विघटनकारी विचारधारा के पैरोकार उपासना स्थल अधिनियम की तुलना कृषि कानूनों से कर रहे हैं. यह अधिनियम इसलिए बनाया गया था ताकि देश की सांझा विरासत को सुरक्षित रखते हुए समाज की ऊर्जा का इस्तेमाल भविष्य के निर्माण के लिए किया जा सके. हमारी गंगा-जमुनी तहजीब भी बनी रहे और हम एक उन्नत राष्ट्र भी बन सकें.
ज्ञानवापी मस्जिद में पूजा करने के अधिकार की मांग करते हुए पांच महिलाओं द्वारा अदालत में प्रकरण दायर करने के बाद से पूरे देश में अतीत से जुड़े कई मुद्दे और विवाद सार्वजनिक विमर्श के केन्द्र में आ गए हैं. इस दावे के बाद कि ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण काशी विश्वनाथ मंदिर को गिराकर किया गया था,अब मथुरा में कृष्णजन्मभूमि का मसला उठाया जा रहा है. ताजमहल,कुतुब मीनार,जामा मस्जिद और मुस्लिम राजाओं द्वारा निर्मित हर इमारत के बारे में नई-नई बातें कही जा रही हैं. तर्क यह दिया जा रहा है कि अयोध्या की तरह जिन-जिन स्थानों पर हिन्दू धार्मिक स्थलों को मुसलमानों द्वारा तोड़ा गया था,उनका स्वरूप बदला गया था अथवा उन पर कब्जा किया गया था,को हिन्दुओं को वापस दिलवाया जाए. यह तर्क भी सुनाई दे रहा है कि अतीत को नजरअंदाज करके भविष्य का निर्माण नहीं किया जा सकता. यह भी कहा जा रहा है कि धर्मनिरपेक्षता,भारत जैसे देश के लिए उपयुक्त नीति नहीं है क्योंकि हमें धर्मनिरपेक्षता से ज्यादा सत्य और न्याय की जरूरत है. यह भी कहा जा रहा है कि अतीत को मृत नहीं माना जा सकता और यह भी कि उपासना स्थल अधिनियम 1991 में 15 अगस्त 1947 की कट ऑफ तारीख पीड़ितों (हिन्दूओं) के साथ विचार-विमर्श के बगैर निर्धारित की गई है. ऐसा लग रहा है कि यह सब 6 दिसंबर 1992 के वाराणसी में रीप्ले की तैयारी का हिस्सा है.
ऊपर उल्लेखित तर्कों में से कोई भी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सिद्धांतों और मूल्यों,भारतीय संविधान के प्रावधानों और अतीत की तार्किक समझ से मेल नहीं खाते. उपासना स्थल अधिनियम की निंदा की जा रही है और उसे मनमाना बताया जा रहा है. भारत का लंबा इतिहास है परंतु “उसने हमारा धर्मस्थल तोड़ा था तो हम उसका धर्मस्थल तोड़ेंगे” की विचारधारा कुछ दशक पुरानी ही है. इस सोच को दक्षिणपंथियों द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है. भारतीय इतिहास का मध्यकाल,जिसमें अनेक मुस्लिम राजाओं ने देश पर शासन किया,को हिन्दुओं के दमन और उन पर अत्याचारों का काल बताया जा रहा है. हिन्दू बनाम मुसलमान प्रतिंद्वद्विता को इस तरह प्रचारित किया जा रहा है मानो ये दोनों समुदाय हमेशा से एक-दूसरे के खून के प्यासे रहे हों. देश का सबसे शक्तिशाली राजनैतिक संगठन और उससे जुड़े समूह अनवरत प्रचार द्वारा लोगों को यह समझाने में सफल रहे हैं कि मुस्लिम राजा इस्लामिक श्रेष्ठतावादी थे,जिन्होंने हिन्दुओं के मंदिर तोड़े और उन्हें जबरन मुसलमान बनाया. इस नकली आख्यान के चलते देश की असली समस्याओं पर चर्चा नहीं हो रही है.
भारत पर जिन मुस्लिम राजाओं ने शासन किया वे न तो इस्लाम का प्रसार करने भारत आए थे और ना ही उनका लक्ष्य उनके धर्म की श्रेष्ठता को स्थापित करना था. राजा,चाहे वे मुस्लिम हों या हिन्दू,शक्तिशाली जमींदारों के सहारे राज करते थे. चाहे अकबर हों या औरंगजेब,उन सभी के शासन का ढांचा अलग-अलग धर्मों के नवाबों,जमींदारों और सिपहसालारों पर टिका हुआ था. साम्राज्यों का आधार धर्म नहीं था. साम्राज्यों का आधार सामंती व्यवस्था थी. अकबर के प्रमुख सिपहसालारों में बीरबल,टोडरमल और मानसिंह शामिल थे. औरंगजेब के कम से कम एक-तिहाई दरबारी हिन्दू थे.
युद्धों का आधार भी धर्म नहीं हुआ करता था. शिवाजी ने शुरूआती लड़ाईयां चन्द्रसिंह मोरे से लड़ीं. सिक्ख गुरूओं और हिन्दू राजाओं में जमकर टकराव हुए. धार्मिक स्थलों के ध्वंस के पीछे कई कारण थे. इनमें शामिल थे संपत्ति,प्रतिद्वंद्विता और विद्रोहियों का इन स्थलों में शरण लेना.
भारतीय संस्कृति अलग-अलग धर्मों के मानने वालों की संस्कृति का मिश्रण है,जिनमें हिन्दू और मुसलमान मुख्य हैं. इस्लाम राजाओं और नवाबों के जरिए नहीं फैला यद्यपि कई राजा पराजित शासकों से इस्लाम कुबूल करने की शर्त रखते थे. बड़े पैमाने पर धर्मपरिवर्तन जातिगत दमन का नतीजा था.
यह मानना कि मुसलमानों ने हिन्दुओं का दमन किया,इतिहास की गलत समझ पर आधारित है. दरअसल गरीबों, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान,का दोनों धर्मों के जमींदारों ने शोषण किया. इसके अलावा जातिप्रथा के कारण भी नीची जातियों के हिन्दुओं को घोर दमन और शोषण का सामना करना पड़ा. डॉ. अंबेडकर भारत के इतिहास को इसी रूप में देखते हैं. उनका मानना है कि देश में बौद्ध धर्म का उदय एक क्रांति थी क्योंकि उसने जातिप्रथा की चूलें हिला दीं. इसके बाद के काल में प्रतिक्रांति हुई जिसमें बौद्धों और उनके धर्मस्थलों पर बड़े पमाने पर हमले हुए.
भारतीय समाज में यदि किन्हीं दो वर्गों के हित आपस में टकराते हैं तो वे हैं वर्चस्ववादी ऊँची जातियों के हिन्दू और अछूत (जिन्हें बाद में दलित कहा गया). बौद्धों पर हमले के पीछे भी विचारधारात्मक कारण थे. पुष्यमित्र शुंग ने तो यह घोषणा की थी कि जो भी उसके पास बौद्ध भिक्षुक का कटा हुआ लाएगा उसे वह सोने की एक मुहर इनाम में देगा. अंततः बौद्ध धर्म का उसकी जन्मभूमि से ही सफाया कर दिया गया. आजादी के आंदोलन के दौरान हमारे नेतृत्व को इस बात का अच्छी तरह से एहसास था कि भारतीयों के असली शोषक और दमनकर्ता औपनिवेशिक ब्रिटिश हैं. इसलिए उन्होंने अपनी ऊर्जा ब्रिटिश शासन के पांव उखाड़ने पर केन्द्रित की. इस दौरान भी ऊँची जातियों के वर्चस्ववादी तबके ने स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने से इंकार कर दिया. यह वर्ग ‘विदेशी’मुसलमानों को अपना असली शत्रु मानता था और हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना चाहता था. यही कारण है कि इस वर्ग को धर्मनिरपेक्षता एक ‘पश्चिमी’और ‘विदेशी’अवधारणा लगती है और वह इसके खिलाफ है. यह वर्ग राजाओं के युग की वापसी चाहता है जिसमें राजा और जमींदार धर्म के नाम पर गरीबों का खून चूसें.
भारत में जमींदार-पुरोहित गठबंधन की आधुनिकता या आधुनिक राष्ट्र-राज्य के निर्माण में कोई रूचि नहीं है. धर्मनिरपेक्षता एक सार्वभौमिक मूल्य है जिसका पालनकर्ता राज्य अपने नागरिकों को,चाहे वे किसी भी धर्म के क्यों न हो,एक निगाह से देखता है. परंतु इमारतों को ढहाने की परियोजना के संचालकों और अतीत को धरती से खोद निकालने के इच्छुक राष्ट्रवादियों को न तो बहुवाद से मतलब है और ना ही धर्मनिरपेक्षता से. उन्हें अतीत में हुए बौद्ध और जैन आराधना स्थलों के ध्वंस से भी कोई लेना-देना नहीं है. वे तो बस कुछ चुनिंदा मसले पकड़ लेते हैं और उनका ही ढोल पीटते रहते हैं.
सैकड़ों साल पहले घटी घटनाओं के लिए आज के मुसलमानों को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है. इस तरह की विघटनकारी विचारधारा से देश में नफरत और हिंसा फैल रही है और समाज का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण हो रहा है.
विघटनकारी विचारधारा के पैरोकार उपासना स्थल अधिनियम की तुलना कृषि कानूनों से कर रहे हैं. यह अधिनियम इसलिए बनाया गया था ताकि देश की सांझा विरासत को सुरक्षित रखते हुए समाज की ऊर्जा का इस्तेमाल भविष्य के निर्माण के लिए किया जा सके. हमारी गंगा-जमुनी तहजीब भी बनी रहे और हम एक उन्नत राष्ट्र भी बन सकें. जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास ने कवितावली में कहा है “तुलसी सरनाम गुलाम हौं राम कौए जाको रुचै सो कहै सब कोऊए मांग के खइबे, मसीत में सोइबे, न लेबे को एकए न देबे को दोऊ‘‘.
लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)