लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं और कश्मीर की गुत्थी -राम पुनियानी

सन 2019 के पांच अगस्त को राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश जारी कर कश्मीर को स्वायत्तता प्रदान करनी वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को रद्द कर दिया. यह अनुच्छेद कश्मीर के भारत में विलय का आधार था और कश्मीर को रक्षा, संचार, मुद्रा और विदेशी मामलों के अतिरिक्त अन्य सभी क्षेत्रों में स्वात्तता प्रदान करता था. इस निर्णय के बाद जम्मू-कश्मीर में प्रजातान्त्रिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया, इन्टरनेट सेवाएं बंद कर दीं गयीं और राज्य को देश के अन्य हिस्सों से काट दिया गया. इन क़दमों से वहां के लोगों का इस निर्णय के प्रति विरोध सामने नहीं आ सका. राज्य को दो भागों (जम्मू-कश्मीर व लद्दाख) में बाँट कर दोनों को केंद्रशासित क्षेत्र बना दिया गया. इन दोनों क्षेत्रों का प्रशासन लेफ्टिनेंट गवर्नर अर्थात केंद्र सरकार को सौंप दिया गया. इस पूरे इलाके में प्रजातंत्र मानो बचा ही नहीं.

इस घटनाक्रम के लगभग एक डेढ़ साल बाद, 24 जून 2021, को प्रधानमंत्री ने चार पूर्व मुख्यमंत्रियों सहित पूर्व जम्मू-कश्मीर के नेताओं की बैठक बुलाई. प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री ने उनसे जम्मू-कश्मीर में निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन (सीमाओं का पुनर्निर्धारण) और वहां चुनाव करवाने पर चर्चा की. कश्मीरी नेताओं द्वारा जम्मू-कश्मीर के राज्य के दर्जे की बहाली की मांग उठाई गई परन्तु सरकार ने इस पर कोई पक्का आश्वासन नहीं दिया.

यह साफ़ नहीं है कि मोदी ने इस समय यह बैठक क्यों बुलाई. कश्मीरी नेताओं ने बैठक में अपनी बात रखी और जोर देकर कहा कि जम्मू-कश्मीर को फिर से राज्य बनाया जाना चाहिए. परन्तु मोदी-शाह ने उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया. महबूबा मुफ़्ती ने संविधान के अनुच्छेद 370 को कश्मीर में पुनः लागू किये जाने की बात कही और पाकिस्तान के साथ बातचीत की आवश्यकता पर जोर दिया.

बैठक के बाद एक प्रेस वार्ता को संबोधित करते हुए फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि देश के विभिन्न प्रधानमंत्रियों ने कश्मीर के लोगों से किये गए अपने वायदे पूरे नहीं किए. नेहरु ने जनमत संग्रह करवाने का वायदा पूरा नहीं किया. नरसिम्हा राव ने कहा था कि भारतीय संविधान की चहारदीवारी के भीतर रहते हुए वे कश्मीर की समस्या के सुलझाव के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं. वाजपेयी ने ‘इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत’ के सिद्धांतों के आधार पर इस समस्या का अंत करने की बात कही थी. वैसा कुछ भी नहीं हुआ. अब कश्मीर से राज्य का दर्जा भी छीन लिया गया है और अनुच्छेद 370 को रद्द कर दिया गया है. यह भारतीय संविधान की मंशा के विपरीत है क्योंकि इस प्रावधान को केवल कश्मीर विधानसभा की सिफारिश पर समाप्त किया जा सकता है.

कहने की ज़रुरत नहीं कि कश्मीर समस्या के सबसे बड़े पीड़ित कश्मीरी हैं. कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़नी पड़ी. इसका कारण था कश्मीर में चल रहे उग्र आन्दोलन में अलकायदा जैसे तत्वों की घुसपैठ. इन तत्वों ने पंडितों को अपना निशाना बनाया. उस समय जगमोहन (जिन्होंने बाद में भाजपा की सदस्यता ले ली) राज्य के शासक थे. असहाय और हिंसा के शिकार हिन्दू अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करने की बजाय जगमोहन ने इन लोगों को राज्य से पलायन करने के लिए वाहन उपलब्ध करवाए. इस सिलसिले में यह भी याद रखे जाने की ज़रुरत है कि कश्मीरी पंडितों के अलावा बड़ी संख्या में मुसलमानों ने भी घाटी में बढ़ते उग्रवाद और नतीजतन सेना की बढ़ती उपस्थिति से परेशान होकर वहां से पलायन किया. 

इसमें कोई संदेह नहीं कि कश्मीरियों की समस्याओं के लिए पाकिस्तान – जिसे साम्राज्यवादी शक्तियों, विशेषकर अमरीका – का समर्थन प्राप्त था, काफी हद तक ज़िम्मेदार है. कश्मीर की भौगोलिक स्थिति सामरिक और रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है और इसलिए अमरीका और इंग्लैंड ने पाकिस्तान के जरिये वहां उग्रवाद को बढ़ावा दिया और बाद में वहां अल कायदा जैसे तत्वों की घुसपैठ करवाई. नतीजे में हालात काबू से बाहर हो गए. इन स्थितियों के प्रति वहां के लोगों का असंतोष और गुस्सा पत्थरबाज़ी की घटनाओं में सामने आया.

ऐसा लगता है कि हमारे देश के वर्तमान शासक राज्य के धार्मिक संयोजन को बदल देना चाहते हैं. देश की स्वतंत्रता के समय कश्मीर की 70 प्रतिशत आबादी मुस्लिम थी और इसी कारण जिन्ना ने कहा था कि कश्मीर उनकी जेब में है. इसी कारण पाकिस्तान की सेना ने राज्य पर कबायलियों के हमले का समर्थन किया था. हमें याद रखना चाहिए कि कश्मीर के सबसे बड़े नेता शेख़ अब्दुल्ला ने पाकिस्तान के नेतृत्व की सामंती प्रकृति को देखते हुए राज्य के पाकिस्तान में विलय का विरोध किया था.

शेख़ अब्दुल्ला, गाँधी और नेहरु की धर्मनिरपेक्षता के कायल थे और दोनों को भारत के राजनैतिक क्षितिज के चमकते सितारे मानते थे. कश्मीरी स्वयं भी इस्लाम से अधिक कश्मीरियत से जुड़े हुए थे, जो बौद्ध धर्म, वेदांत और सूफी परम्पराओं का संश्लेषण है और दक्षिण एशिया की श्रेष्ठतम परम्पराओं का वाहक है.

श्यामाप्रसाद मुख़र्जी और उनके साम्प्रदायिकतावादी उत्तराधिकारी, राज्य के भारत में संपूर्ण विलय के हिमायती थे और हैं. जिस केंद्रीय कैबिनेट ने भारत की कश्मीर नीति को मंजूरी दी थी, मुख़र्जी उसके सदस्य थे. इस नीति और महात्मा गाँधी की हत्या से शेख अब्दुल्ला का भारत से मोहभंग हो गया. वे यह सोचने लगे कि क्या कश्मीर को भारत का हिस्सा बनाने का उनका निर्णय सही नहीं था.

जहाँ एक ओर पाकिस्तान की कारगुजारियों से कश्मीर के लोगों के हालात और बिगड़ते चले गए वहीं भारत में साम्प्रदायिकतावादियों के कश्मीर के मुद्दे का इस्तेमाल समाज में  साम्प्रदायिकता फैलाने के लिए किया. उन्होंने इस समस्या का सारा दोष नेहरु के पर थोप दिया. उन्होंने यह प्रचार किया कि अगर इस मामले को पटेल को सौंप दिया जाता तो यह सुलझ चुका होता. झूठ और दुष्प्रचार, फिरकापरस्तों के पुराने और अजमाए हुए हथियार रहे हैं. अविनाश मोहनानी के अनुसार, “कश्मीर में 1947 में हुए टकराव और इस प्रान्त के दो हिस्सों में विभाजन के लिए ज़िम्मेदार थे लार्ड माउंटबैटन, पाकिस्तान के गवर्नर जनरल मुहम्मद अली जिन्ना और महाराजा हरिसिंह. उस समय, इस राज्य को भारत का हिस्सा बनाने में जिन तीन शीर्ष नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी वे थे, शेख अब्दुल्ला, जवाहरलाल नेहरु और सरदार वल्लभभाई पटेल.” युद्धविराम और कश्मीर मामले का संयुक्त राष्ट्र संघ में पहुँच जाना एक जटिल घटनाक्रम का नतीजा थे. इसके पीछे थी यह इच्छा कि युद्ध में बड़ी संख्या में नागरिक न मारे जायें और संयुक्त राष्ट्र संघ पर भरोसा.    

यह अलग बात है कि जनमत संग्रह नहीं हो सका क्योंकि पाकिस्तान, जिसकी पीठ पर अमरीका का हाथ था, ने उस इलाके को खाली करने से इंकार कर दिया जिस पर उसने बेजा कब्ज़ा कर लिया था. तब से ही कश्मीर को मुसलमानों पर अलगाववादी का लेबल चस्पा करने का बहाना बना लिए गया है. मोदी जी ‘दिल कि दूरी’ की बात कर रहे हैं. पर क्या दिल कि दूरी बन्दूक की नोंक पर कम की जा सकती है? दिल की दूरी तभी कम होगी जब हम सभी कश्मीरियों के प्रति प्रेम और सद्भाव का भाव रखेंगे, जब हम उनकी दुःख-तकलीफों को अपनी दुःख-तकलीफें मानेंगे. वर्तमान सरकार सात सालों से देश पर राज कर रही है. इसके पहले, एनडीए सरकार छह साल तक सत्ता में थी. इस दौरान कश्मीरी पंडितों के लिए क्या किया गया? कुछ फिरकापरस्त ताकतें मनुष्यों की बदहाली, उनके कष्टों में अवसर देखतीं हैं. कश्मीर की गुत्थी इसका उदाहरण है.

लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं. (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

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