यूपी में निराशा-जनित उत्तेजना से ग्रस्त भाजपा नेतृत्व का चुनाव अभियान बहुसंख्यक वोटों के ध्रुवीकरण का अभियान है। किसान आंदोलन का ज्यादा प्रभाव प्रदेश के पश्चिमी और तराई इलाके में है।विपक्ष में सपा-आरएलडी और कुछ अन्य छोटी पार्टियों का गठबंधन बसपा और कांग्रेस से ज्यादा मजबूत स्थिति में है। ज्यादातर अल्पसंख्यक मतदाताओं का झुकाव सपा-आरएलडी गठबंधन की तरफ है।उत्तराखंड में भाजपा सरकार के खिलाफ सत्ता-विरोधी लहर और अस्थिरता कांग्रेस के पक्ष में प्रमुख कारक हैं।गोवा में कांग्रेस का गोवा फॉरवर्ड पार्टी के साथ गठबंधन है। गोवा में भाजपा के ही लोग कह रहे हैं, ‘भाजपा को बचाना है तो भाजपा को हराना है।’ मणिपुर में भी कांग्रेस की स्थिति भाजपा के मुकाबले मजबूत बताई जाती है।
“लोगों ने सांप्रदायिक वैमनस्य के ऊपर भाईचारे और विकास की हवाई बातों के ऊपर ठोस मुद्दों को तरजीह दी”
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का सत्ता की राजनीति और विचारधारा की राजनीति दोनों पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। राजनीतिक पार्टियों, जनसंचार माध्यमों और नागरिक विमर्श में इन चुनावों के सत्ता की राजनीति पर पड़ने वाले प्रभावों की चर्चा ही ज्यादा हो रही है। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के स्वीकार और परवान चढ़ने के साथ भारत में जो ‘ज्ञान-कांड’ उपस्थित हुआ है, उसमें विचारधारा की राजनीति का दाना-पानी उठ-सा गया है। किसी भी देश में विचारधारा की राजनीति या राजनीतिक विचारधारा की प्राथमिक कसौटी वहां का संविधान होता है। राजनीति में हिस्सेदार वामपंथी, दक्षिणपंथी या मध्यमार्गी राजनीतिक दलों की विचारधारा को संविधान की विचारधारा को विकसित और मजबूत करके अपनी वैधता और सार्थकता हासिल करनी होती है। संविधान की कला में निष्णात नेता और कानून-निर्माता ही यह कर सकते हैं।
भारत में अब ऐसा नहीं है। सभी दलों के घोषणापत्र जारी हो चुके हैं, चुनावों में किसी भी दल ने भयावह आर्थिक विषमता और बेरोजगारी के बावजूद नवउदारवादी नीतियों की समीक्षा करने की बात नहीं कही है। पांच राज्यों के चुनाव इस तथ्य की समवेत गवाही हैं कि नए भारत का निर्माण संविधान की विचारधारा के ऊपर थोपी गई नवउदारवादी विचारधारा को तेजी से आगे बढ़ाने से होगा।
सत्ता की राजनीति कमोबेश सांप्रदायिक और जाति गोलबंदी के आधार पर चलती है। ये चुनाव भी अपवाद नहीं हैं। इन चुनावों के सत्ता की राजनीति पर पड़ने वाले प्रभावों की फेहरिस्त लंबी है, जो इस साल जुलाई में होने वाले राष्ट्रपति पद के चुनाव से लेकर 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों तक फैली है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को 2024 के लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल बताया जा रहा है। परिणाम विपक्ष की राजनीति को तो प्रभावित करेंगे ही, राज्य के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के राजनीतिक भविष्य पर भी प्रभाव डालेंगे। इसीलिए तीनों ने यह चुनाव जीतने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है।
यूपी में निराशा-जनित उत्तेजना से ग्रस्त भाजपा नेतृत्व का चुनाव अभियान बहुसंख्यक वोटों के ध्रुवीकरण का अभियान है। किसान आंदोलन का ज्यादा प्रभाव प्रदेश के पश्चिमी और तराई इलाके में है। लेकिन मध्य और पूर्वी यूपी के किसान भी आंदोलन और उसकी जीत से अप्रभावित नहीं रहे हैं। किसान एक बड़े समूह के रूप में भाजपा से खफा हुए हैं। भाजपा को इसका चुनावी नुकसान हुआ है। इसके स्पष्ट संकेत पहले तथा दूसरे चरण के मतदान से मिलते हैं। यह स्पष्ट हो गया है कि लोगों ने सांप्रदायिक वैमनस्य के ऊपर भाईचारे और विकास की हवाई बातों के ऊपर ठोस मुद्दों को तरजीह दी है।
विपक्ष में सपा-आरएलडी और कुछ अन्य छोटी पार्टियों का गठबंधन बसपा और कांग्रेस से ज्यादा मजबूत स्थिति में है। ज्यादातर अल्पसंख्यक मतदाताओं का झुकाव सपा-आरएलडी गठबंधन की तरफ है। काफी संख्या में पिछड़े मतदाता भाजपा छोड़ सपा से जुड़े हैं। लेकिन मायावती की अवसरवादी, धनवादी और भाजपा परस्त राजनीति ने दलित आंदोलन की ताकत को बहुत हद तक नष्ट कर दिया है। लिहाजा, दलित वोटों में बिखराव नजर आता है। दलित बसपा के अलावा भाजपा के साथ भी हैं और गठबंधन के भी। कांग्रेस की महिला मतदाताओं का आधार खड़ा करने की रणनीति से चुनाव में फायदे की उम्मीद नहीं है।
उत्तराखंड में भाजपा सरकार के खिलाफ सत्ता-विरोधी लहर और अस्थिरता कांग्रेस के पक्ष में प्रमुख कारक हैं। भाजपा के साथ कांटे की लड़ाई में कांग्रेस जीत सकती है। पंजाब में किसान आंदोलन के समर्थन का फायदा सबसे ज्यादा कांग्रेस को हो सकता था। लेकिन पिछले दिनों नेतृत्व-परिवर्तन के दौरान पैदा हुई कटुता, वरिष्ठ नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह का भाजपा के साथ गठबंधन, किसान संगठनों की नई पार्टी द्वारा सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारना, संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) में बैठे आम आदमी पार्टी समर्थक और रेडिकल तत्वों की आप के साथ एकजुटता ने वह फायदा कांग्रेस से छीन लिया। इसीलिए ‘रंगीले’ बाबा राम रहीम को जेल से छोड़ा गया है, ताकि वे अनुयायियों को पंजाब लोक कांग्रेस-भाजपा गठबंधन को वोट देने का निर्देश दे सकें। कांग्रेस ने दलित वोटों को अपने पाले में करने की कोशिश के तहत चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया। पंजाब में सबसे अधिक दलित वोट हैं लेकिन कांग्रेस की आप, अकाली दल-बसपा गठबंधन, संयुक्त समाज मोर्चा, सीपीआइ-सीपीएम से टक्कर है।
गोवा में कांग्रेस का गोवा फॉरवर्ड पार्टी के साथ गठबंधन है। गोवा में भाजपा के ही लोग कह रहे हैं, ‘भाजपा को बचाना है तो भाजपा को हराना है।’ दल-बदल से त्रस्त कांग्रेस ने उम्मीदवारों को मंदिर, चर्च और मस्जिद में शपथ दिलवाई! मणिपुर में भाजपा का गठबंधन नहीं है। कांग्रेस का सीपीआइ, सीपीएम, फॉरवर्ड ब्लॉक, आरएसपी, जेडी (एस) के साथ गठबंधन है। मणिपुर में भी कांग्रेस की स्थिति भाजपा के मुकाबले मजबूत बताई जाती है। ममता बनर्जी सपा-आरएलडी गठबंधन के समर्थन में लखनऊ आईं। उत्तर प्रदेश में भाजपा की सीटें साधारण बहुमत से घटती हैं तो 2024 के लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी द्वारा प्रस्तावित कांग्रेस से अलग भाजपा-विरोधी मोर्चे की संभावना को बल मिलेगा। अगर सपा-आरएलडी गठबंधन सरकार बना लेता है, तो इस दिशा में खासी तेजी आ सकती है। अगर कांग्रेस उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में सरकार बना लेती है और पंजाब में अच्छा प्रदर्शन करती है, तो विपक्ष की राजनीति में उसकी स्थिति मजबूत होगी। लेकिन अगर उत्तर प्रदेश में भाजपा की पूर्ण बहुमत से सरकार बनती है, तो 2024 के चुनावों में कांग्रेस की स्थिति बेहद कमजोर होगी।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे हैं। विचार निजी हैं) सौज- आउटलुक