्ज भी है, लेकिन यहां सिर्फ आरएसएस के तीसरे और तत्कालीन सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस उर्फ बाला साहब देवरस के उन पत्रों का उल्लेख करना ही पर्याप्त होगा, जो उन्होंने आपातकाल लागू होने के कुछ ही दिनों बाद जेल मे रहते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और सर्वोदयी चिंतक आचार्य विनोबा भावे को लिखे थे। उन्होंने यरवदा जेल से इंदिरा गांधी को पहला पत्र 22 अगस्त, 1975 को लिखा था, जिसकी शुरुआत इस तरह थी:
”मैंने 15 अगस्त, 1975 को रेडियो पर लाल क़िले से राष्ट्र के नाम आपके संबोधन को यहां कारागृह (यरवदा जेल) मे सुना था। आपका यह संबोधन संतुलित और समय के अनुकूल था। इसलिए मैंने आपको यह पत्र लिखने का फ़ैसला किया।’’
इंदिरा गांधी ने देवरस के इस पत्र का कोई जवाब नहीं दिया। देवरस ने 10 नवंबर, 1975 को इंदिरा गांधी को एक और पत्र लिखा। इस पत्र की शुरुआत उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ दिए गए फैसले के लिए इंदिरा गांधी को बधाई के साथ की। हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनाव में भ्रष्ट साधनों के उपयोग का दोषी मानते हुए प्रधानमंत्री पद के अयोग्य क़रार दिया था। देवरस ने अपने इस पत्र मे लिखा- ”सुप्रीम कोर्ट के पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने आपके चुनाव को वैध घोषित कर दिया है, इसके लिए आपको हार्दिक बधाई।’’
गौरतलब है कि लगभग सभी विपक्षी दलों और कई जाने-माने तटस्थ विधिवेत्ताओं का दृढ मत था कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कांग्रेस सरकार के दबाव में दिया गया था। देवरस ने अपने इस पत्र में यहाँ तक कह दिया- ”सरकार ने अकारण ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम गुजरात के छात्र आंदोलन और जयप्रकाश नारायण के बिहार आंदोलन के साथ जोड़ दिया है, जबकि संघ का इन आंदोलनों से कोई संबंध नहीं हैं…।’’
चूंकि इंदिरा गांधी ने देवरस के इस पत्र का भी जवाब नहीं दिया। लिहाजा आरएसएस प्रमुख और जनसंघ के आध्यात्मिक तथा राजनीतिक प्रेरणा पुरुष देवरस ने विनोबा भावे से संपर्क साधा, जिन्होंने आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ की संज्ञा देते हुए उसका समर्थन किया था। देवरस ने दिनांक 12 जनवरी, 1976 को लिखे अपने पत्र मे विनोबा भावे से आग्रह किया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगा प्रतिबंध हटाए जाने के लिए वे इंदिरा गाँधी को सुझाव दें।
विनोबा भावे ने भी देवरस के पत्र का जवाब नहीं दिया। हताश देवरस ने विनोबा को एक और पत्र लिखा। उन्होंने इस पत्र में लिखा- ”अख़बारों में छपी सूचनाओं के अनुसार प्रधानमंत्री (इंदिरा गांधी) 24 जनवरी को वर्धा, पवनार आश्रम में आपसे मिलने आ रही हैं। उस समय देश की वर्तमान परिस्थिति के बारें में उनकी आपके साथ चर्चा होगी। मेरी आपसे याचना है कि प्रधानमंत्री के मन में आरएसएस के बारे में जो ग़लत धारणा घर कर गई हैं, आप कृपया उसे हटाने की कोशिश करें, ताकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगा प्रतिबंध हटाया जा सके और जेलों मे बंद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग रिहा होकर प्रधानमंत्री के नेतृत्व में देश की प्रगति के लिए सभी क्षेत्रों में अपना योगदान कर सकें।’’
विनोबा जी ने देवरस के इस पत्र का भी कोई जवाब नहीं दिया। यह भी संभव है कि दोनों ही पत्र विनोबा जी तक पहुंचे ही न हों। जो भी हो, इंदिरा गांधी और विनोबा जी को लिखे गए ये सभी पत्र देवरस की पुस्तक ‘हिंदू संगठन और सत्तावादी राजनीति’ में परिशिष्ट के तौर पर शामिल हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन जागृति प्रकाशन, नोएडा ने किया है।
बहरहाल, इंदिरा गांधी और आचार्य विनोबा को लिखे देवरस के पत्रों से यह तो जाहिर होता ही है कि आरएसएस आधिकारिक तौर पर आपातकाल विरोधी संघर्ष में शामिल नहीं था। यह बात महाराष्ट्र विधानसभा के पटल पर रखे गए दस्तावेजों से भी जाहिर होती है, जिनके मुताबिक देवरस ने इंदिरा गांधी और विनोबा भावे को पत्र लिखने से पहले राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री शंकरराव चह्वाण को भी इसी तरह का पत्र जुलाई 1975 में लिखा था। चह्वाण ने उनके पत्र का औपचारिक तौर पर तो कोई जवाब नहीं दिया था लेकिन अनौपचारिक तौर पर उन्हें संदेश भिजवाया था कि सामूहिक माफी तो संभव नहीं है, अलबत्ता स्थानीय और निजी स्तर पर अलग-अलग माफीनामे भरे जाएं तो सरकार उन पर विचार कर सकती है।
इस प्रकार संगठन के स्तर पर आपातकाल का समर्थन करने और सरकार को सहयोग देने की देवरस की औपचारिक पेशकश जब बेअसर साबित हुई तो आरएसएस के जो कार्यकर्ता गिरफ्तार कर लिए गए थे, उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर माफीनामे देकर जेल से छूटने का रास्ता अपनाया। जेल से बाहर आने की छटपटाहट सिर्फ सिर्फ संघ के कार्यकर्ताओं में ही नहीं थी बल्कि जनसंघ के कई नेता भी जेल से बाहर आने के लिए कसमसा रहे थे।
भाजपा की नैतिकता के प्रथम पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी खुद अपने स्वास्थ्य के आधार पर इलाज के बहाने जेल से कुछ ही सप्ताह बाद पैरोल पर रिहा हो गए थे। जेल से बाहर आने के बाद वे कुछ दिनों तक अस्पताल में रहे और बाकी पूरे आपातकाल के दौरान दिल्ली में फिरोजशाह रोड स्थिति अपने सरकारी आवास पर रहे। इस दौरान वे अक्सर कभी कनॉट प्लेस में प्लाजा और रीगल सिनेमा में फिल्में देखने और बंगाली मार्केट चाट और मिठाई खाने जाते थे।
1976 में जब पांचवीं लोकसभा का कार्यकाल खत्म हुआ तो इंदिरा गांधी ने लोकसभा की अवधि एक वर्ष के लिए बढा कर उसका कार्यकाल छह साल कर दिया था। इंदिरा गांधी के इस अनैतिक, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक फैसले के खिलाफ जयप्रकाश नारायण ने विपक्षी दलों के सभी लोकसभा सदस्यों से इस्तीफा देने की अपील की थी, लेकिन उनकी उस अपील पर सोशलिस्ट पार्टी के दो सांसदों मधु लिमये और शरद यादव ने ही जेल से अपना इस्तीफा लोकसभा अध्यक्ष को भेजा था। उस लोकसभा में अटल बिहारी वाजपेयी सहित जनसंघ के 23 सदस्य थे, लेकिन उनमें से किसी ने भी इस्तीफा नहीं दिया था और वे सभी जेल में या जेल से बाहर रहते हुए सांसद के रूप में मिलने वाला वेतन और भत्ते लेते रहे।
आरएसएस और जनसंघ के जो लोग व्यक्तिगत माफीनामे भरकर जेल से बाहर आए थे उनमें से भी बहुत आज अपने-अपने प्रदेशों में राज्य सरकार से मीसाबंदी के नाम पर 10 से 25 हजार रुपए तक की मासिक पेंशन लेकर डकार रहे हैं। पेंशन लेने वालों में कई तो सांसद, विधायक और मंत्री भी हैं। ऐसे भी कई लोग हैं जो आपातकाल के दौरान जेल तो दूर, पुलिस थाने तक भी नहीं गए थे लेकिन वे अपने जेल जाने के फर्जी दस्तावेज पेश कर मीसाबंदी की पेंशन ले रहे हैं।
आपातकाल के दौरान आरएसएस जनसंघ के कई कार्यकर्ता तो इतने ‘बहादुर’ निकले कि उन्होंने आपातकाल लगते ही गिरफ्तारी से बचने और अपनी राजनीतिक पहचान छुपाए रखने के लिए अपने घरों में दीवारों पर टंगी हेडगेवार, गोलवलकर और सावरकर की तस्वीरें भी उतार कर उनके स्थान पर महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और संजय गांधी की तस्वीरें लटका ली थीं। ऐसे लोगों ने अपनी मूल राजनीतिक पहचान तब तक जाहिर नहीं होने दी थी, जब तक कि लोकसभा के चुनाव नहीं हो गए थे और केंद्र में जनता पार्टी की सरकार नहीं बन गई थी। इस तरह के तमाम लोगों ने भी आपातकाल को उसकी 46वीं बरसी पर याद करते हुए सोशल मीडिया पर बड़ी शान से बताया कि वे भी आपातकाल विरोधी संघर्ष में शामिल थे।
आपातकाल के दौरान जो लोग माफीनामे लिख कर जेल जाने से बचे थे या जेल से छूटे थे, उनसे संबंधित दस्तावेज और संघ प्रमुख देवरस के इंदिरा गांधी तथा विनोबा जी को लिखे पत्र शाह आयोग के समक्ष भी गवाहियों के तौर पर पेश किए गए थे। यह आयोग जनता पार्टी की सरकार ने आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों की जांच के लिए सुप्रीम के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जेसी शाह की अध्यक्षता में गठित किया था। ऐसे सभी दस्तावेज अगर योजनापूर्वक नष्ट नहीं कर दिए गए हों तो आज भी आज गृह मंत्रालय की फाइलों में दबे हो सकते हैं।
(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।) सौज- न्यूजक्लिक