कहानीः जाल – अण्णाभाऊ साठे

यह वर्ष अण्णाभाऊ साठे का जन्म शताब्दी वर्ष है। अण्णाभाऊ साठे न केवल एक माक्र्सवादी कार्यकर्ता थे, बल्कि एक प्रभावशाली लोककलाकार, संगठक और साहित्यकार भी थे। उन्होंने अपने बचपन से ही जातिगत ऊँच-नीच और आर्थिक-सामाजिक विषमता को बहुत गहराई से देखा और भोगा था। वे एक ऐसे माक्र्सवादी साहित्यकार हैं, जिनकी रचनाओं में जाति-वर्ग, दोनों ही विषमताओं का तीव्र विरोध एकसाथ देखा जा सकता है। अण्णाभाऊ के कथासाहित्य के सभी चरित्र निडर, जुझारू और गतिमान होते हैं। वे बिना डगमगाये विद्रोह के लिए तनकर खड़े होते हैं और अपने उद्देश्य में सफल होते हैं।  यह श्रमशील मानव के उज्ज्वल जीवन के लिए चुना गया संघर्ष-पथ है। ‘जाल’ कहानी का हरीबा भी इसी की मिसाल है। आज पढ़ें उनकी कहानी ‘जाल’ जिसका हिन्दी अनुवाद – उषा वैरागकर आठले ने किया है।

‘महार अपनी औकात भूल गए हैं, पूरे गाँव को मिलकर उन्हें मज़ा चखाना होगा, वरना ये महार जाति आग मूतेगी।’ यह कहते हुए दादा देशमुख पूरा गाँव घूम आया।

उसने महारों के खिलाफ चिंगारी सुलगा दी थी, जो अब दावानल का रूप ले रही थी। पूरा गाँव गुस्से में पागल हो गया था। हरेक आदमी महारों को मज़ा चखाने की बात करने लगा था, ‘महार बस्ती के एक-एक तिनके को उखाड़ फेंकूँगा, या फिर मैं अपना दादा देशमुख नाम ही बदल दूँगा!’ दादा ने गरजते हुए कहा। छोटे-बड़े सभी लोग चौपाल पर इकट्ठा हो गये थे। बज्या रामोशी महारों को बुलाने के लिए उनके टोले में गया था। गाँव अब इंतज़ार कर रहा था, जैसे ही वे चौपाल पर आएंगे, उन्हें पकड़कर पीटा जाएगा।

हुआ यह था कि दादा देशमुख की हवेली पर मौत का साया मँडरा रहा था। देशमुख का एक हट्टाकट्टा बैल दो दिनों से बाड़ी में मरा पड़ा था। वह अकड़कर लोहे की तरह कड़ा हो गया था। उसकी ऑंखें कद्दू की तरह फूलकर बाहर निकल आई थीं। भँवरे जैसी बड़ी-बड़ी मक्खियों ने भिनभिनाते हुए बैल को ढँक लिया था। उस मरे हुए बैल को देखकर देशमुख के बीवी-बच्चे हलाकान हो रहे थे। डरे हुए थे। दादा भी रूऑंसा हो गया था। बैल मरने का दुख कम था, बल्कि ज्यादा दुख इस बात का था कि मरा हुआ बैल दो दिनों से हवेली में ही पड़ा हुआ था। वे बुरीतरह चिढ़े हुए थे। इस दुर्दशा के लिए गरीब महारों का कुनबा जिम्मेदार था।

महारों ने अचानक मरे हुए जानवरों को उठाना बंद कर दिया था। इसीलिए देशमुख महारों को गाली बक रहा था। उसने सबसे पहले कोटवार, दत्ता पाटील को भड़काया था। वह सबसे कहता फिर रहा था कि महारों के साथ कोई समझौता नहीं होगा, उनके साथ जूतमपैजार ही करनी होगी। ग्रामीण पुलिस का प्रतिनिधि दत्ता पाटील कानून का सहारा लेकर महारों को सज़ा दिलवाने के लिए आतुर था। उसने अपनी ऑंखें बंद कर ली थीं। वह सोच रहा था कि महारों के आने के बाद वह क्या और कैसे कहेगा! वह मन ही मन अभ्यास कर रहा था। गुणपाल शेटये उपस्थित ग्रामीणों के सामने महारों द्वारा किये गये अन्याय और उसके भावी परिणामों पर बढ़-चढ़कर बात कर रहा था। अगर महार पीछे नहीं हटे तो किसतरह समूचा गाँव भ्रष्ट होकर महारबाड़े में बदल जाएगा, इस बात को वह ज़ोर देकर बार-बार बता रहा था।

देशमुख का मरा हुआ बैल सबकी ऑंखों के सामने तैर रहा था। समूचा गाँव सहमा हुआ था। उस बैल ने सबकी बुध्दि हर ली थी। वहाँ उपस्थित हरेक व्यक्ति सोच रहा था कि उसके घर का कोई जानवर अगर गोठान में मर जाए, तो क्या होगा? अपने नुकसान की बात फिलहाल वे भूल गए थे। जानवरों को अगर महार उठाकर नहीं ले गए तो उन्हें ही उठाकर ले जाना पड़ेगा। इस विचार से वे डरे हुए थे। यही कारण था कि सबका दिमाग खराब हो गया था। वे महारों के खिलाफ हो गए थे। जानवर मरा पड़ा है, उसकी मृत देह के पास बैठकर भोजन कैसे किया जा सकता है, यह एकमात्र सवाल सभी लोगों के चेहरे पर झलक रहा था और उन्हें क्रोधित कर रहा था।

गुंडा चालका अचानक उठकर बोला, ‘देखो, इससे उनका मनोबल बढ़ेगा, वे हमारे सिर पर चढ़ेंगे। इसलिए इसका आज ही इलाज करना होगा। महारों की पिटाई …

तभी पाटील ने ऑंखें खोलकर कहा, ‘मतलब, भले ही जानवर मर जाएँ, मगर महार सिर पर नहीं बैठने चाहिए, यही न?’

‘हाँ हाँ, मैं यही कह रहा हूँ।’ चालका ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘इस पूरे गाँव में दत्ता पाटील जितना समझदार आदमी कोई नहीं है। मेरी बात को उसने तुरंत समझ लिया। आने दो महारों को, उन्हें बढ़िया मज़ा चखाते हैं।’ ‘मज़ा चखाने’ पर उसने अतिरिक्त बल दिया।

‘चखाना ही चाहिए।’ त्यौंरियाँ चढ़ाते हुए देशमुख ऊँची आवाज़ में बोला, ‘हमारे बड़े-बूढ़े कह गए हैं कि सबको अपनी-अपनी औकात में रहना चाहिए। ‘कुत्ते-बिल्ली जानवर नहीं और मांग-महार इंसान नहीं।’ मगर इन बदमाशों ने मेरे गोठान में बैल सड़वा दिया है। मेरे बाल-बच्चे डर से काँप रहे हैं। बैल का मृत शरीर कभी भी पके गूलर जैसा फट सकता है मगर उन हरामखोरों को देखो, उनकी ऑंख नहीं खुल रही…’

‘थोड़ा शांत रहो’, दत्ता पाटील ने कहा, वैसे तो मैं सभी महारों को गोली चलाकर गूलर की तरह टपका सकता हूँ, मगर मेरा बैल तो नहीं मरा है…’

उसी समय महारों को बुलाने गया हुआ बज्या रामोशी अकेला ही वापस लौटा। उसे अकेला देखकर देशमुख का पारा चढ़ गया। वह रामोशी पर फट पड़ा,

‘अरे ओ बज्या, क्या कह रहे हैं महार?’

‘आ रहे हैं।’ रामोशी ने कहा, इस पर बढ़ई ने आवाज़ दबाते हुए पूछा,

‘ए नाईक! महार लोग डर गए होंगे न?’

‘वो क्यों डरेंगे? क्या उन्होंने कहीं डाका डाला है? या सेंध मारी है?’

‘हाँ ये भी सच है!’ शंकर बढ़ई फुसफुसाया। उसकी फुसफुसाहट सुनकर पांडू नाई ने चिढ़कर पूछा,

‘क्या सच है रे शंकर? अब क्या हमारे बापदादे मरे हुए ढोरों को उठाएंगे?’

नाई की ऊँची आवाज़ सुनकर पाटील ने अपनी नज़र चारों ओर दौड़ाई। उसने धीरज बंधाते हुए कहा,

तुम लोग बेकार की बातें मत करो। चुप रहो।’

तभी सारे महार आते हुए दिखाई दिये। ग्रामीण उन्हें देखकर खुसुरपुसुर करने लगे। ख्रखारकर सम्हलकर बैठ गए। मार-पीट के लिए तैयार होने लगे। सभी की नज़रें महारों पर जम गईं। हरीबा महार को देखकर वे नज़रें चुराने लगे। महार आकर बैठ गए। गाँववाले एकदूसरे की ओर देखने लगे। पाटील, शेटये, चालका, देशमुख आदि ने सिर ऊँचा किया। खुसुरपुसुर बढ़ने लगी। हाथ उठाकर पाटील ने सब को शांत किया और बात की शुरुआत की,

‘हाँ, तो महारो! क्या कहना है तुम लोगों को? बेवजह का ये तमाशा क्यों खड़ा किया है? क्या हम गाँववाले ढोर-डंगर पालना ही बंद कर दें?’

हरीबा महार ने सहजता के साथ जवाब दिया,

‘पालिये न! जिसमें ढोर-डंगर पालने का गुर्दा हो, वे सैकड़ों में पालें! हम कौन होते हैं मना करने वाले?’

‘तू मना नहीं कर रहा है!’ पाटील ने आगे पूछा, ‘अबे सीधे बता, हमें ढोर-डंगर पालने के लिए कहता है, मगर मरे हुए ढोरों को उठाने से इंकार करता है – क्या मतलब है इसका?’

‘क्या मतलब बताऊँ!’ हरीबा ने कहा, ‘जानवर आपके, दूध आप का, बैल आपके, खेत जोतते हैं आप का, जब तक ज़िंदा हैं, चारा आप खिलाते हैं, मर जाते हैं तब हम आपको याद आते हैं?’

‘हम आपके ढोर क्यों उठाएँ…?’ बालू महार ने टोकते हुए कहा। पाटील को बीच में रोकते हुए देशमुख ने गुस्से से पूछा,

‘क्यों रे तीसमारखाँ, अगर ऐसा ही था, तो अब तक तुम लोग मरे हुए जानवर क्यों उठाते थे?’

‘उठाते थे। हम कब मना कर रहे हैं?’ हरीबा ने कहा, ‘मगर तब हमें समझ नहीं थी, अब हम समझ गए हैं…’

‘क्या समझ गया है रे सयाने?’ शेटये ने आक्रामक होकर पूछा, ‘अरे भगवान ने ही तुम लोगों को मरे ढोरों को उठाने के लिए महार जाति में जनम दिया है।’

‘अच्छा!’ हरीबा ने अपना साफा सम्हालते हुए शेटये पर धावा बोला, ‘किस भगवान ने हमें महार जाति में जनम दिया है? अगर ऐसा है तो जाओ, और उसी भगवान से कहो कि वे आकर ढोर उठाएँ। जाओ।’

‘हे भगवान! सुन रहे हो सब लोग?’ देशमुख ने चीखते हुए कहा, ‘सुन लो, यह महार कैसी उल्टी-सीधी बातें कर रहा है? हरिया, तेरी ये हिम्मत!

‘मैं सीधी बात कर रहा हूँ …’ हरीबा ने कहा। पाटील गुर्राया,

‘ऐ! सीधे मुँह बात कर!’

‘कोई बात नहीं होगी… अपने-अपने ढोर उठाओ। हम नहीं उठाएंगे।’ हरीबा ने सीधे कहा और उठकर अपनी बस्ती की ओर चलता बना। सभी महार उसके पीछे चले गए। वहाँ एकदम सन्नाटा छा गया। सब चुपचाप उन्हें जाते हुए देखते रह गए।

अब महारों की गर्मी ऐसे नहीं उतरेगी, कोई कड़ा उपाय करके ही उन्हें झुकाना पड़ेगा। उनका बहिष्कार करना पड़ेगा। उनकी नाकेबंदी करनी होगी। कोई भी महार या उनके ढोर-डंगर खेत-खलिहान में न घुसने पाए, अगर जानवर कहीं घुस जाए तो उसे कांजी हाउस में बंद कर दो। किसी भी महार को दुकान से सामान मत दो। सर्वसम्मति से यही प्रस्ताव पारित हुआ और महारों को इसतरह के जाल में फाँसने का निर्णय लेकर बैठक समाप्त हुई।

वहीं से सब लोग दादा देशमुख की हवेली पर गए। दो दिनों के अकड़े हुए बैल को देखकर योजना बनाई गई। बीस नौकरों ने मिलकर बैल को हवेली के बाहर लाया। एक बैलगाड़ी में जैसे-तैसे उसे लादा और जंगल की ओर चल पड़े। आगे दस नौकरों ने जाकर बड़ा गङ्ढा खोद कर रखा था, उसमें बैल को धकेल दिया गया। सब पसीना-पसीना हो गए थे। उन्होंने उस पर मिट्टी डाली, जैसे-तैसे गङ्ढा पाटा और चैन की साँस ली। जो काम अब तक चार महार मिलकर कर लेते थे, उसके लिए पूरे गाँव को जुटना और थकना पड़ा, तब कहीं वह बैल ठिकाने लग पाया।

गाँव की सभा से लौटकर हरी महार अपनी बस्ती में आया और उसने गंभीर स्वर में आदेश दिया,

‘केश्या, बाल्या, ज़रा कावडनी तो लाओ।’ केसू महार मरे हुए जानवर को खींचने वाली रस्सी और कावडनी ले आया। हरीबा ने फिर आदेश दिया,

‘लकड़ी काटने की कुल्हाड़ी भी लाओ।’

बालू कुल्हाड़ी ले आया। उसने पूछा, ‘ये रही कुल्हाड़ी, क्या करना है, बताइये।’

‘कावडनी को तोड़कर उसके बारीक टुकड़े कर दो।’ हरीबा के आदेश के अनुसार बालू ने कावडनी को चूर-चूर कर दिया। उसे इकट्ठा कर हरीबा ने उस ढेर में आग लगा दी। निकलने वाली लपटों में ही रस्सी को भी डालकर उसने कहा, ‘इस कावडनी से हमारे बाप-दादे जीवन भर मरे हुए ढोरों को खींचते रहे हैं। आज हमने वह कावडनी ही जला डाली। आज से मरे हुए जानवर को कोई भी हाथ नहीं लगाएगा। भले ही हम एड़ी घिसकर मर जाएँ, मगर इज्ज़त की मौत मरेंगे। आज तक मरे हुए जानवर खींचते रहे इसलिए कुत्तों जैसी ज़िंदगी जीते रहे!’

एक ओर समूचे गाँव ने देशमुख के बैल को दफनाने में मदद की और दूसरी ओर मरे हुए ढोरों को खींचने की कावडनी महारों ने हमेशा के लिए जला दी।

उस दिन के बाद समूचे गाँव की रंगत ही बदल गई। गाँव के बड़े लोग महारों को नीचा दिखाने के लिए मौके की ताक में थे। वे इंतज़ार करने लगे कि महार कब जाल में फँसते हैं! समूचे महार बस्ती पर उनकी कड़ी नज़र थी। महार भी वस्तुस्थिति समझ रहे थे। वे भी फूँक-फूँक कर कदम उठा रहे थे। वे नहीं चाहते थे कि उनसे कोई चूक हो जाए। किसी भी खेत-खलिहान में पाँव नहीं धर रहे थे। वे बहुत सावधान थे।

मगर उनके चारों ओर गाँववाले शिकंजा कसते जा रहे थे। माहौल ऐसा हो गया था कि मानों कोई भेड़िया झाड़ियों में छिपकर बैठा है और देख रहा है कि, झुंड में से कोई मेमना अलग हो जाए तो वह तुरंत उसे झपट ले। सीमा के भीतर पैर रखते ही महारों पर वे लाठी भाँजना शुरु कर देते थे। छेरी-बकरी-ढोर-डंगर जो भी सीमा के भीतर कदम रखता, उसे कांजी हाउस में ठूँस दिया जाता। जुर्माना भर-भरकर महार हलाकान हो गए। महारों और गाँववालों की दुश्मनी परवान चढ़ने लगी।

घर और खेत के बीच महारों की गतिविधियाँ अब सिर्फ सरकारी सड़कों तक सीमित रह गईं। उनके मवेशी भूखों मरने लगे। उन्होंने बस्ती में बैठक की। हरीबा को बुलाया गया। गाँव में प्रवेशबंदी से कैसे निपटा जाए, वे विचार करने लगे। सभी महार दुखी-चिंतित थे। वे हरीबा की बात सुनने के लिए आकुल हो उठे। केसू महार ने शुरुआत करते हुए पूछा,

‘हरीदादा, अब क्या किया जाए? गाँववालों ने बहुत कड़ी हदबंदी कर दी है। जीना मुश्किल हो गया है।’

हरीबा ने धीरज के साथ पूछा, ‘अगर कल से ही हम अपनी कावड लेकर गाँव के मरे हुए ढोरों को उठाना शुरु कर दें तो हमारी हदबंदी तुरंत उठा ली जाएगी। तुम लोग क्या चाहते हो? बोलो।’

‘नहीं नहीं, यह नहीं हो सकता।’ बालू बोल पड़ा। ‘आप जो निर्णय लेंगे, वही हमें मान्य होगा। आप बताइये।’

‘तो फिर सुनो’, हरीबा ने कहना शुरु किया, ‘एक बहुत बड़ा बरगद का पेड़ था। हवा ने तय किया कि उसे जड़सहित उखाड़ दिया जाए। ज़ोरदार ऑंधी-तूफान शुरु हुआ। पेड़ ने तूफान का इरादा भाँप लिया था कि अब उसका ज़िंदा रहना मुश्किल है। उसने तुरंत अपनी सभी डालियों को फेंक दिया और ठूँठ बनकर खड़ा हो गया। हवा बहुत ज़ोर से चल रही थी मगर ठूँठ का वह कुछ न बिगाड़ सकी। तो हमें इस पेड़ की तरह करना होगा। हमें भी ठूँठ की तरह खड़े रहना होगा।’

‘क्या करना होगा, बताइये।’ सब ने पूछा। हरीबा ने कहा,

‘आठ दिनों के भीतर अपनी-अपनी तमाम भेड़-बकरियाँ और जानवर बेचकर उस पेड़ की तरह मुक्त हो जाओ… उस ठूँठ की तरह।’

‘ठीक है। बुधवार को बाज़ार जाकर बेच देंगे।’ सभी ने कबूला तो हरीबा ने आगे कहा,

‘मैं कल ही तहसील जाकर सरकार से मदद माँगता हूँ।’

दूसरे दिन अलस्सुबह हरीबा तहसील जाने के लिए चल पड़ा। जब वह घर से निकला तो चारों ओर अंधेरा ही छाया हुआ था। अभी धुंधलका भी नहीं हुआ था। पूरब की ओर हल्का प्रकाश महसूस हो रहा था। आकाश और क्षितिज के बीच उजाले की एक हल्की रेखा दिखने लगी थी। बादलों में भयानक आकृतियाँ दिख रही थीं। वे धीरे-धीरे एकदूसरे से टकरा रही थीं। सड़क के किनारे लगे पेड़ पर पंछी चहचहा रहे थे। हरीबा का दिल धड़क रहा था। वह सोचने लगा कि, उसे इतनी जल्दी नहीं निकलना चाहिए था। वह आगे-पीछे देखते हुए गाँव के सीवान तक आ पहुँचा। दोनों तरफ पलाश के पेड़ों की कतारें थीं।

उस सीवान में पलाश के पेड़ों के झुंड ही झुंड थे। पारगाँव की वह बंजर भूमि पलाश के कारण प्रसिध्द थी। वह नजूल की ज़मीन थी। गुरव लोग दोने-पत्तल बनाने के लिए उस भूमि को नीलामी में लेते थे। कई गुरव उस भूमि के बलबूते साहूकार बन गए थे। वहाँ कई बार खून-खच्चर भी हुआ करता था। अनेक चोर छिपकर बैठते और यात्रियों को लूट लेते। कोई सुनवाई नहीं होती थी।

हरेक पाँच वर्षों में नीलामी हुआ करती थी।

‘खूनी सीवान’, ‘परसा का जंगल’ के नाम से वह जाना जाता था। गाँव के जानवर वहाँ चरा करते थे।

हरीबा को उस सीवान पर पहुँचते ही डर ने घेर लिया। थोड़ी दूरी पर दो आकृतियाँ दिखाई दे रही थीं। वे आपस में बातचीत करते हुए हरीबा के आगे-आगे चल रहे थे। उन्हें देखते ही हरीबा की घिग्घी बंध गई। मगर उसी समय उन्होंने हरीबा को देखकर पुकारा,

‘कौन है?’

‘मैं हरी हूँ… तुम लोग कौन हो?’

‘हम हैं। अरे आ जाओ। नारू गुरव हूँ मैं।’ नारू की आवाज़ सुनते ही हरीबा के प्राण लौटे। वह तेज़ कदमों से बढ़ते हुए उनके साथ चलने लगा। नारू और शंकर भी तहसील जा रहे थे। आज ही पारगाँव के इस परसा जंगल की सरकारी नीलामी होने वाली थी। वे दोनों गुरव उसी नीलामी के लिए नकद लेकर जा रहे थे। दो से तीन होने पर उन्हें भी राहत महसूस हुई। लूट के डर के कारण वे गाँववालों और महारों के झगड़े को भूल गए थे। हालाँकि इतनी सुबह हरीबा को देखकर उन्हें कुछ संदेह हुआ। साथ ही उसके भी तहसील जाने की बात सुनकर वे सोच में पड़ गए।

तहसील पहुँचने के बाद गुरव नीलामी की जगह की ओर चले गए और पारगाँव पर केस दायर करने के लिए हरीबा किसी अच्छे वकील को तलाशने लगा। वह ऐसा वकील चाहता था, जो उनका पक्ष समझे तथा उनके बाल-बच्चों पर लगाई गई हदबंदी को समाप्त करवाए। पूछताछ करते-करते वह अंतत: तहसीलदार की कचहरी के सामने आ पहुँचा।

उसने देखा कि पारगाँव के परसा जंगल की नीलामी उसी समय शुरु हो रही थी। अनेक गाँवों से सिर्फ गुरव लोग ही आए थे। कमर में खुँसी हुई रूपयों की थैली टटोलते हुए वे बोली लगाने के लिए तैयार थे। कौन कहाँ तक बोली को पहुँचा सकता है, इसका जायजा ले रहे थे। सरकारी बाबू लगाई गई बोली का ऑंकड़ा बार-बार दोहरा रहा था। एक गुरव ने एक सौ पाँच रूपये तक बोली को पहुँचा दिया। शेष लोग एकदूसरे को तिरछी निगाहों से देखते हुए हिम्मत बाँध रहे थे।

हरीबा भी भीड़ में खड़े होकर देखने लगा। अचानक उसके दिमाग में एक विचार आया कि क्यों न मैं ही इस नीलामी में बोली लगाकर परसा जंगल ले लूँ! सरकारी बाबू थकी आवाज़ में दोहरा रहा था, ‘एक सौ पाँच रूपये एक बार…

‘दो सौ दस रूपये!’ अचानक आवाज़ आई।

सभी गुरवों ने झटके से पलटकर देखा। अनेक जोड़ी ऑंखें हरीबा को टटोलने लगीं। हरीबा द्वारा ऑंकड़े को दुगुना कर दिये जाने के कारण सब आश्चर्यचकित थे। पारगाँव के गुरव हतप्रभ होकर उसे देखते रह गए। पड़ोसी गाँव का एक अमीर गुरव आगे बढ़ा। उसने शेखी से कहा, ‘तीन सौ रूपये’।

और हरीबा ने अंतिम गोला दागा, ‘पाँच सौ!’ हरीबा की इस घोषणा से सभी की जलन और अक्ल पर मानों घड़ों पानी पड़ गया।

नीलामी हरीबा के नाम घोषित हुई। हरी महार ने कमर में खुँसे पाँच सौ रूपये तत्काल निकालकर जमा किये।

वह महारों के लिए भाग्योदय का दिन था। उन्होंने अपने ढोर-डंगर बेचने का इरादा छोड़ दिया। सबके बाल-बच्चे अपनी-अपनी छेरी-बकरियों को परसा जंगल में चराने लगे। महारों के लिए घूमने-फिरने की जगह हो गई। व्यंग्य में ‘ढाक के तीन पात’ कहा जाता है, परंतु उसी ढाक या पलाश ने महारों का जीवन सुखी और निर्भय बना दिया; यही नहीं, बल्कि समय का चक्का महारों के पक्ष में ऐसा घूमा कि वे उन्नति की सीढ़ियाँ चढ़ने लगे।

पलाश वाली बंजर भूमि पारगाँव की बहुउपयोगी ज़मीन थी। आज तक गाँव का तमाम ढोर-डंगर वहीं जाकर चरता रहा था। नीलामी में जिस गुरव को वह ज़मीन मिलती भी थी, वह सिर्फ पलाश के पत्तों में ही रूचि रखता था। ज़मीन पर उगने वाली हरी घास में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी इसलिए वे गाँव के ढोर-डंगर को चरने से रोकते नहीं थे। जानवर पेट भरने तक चरते रहते थे।

मगर हरीबा ने नीलामी जीतकर समूची तस्वीर पलट दी। जंगल में आराम से चरने वाले जानवरों को और कहीं ठौर नहीं मिल पा रहा था। मौका मिलते ही वे जंगल में घुसकर चरने लगते थे। जैसे ही कोई जानवर घुसता, हरीबा उसे पकड़कर कांजी हाउस में बंद करवा देता था। अभी तक जो दत्ता पाटील महारों से जुर्माना वसूल किया करता था, अब गाँव से जुर्माना वसूलने को बाध्य हो गया। दो साल में ही गाँव हैरान-परेशान हो उठा।

एक दिन की बात है। सूरज सिर पर चढ़ने लगा था। परसा जंगल में महारों के जानवर चर रहे थे। हरी महार लाठी लेकर पलाश की एक झाड़ी के पीछे बैठा हुआ था। अचानक दत्ता पाटील के बारह जानवर सिर उठाये जंगल में घुस गए और चरने लगे। पाटील का चरवाहा जानवरों से काफी दूर खड़ा था। उन जानवरों को देखकर हरीबा खुशी से फूला न समाया।

उन जानवरों का और इस घड़ी का हरीबा लम्बे समय से इंतज़ार कर रहा था। वह उन जानवरों को खदेड़ते हुए पुलिस चौकी जा पहुँचा। उसने पाटील से कहा,

‘पाटील, कांजी हाउस की चाबी दो।’

‘क्यों? किसलिए?’ पाटील ने चौंककर पूछा।

‘आपके ढोर-डंगर बंद करने हैं…’ हरीबा ने कहा। पाटील बुरीतरह चमक गया। उसने अपने गोठान में जाकर जानवरों की गिनती की। उसका चेहरा बुरीतरह उतर चुका था। सारे बाज़ार के लोग इकट्ठा हो गए। जिन-जिन गाँववालों ने अभी तक जुर्माना भरा था, वे भी पहुँच गए। गरीबों-मजलूमों की चौकी के सामने भीड़ लग गई। उस भीड़ में हरी महार अकेला खड़ा था।

पाटील बोल पड़ा, ‘ये क्या कर रहे हो हरीबा?’

‘आपने जो किया, मैं वही कर रहा हूँ।’ हरीबा ने जवाब दिया।

‘पूरे गाँव का नुकसान हो रहा है। इस झगड़े में सरकारी खजाना ही भर रहा है, क्या यह तुम्हें नहीं दिख रहा है?’ पाटील ने ठंडी आवाज़ में पूछा; उतनी ही ठंडी आवाज़ में हरीबा ने जवाब दिया,

‘अपने घर के बर्तन-भांडे बेचकर महार जुर्माना भरते रहे हैं पाटील…’

‘हाँ हाँ, मैं जानता हूँ…’ पाटील ने कहा, ‘मगर गाँव के बिना महारों की बस्ती शोभा नहीं देती और महारों की बस्ती के बगैर गाँव नहीं जँचता। यह गाँव की ज़मीन सभी की है… सबको एक माता की संतानों की तरह रहना चाहिए।’

‘क्या यह संभव है?’ – हरीबा ने दुखी आवाज़ में पूछा, ‘अगर यह सच होता तो गाँव हमें इसतरह अपने जाल में कभी नहीं फाँसता।’

‘चलो, अब वह जाल हम खुद ही काट देते हैं।’ पाटील ने कहा, ‘अब भविष्य में हम सही बर्ताव करेंगे।’

‘सही बर्ताव मतलब?’ बीच में ही हरीबा ने टोकते हुए पूछा। पाटील ने कहा,

‘अरे बाबा, इंसान की तरह!’ यह सुनते ही हरीबा ने लंबी साँस ली। न जाने कितने दिनों से उसकी यह साँस अटकी पड़ी थी।’

हिंदी अनुवाद – उषा वैरागकर आठले

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