आज अगर हम चांद पर पहुंचते हैं तो उसके पीछे इन तीन स्वप्नदर्शियों जवाहरलाल नेहरू,विक्रम साराभाई और होमी जहांगीर भाभा की दूरदृष्टि को कृतज्ञता से याद करना चाहिए, जिनका समय तरह-तरह के बाबाओं और साधुओं की चरण पूजा करते हुए नहीं बीतता था, जो मंदिरों के घंटे डुलाने में विश्वास नहीं करते थे, जिन्होंने बांधों और कल- कारखानों को नए भारत के मंदिरों के रूप में मान्यता दी थी, जिनने भारत में वैज्ञानिक चेतना और तकनीकी क्रांति के लिए ऐसी मजबूत संस्थाओं का जाल बिछाया था जिनकी उत्कृष्टता का आज भी दुनिया लोहा मानती है।
सारा हिंदुस्तान इंतजार में है। करोड़ धड़कते हुए दिल इंतजार में है। इस बार उन्हें पूरा भरोसा है कि चंद्रयान 3 का लैंडर विक्रम ठीक समय पर किसी स्वप्न शिशु की तरह तैरता हुआ चंदा मामा की गोद में जा बैठेगा।
जबकि रूस द्वारा कोई 50 साल बाद की गई ऐसी ही एक कोशिश अभी-अभी नाकाम हुई है सारी दुनिया भारतीय चंद्रयान की तरफ नज़रें गड़ाए हुए है। सारे दुखों, तनाव और लड़ाइयों के बावजूद।
अगर विक्रम दूर के चंदा मामा को अपना बना लेने में कामयाब हो जाता है तो अमेरिका , रूस और चीन के बाद ऐसा कर पाने वाला चौथा देश भारत होगा।
यह उपलब्धि और भी बड़ी हो जाती है जब हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि ऐसा कर पाने वाला भारत पहला पूर्वऔपनिवेशिक देश होगा और चांद के अंधेरे हिस्से में पहुंचने वाला दुनिया का पहला देश।
राष्ट्रीय महानता के इस संभावित क्षण में देश को सबसे पहले अपने तीन पुराने स्वप्नदर्शियों को याद करना चाहिए। यानी जवाहरलाल नेहरू, होमी जहांगीर भाभा और निस्संदेह उन विक्रम साराभाई को, जिन्होंने लैंडर को अपना नाम दिया है । ये वे तीन दोस्त थे,जिन की दृष्टि, उद्यम और संकल्प के बिना हमें यह दिन नसीब नहीं हो सकता था।
नेहरू, भाभा और साराभाई के योगदान के महत्व को समझने के लिए इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि ब्रिटिश भारत में भी विश्व स्तरीय वैज्ञानिक प्रतिभाओं की कमी नहीं थी। लेकिन औपनिवेशिक सरकार ने अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार प्रसार, भारत विद्या की खोज और और पूरब की कलाओं तथा मानविकी के विकास के क्षेत्र में चाहे जो कुछ किया हो, उसने भारत को विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने की कोई कोशिश कभी नहीं की।
आजादी मिलते ही नवस्वतंत्र देश भारत ने इस दिशा में जो मजबूत कदम उठाए उसने सारी दुनिया को हैरानी में डाल दिया था। परमाणु विज्ञान और अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में ऐसी दृष्टिसंपन्न वैज्ञानिक क्रांति का आगाज किसी भी पूर्व औपनिवेशिक देश में नहीं देखा गया।
नेहरू के दृढ़ प्रोत्साहन के बल पर विक्रम साराभाई सन 1947 में ही फिजिकल रिसर्च लैबोरेट्री की नींव डाल चुके थे। यही लैबोरेट्री आगे चलकर भारत के अंतरिक्ष अनुसंधान का आधार बनी। जून 1948 में ही भारत सरकार बाकायदा वैज्ञानिक अनुसंधान विभाग की स्थापना कर चुकी थी, जिसकी जिम्मेदारी सीधे प्रधानमंत्री को यानी स्वयं जवाहरलाल नेहरू को सौंपी गई थी। अगस्त 1948 में इसी विभाग के अंतर्गत एटॉमिक एनर्जी कमिशन की स्थापित किया जा चुका था जिसकी अध्यक्षता होमी जहांगीर भाभा को सौंप गई थी।
सन 1961 में नेहरू की प्रेरणा से विक्रम साराभाई ने भारत सरकार के सामने एक महत्वाकांक्षी प्रस्ताव रखा। यह प्रस्ताव था भाभा के निर्देशन में चलने वाले परमाणु ऊर्जा विभाग के भीतर अंतरिक्ष अनुसंधान को शोध के नए क्षेत्र के रूप में मान्यता प्रदान करने और अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण उपयोग की संभावनाओं की खोज को एक महत्वपूर्ण लक्ष्य के रूप में स्वीकार करने का।
फरवरी 1962 में परमाणु ऊर्जा विभाग ने इंडियन नेशनल कमिटी फॉर स्पेस रिसर्च की स्थापना की जिसकी जिम्मेदारी साराभाई को सौंपी गई। 15 अगस्त 1969 को इसी संस्थान को इसरो यानी इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन का रूप दिया गया। बाकी इतिहास सारी दुनिया के सामने है।
भारत की नई पीढ़ी के लिए यह जानना बेहद जरूरी है की यह कोई ऐतिहासिक संयोग मात्र नहीं था। बंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की विजिटिंग प्रोफेसर अमृता शाह ने द प्रिंट में लिखा है कि नेहरू सन 1938 में ही यह घोषित कर चुके थे कि देश के विकास के लिए अगर नई तकनीक और भारी मशीनों की जरूरत है तो चाहे जो कुछ भी हो हम इन्हें जरूर हासिल करेंगे।
भाभा और साराभाई जैसे चोटी के वैज्ञानिकों के साथ नेहरू जी की दोस्ती भी संयोग नहीं थी। इस दोस्ती के पीछे इन तीन परिवारों की पुरानी घनिष्ठता भी थी।
भारतीय नेताओं द्वारा भारत का संविधान बनाने की पहली महत्वपूर्ण कोशिश थी 1928 की नेहरू रिपोर्ट जिसे मोतीलाल नेहरू की सदारत में तैयार किया गया था। यह रिपोर्ट स्वयं वैज्ञानिक चेतना का एक अप्रतिम दस्तावेज है। इस रिपोर्ट में इस रिपोर्ट में इस जमाने में सार्वत्रिक वयस्क मताधिकार स्त्री पुरुष समानता और राज्य को धर्म से पृथक रखने की बात कही गई है उस जमाने में दुनिया के सबसे विकसित देशों में भी ऐसी बातें असंभव मानी जाती थी।
आज अगर हम चांद पर पहुंचते हैं तो उसके पीछे इन तीन स्वप्नदर्शियों जवाहरलाल नेहरू,विक्रम साराभाई और होमी जहांगीर भाभा की दूरदृष्टि को कृतज्ञता से याद करना चाहिए, जिनका समय तरह-तरह के बाबाओं और साधुओं की चरण पूजा करते हुए नहीं बीतता था, जो मंदिरों के घंटे डुलाने में विश्वास नहीं करते थे, जिन्होंने बांधों और कल- कारखानों को नए भारत के मंदिरों के रूप में मान्यता दी थी, जिनने भारत में वैज्ञानिक चेतना और तकनीकी क्रांति के लिए ऐसी मजबूत संस्थाओं का जाल बिछाया था जिनकी उत्कृष्टता का आज भी दुनिया लोहा मानती है।
( लेखक वरिष्ठ आलोचक और कवि हैं)