पुस्तक अंशः क्या कहूँ आज – सत्यनारायण व्यास की आत्मकथा

फीस की रकम लेकर भीलवाड़ा सीधे ही स्कूल जा पहुंचा। आवेदनपत्र आदि की सारी औपचारिकताएं पूरी कर, फीस की रसीद ले ली। एडमिशन हो गया। काम पक्का हो गया। अब किताबें-कॉपियाँ-स्टेशनरी? देखा जाएगा। मूल उद्देश्य तो पूरा हुआ।

मेरे जीवन का असली संघर्ष यहीं से प्रारंभ होता है। जब तक हमीरगढ़ में था, सारा मोर्चा माँ ने संभाल रखा था। अब, जब मैं घर-गाँव और माँ से दूर खुले कर्मक्षेत्र में आ गया हूं तो मुझे अपनी बाज़ी खुद ही खेलनी है और जीतना है। माँ नित्य गीता का पाठ करती थी, उसकी पहली पंक्ति मेरे कानों में गूँजने लगी – ”धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता: युयुत्सव:।” अब, यहां घर नहीं था, ‘कुरुक्षेत्र’ था। मुझे अपने अस्त्र-शस्त्र संभालने-साधने थे। यह युध्दभूमि है। यहां कोई रक्षक नहीं है। अपने-आप अपनी रक्षा करनी होगी और जीत हासिल करनी होगी। भीलवाड़ा मेरे जीवन के संघर्ष का पहला मोर्चा बना और तगड़ा बना। एक-एक दिन भारी।

भाईसाहब सुबह स्कूल चले जाते। उनके पहले ही तीन सन्तानें थीं और तीनों लड़कियाँ। सन् 1967 का वर्ष था। मैं चौथी सन्तान के रूप में पहुँच गया। भाई साहब मुझे लेकर खामोश थे, पर भाभीजी विचलित नज़र आईं। मेरी आयु का सोलहवाँ साल शुरू हो गया था, जिसे लोग ‘स्वीट सिक्सटीन’ कहते आए हैं। मेरा ‘सिक्सटीन’ बहुत कड़वा साबित हुआ। पता नहीं, क्या कारण बना, कि भाईसाहब का मेरे प्रति ‘मूड’ बदलने लगा। वे अनुदार होते गए। मैं एकमात्र अनुज था उनका। वे सरकारी शिक्षक थे। उनका वेतन इतना तो कम नहीं था कि मेरी पढ़ाई का मामूली खर्च न उठा सकें। एक दिन, मेरी सोच के विपरीत बोल उठे –

”तूं घर से कुछ लेकर तो आता नहीं है, और यहां शहर का खर्चा ज्यादा है। इन छोरियों का पालन-पोषण और पढ़ाई के अलावा तेरा खर्च और बढ़ गया है। यह सब कैसे चलेगा?”

मुझे इस कठोर प्रतिक्रिया की आशा नहीं थी। मैं खाना खा रहा था। ऑंसू आने लगे। बोला नहीं गया। सिर झुकाकर खाता रहा। मुँह का स्वाद कड़वा हो गया। एक-एक कौर निगलना भारी हो रहा था। अपने को स्वस्थ कर बोला –

”जो कुछ हमीरगढ़ से आपको लाना है, आप ही पधारो और माँ से लेकर आओ। मैं तो बालक हूं। इस पचड़े में मुझे क्यों आप डालते हैं? मैं तो बस पढ़ने आया हूं।”

भाई साहब के गले मेरी यह सफ़ाई नहीं उतरी। वे अनमने से उठकर खड़े हो गए और बाहर चले गए। मैं अपने अन्तस् में चिन्तित और सन्न रह गया। सोचा, ऐसा क्या उपाय करूँ, जिससे इन पर भार बने बिना अपनी पढ़ाई ज़ारी रख सकूं।

भाभीजी के राज में मुझे बहुत भूख काटनी पड़ी। सुबह एक कप चाय मिल जाती और रोटियां सीमित। वे आटा ही इतना नाप-तौलकर लगातीं कि दो से तीसरी रोटी माँगने की मेरी हिम्मत नहीं होती। अगर माँग लूँगा तो मेरा आगे यहां रह पाना खटाई में पड़ जाएगा। चीणी की एक प्लेट में दाल और दूसरी प्लेट में रोटी। इसके बाद रात पड़ने पर अगला भोजन। स्कूल में और स्कूल से आने पर इतनी ज़ोर से भूख लगती कि माँ और घर याद आने लगते। अभी, हमीरगढ़ में होता तो गुड़, चटक, मूंगफली, तिल्ली, ठंडी रोटियों से भरा कटोरदान – बहुत कुछ खाने को होता। मगर यहां? कुछ नहीं। ठंडी रोटी का एक टुकड़ा नहीं। न कोई दूसरी खाने लायक चीज़ कहीं नज़र आती। और मेरी पेट की ज्वाला धधकती, जिसे मैं गले में पानी उड़ेलकर बुझाता रहता। आग का इलाज़ पानी ही होता है।

जेब में एक नया पैसा तक नहीं कि बाज़ार से कुछ नमकीन-सेंव वगैरा लेकर खा लेता। दोस्तों से माँगकर लाई हुई किताब पढ़ने में अपने को डुबोए रखता और शाम होने की इंतज़ार करने लगता। उठती उमर, बढ़ता शरीर और यह सुरसा राक्षस जैसी मुँहफाड़े भूख! मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? ऐसे कैसे पूरा साल बिता पाऊँगा? दो रोटी से मेरा पेट नहीं भरता। ‘गृहत्यागी’ तो हो गया हूं पर ‘अल्पाहारी’ हो पाना तो मुश्किल है। पढ़ना भी ज़रूरी है। चाहे भूख मारनी पड़े। इस कशमकश में मेरा शरीर दुबला होने लगा और कॉलर बोन’ के गट्टे बाहर झाँकने लगे। गाल अन्दर धँसते गए – कभी काच में चेहरा देखता तो लगता कि मैं कुपोषण की चपेट में हूं। क्योंकि ‘सन्तुलित आहार’ का पाठ पूरे ध्यान से पढ़ा और आत्मसात् किया था। आहार का सन्तुलित होना तो भाड़ में गया, अपने होने और भाभीजी के पास रह पाने का ‘सन्तुलन’ ही बिगड़ने जा रहा था। जो भी हो मुझे हर हालत में यहां रहना है और ग्यारहवीं पास करके जाना है – चाहे भूख सहनी पड़े या उपेक्षा झेलनी पड़े। डटे रहना है। विद्यार्थी हूं। मुझे अपनी सहनशीलता बढ़ानी पड़ेगी। ये परीक्षा की घड़ी है। अड़े रहो।

इसी जद्दोजहद में डेढ़ महीना बीता होगा कि एक दिन ‘वज्रपात’ हुआ। भाईसाहब घर से बाहर थे। बच्चियाँ खेल रही थीं। मैं और भाभीजी कमरे में बैठे थे। मेरे हाथ में पुस्तक थी, पढ़ रहा था। सहसा भाभीजी बोल उठीं –

”लालजी सा, अस्यान है के म्हारो जीव आज़काल राजी नीं रैवे। म्हनैं लागरियो है के म्हूं बीमार व्हेरी हूँ अन म्हनै अस्पताल में भरती व्हेणो पेड़ी। ज्यूं थाँको रेहबा खाबा को इन्तज़ाम थैं कठेई दूसरी जगहां कर लो तो आच्छो रैई। या ईज बात म्हने केहणी है। अबै, थाँको हिसाब थैं देख लो! म्हारी सरधा कोनैं।”

मुझे ऐसे दो-टूक उत्तार की सपने में भी आशा नहीं थी। मेरे भाभीजी क्या इतने कठोर और निष्ठुर हो सकते हैं? कानों से सुनकर भी विश्वास नहीं हुआ। पर जो मैं सुन रहा था – वह संसार का सत्य था। और मैं ‘सत्यनारायण’ था। इस ‘सत्य’ को भाभीजी का ‘सत्य’ स्वीकार करना पड़ा। कोई चारा नहीं था। आज़ मुझे ‘बेचारा’ शब्द के अर्थ से साक्षात् हुआ।

एक साथ, कई सन्दर्भ दिमाग में कौन्ध गए मेरे। प्रेमचन्द की कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ याद आई। महाकवि भूषण को भाभी का दिया हुआ वह ताना भी याद आया कि ”दो पैसे का नमक तो कभी लाकर देते नहीं हो और दोनों वक्त ख़ाने बैठ जाते हो।” कहते हैं कि भूषण भोजन की थाली को ठुकराकर खड़े हो गए और भाई के घर से चल दिए तो मुड़कर नहीं देखा। प्रतिभा तो अपूर्व थी ही। किसी बादशाह के दरबार में जाकर कुछ कवित्ता सुनाए जिन्हें सुनकर भारी बख्शीश देनी चाही तो भूषण ने सबसे पहले दो ऊँटों पर नमक के बोरे लदवाकर अपनी भाभी के घर भिजवाने की मंशा व्यक्त की। ऐसा ही किया गया। घर के सामने नमक लादे ऊँट देखकर भाभी चौंकी तो उन्हें यह बताया गया कि आपके देवरजी भूषण ने ये ‘दो पैसे का नमक’ भिजवाया है – इसे कहाँ उतारा जाय?

मैं विषम संकट में घिर गया था। अब क्या होगा? खेल खतम! हो गई पढ़ाई! आज़, अब, निराला की महान् कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ के गूढ़ार्थ प्रकट होने लगे हैं-

”है अमा निशा उगलता गगन घन अन्धकार।

खो रहा दिशा का ज्ञान स्तब्ध है पवन चार॥”

मैं ‘भूधर ज्यों ध्यान मग्न’ हो गया था। ‘केवल जलती मशाल’ आगे की पढ़ाई की ज्वलन्त चिन्ता थी। तभी, ”वह एक और मन रहा राम का जो न थका। जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय।” – जैसे भाव, और ”हार का अस्वीकार” ठान लिया। प्रतिभा बुध्दि के द्वार पर पहुँची और ‘उपाय’ भी ढूंढ ही लिया।

अपने पिता-तुल्य अग्रज और मातृकल्पा भाभीजी के घर से निर्वासित होकर, मैं अपने सहपाठियों के कमरे पर पहुँचा। अपनी हक़ीकत बयान की। वे दो साथी थे – जो एक कमरे में एक साथ रहते थे – सुजान (अब स्वर्गीय) और राजू तोषनीवाल। दोनों ने मेरी व्यथा-कथा ध्यान से सुनी और वे पिघल गए। मैंने हीर् शत्तों रखीं – ”देखो दोस्तो! मेरा भार आपको उठाना होगा। बदले में मैं आपको रोज़ पढ़ाऊंगा और दोनों के पास हो जाने की ‘गारण्टी’ मैं देता हूं, चाहे मुझे अपनी पढ़ाई का नुक़सान करना पड़े।” उन्होंने हाँ भर ली।

कमरे का किराया वे देते, गाँव से गेहूँ लेकर वे आते। सिगड़ी और कोयला भी उन्हीं का। मैं नित्य उन्हें दो घण्टे रात में पढ़ाता। वे पढ़ने में कमज़ोर थे, आलसी थे। उनकी ‘ग्रास्पिंग पावर’ क्षीण थी। मैं उन्हें तन्मयता से पढ़ाता। परिणाम, अच्छा रहा। हम तीनों ही सेकंड डिवीजन से ग्यारहवीं कक्षा में शान के साथ उत्ताीर्ण हो गए। साल कैसे गुज़रा, पता ही नहीं चला।

भीलवाड़ा से अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर हमीरगढ़ लौट आया। हायर सेकंड्री पास। फिर वही यक्ष-प्रश्न खड़ा हो गया कि अब आगे क्या किया जाय? जब ग्यारहवीं की वैतरणी जिस ढंग से पार करके आया हूं, तो कॉलेज की पढ़ाई का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। घर के चौक-आंगन में बैठी बाई, बड़ी जीजी और मैं इस प्रसंग पर विचार-विमर्श करने लगे।

जीजी बोली, ”कठेई एल.डी.सी. की नौकरी मिल जावै तो घणीं।” बाई ने कहा – ”यो ईंका काकासा को माळबो ई सम्हाळे तो आच्छो, पण माळवा में भी कंई तन्त नीं रियो। आपणा घरकोई पूरो नीं पड़रयो।” मेरे ननिहाल कोटड़ी से बड़े मामा साहब का कुशल-पत्र आया, जिसमें मेरे लिए यह सुझाव था कि – ”बालक को अब संस्कृत-अध्ययन कराने के लिए पुष्कर भेज देना चाहिए। वहां श्री रंगनाथ वैंकुण्ठ मंदिर में संस्कृत विद्यालय चलता है, जिसके आचार्य जी को वे पत्र लिखेंगे। वहां भोजन-वस्त्र की नि:शुल्क व्यवस्था है।” इतने विकल्पों में एक विकल्प यह भी आया कि पं. बदरी नारायण पंचोली के साथ मुझे दिल्ली जाकर संस्कृत की पढ़ाई करनी चाहिए। और, यही विकल्प कारगर हुआ।

डॉ. पंचोली, तब दिल्ली में लालबहादुर शास्त्री संस्कृत विश्वविद्यापीठ में सांख्य-योग दर्शन विभाग के आचार्य थे। वे हर वर्ष मेवाड़ से दो-छात्रों को साथ ले जाकर विद्यापीठ में खपा देते थे। मेरे लिए भी उन्होंने ‘हां’ भर ली। दिन और समय तय हो गया। पहली बार, देश की राजधानी और महानगर दिल्ली जाकर पढ़ने के विचार से ही मैं ‘एक्साइटेड’ था। मेरी आयु का सत्रहवां साल शुरू हुआ ही था। जून, 1968 के आखरी सप्ताह में, एक दिन भीलवाड़ा से मैं पंचोली जी के साथ ‘चेतक एक्सप्रेस’ में बैठ गया। माँ, विमलजी पहुँचाने आईं थीं। मां ने अश्रुविगलित कंठ से मेरे सिर पर हाथ फेरा। गाड़ी चल पड़ी। सुबह दिल्ली सराय रोहिल्ला स्टेशन पर जा उतरे।

तब विद्यापीठ शक्ति नगर, दिल्ली में किराये के एक बंगले में चलता था – जिसका नाम था ‘नन्दा लॉज’। उसी के पिछवाड़े पंचोली दंपती का निवास था। मेरे लिए उन्होंने विद्यापीठ में प्रवेश हेतु जानकारी ली, तो अड़चन सामने आई कि ग्यारहवीं में मेरे संस्कृत ऐच्छिक विषय नहीं रहा है, अत: यहां प्रवेश नहीं हो सकता। मेरे सपनों का ‘ताश महल’ गिर पड़ा। अब क्या होगा? ‘धिक्! जीवन जो सहता ही आया विरोध!’

पंचोली जी ने दिमाग लड़ाया। चलो, और कोई व्यवस्था कर देते हैं। लेकिन, विद्यापीठ की बात ही अलग थी। वह केन्द्र सरकार की प्रतिष्ठित संस्था है – डॉ. मण्डन मिश्र जैसा विद्वान उसका कुलपति है। वहां शास्त्री करके, शिक्षाशास्त्री की ट्रेनिंग भी की जा सकती है, फिर संस्कृत-अध्यापक की नौकरी तो पक्की समझो। पर, मेरा भाग्य ऐसा कहाँ? मुझे, लगा इस किस्मत से तो ‘कुश्ती’ ठेठ तक लड़नी पड़ेगी। ये तो शुरुआत भर है। तभी से मैंने अपनी कमर कस ली। ताल ठोककर अपनी भुजाओं की मसल्स को निरखना शुरू कर दिया। ये लड़ाई लंबी चलेगी। और ऐसा ही हुआ।

दो-तीन दिन में ही पंचोली जी ने मेरे लिए दूसरा विद्यालय खोज निकाला, जहां यह तकनीकी अड़चन आड़े नहीं आई। मुझे साथ लेकर वे यमुना बाज़ार में स्थित धर्म संघ महाविद्यालय गए। उस विद्यालय का ढाँचा, हालात और पिछड़ापन देखकर मेरा दिल बैठ गया। क्या, यहाँ पढ़ना होगा? टिन शेड वाली दो चार कुटियाएं, पुरानी सीलन लगी ईंटों वाला बिना प्लास्टर का आचार्य जी और शास्त्रीजी का घर। बीच में एक छोटा मंदिर। इधर-उधर दो-चार छप्परनुमा कुटियाओं में दो-तीन जटाधारी साधु-संन्यासी उबासियाँ खाते हुए लेटे थे।

हमें बताया गया कि यह संस्था करपात्री जी महाराज द्वारा स्थापित की गई है और सेठों के चन्दे और अनुदान से संचालित होती है। यहां विद्यार्थियों के लिए नि:शुल्क अध्ययन और नि:शुल्क भोजन की व्यवस्था है।

मैं आचार्यजी की बातें सुनता हुआ चारों ओर देखकर नाक-भौं सिकोड़ रहा था। यहां ‘महाविद्यालय’ जैसी कोई सूरत नज़र नहीं आ रही थी। कहाँ उस केन्द्रीय विद्यापीठ की चमक-दमक, फर्नीचर और ऑफिस और कहाँ यह ग़रीबखाना! मगर, जब दिल्ली आ ही गया हूं तो खाली हाथ जाने के बज़ाय यहीं पढ़ाई कर लेना क्या बुरा है! पंचोली जी ने मेरी स्वीकृति भाँपकर ‘गार्जियन’ की हैसियत से फार्म भर दिया और मैंने एक कुटिया में तख्त पर अपना बिस्तर लगाकर, सन्दूक तख्त के नीचे सरका दी।

वहां रहते पता चला कि यह तो छात्रावास है। पढ़ाई और कक्षाएं तो दो किलोमीटर दूर मेटकॉफ रोड पर स्थित एक बड़ी ‘कोठी’ में चलती हैं। रोज़ वहीं पढ़ने जाना होगा। यहां तो रहने और खाने की व्यवस्था है। मुझे कुछ तसल्ली हुई। पर हकीकत ये थी कि इस ‘धर्मसंघ महाविद्यालय’ में हमारी कुल छात्र संख्या दस-ग्यारह ही थी। यहां शास्त्री, मध्यमा और प्रथमा परीक्षाएं वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, बनारस द्वारा आयोजित होती थीं। मुझे ‘पूर्वमध्यमा’ की कक्षा में प्रवेश दिया गया। धीरे-धीरे मैं वातावरण के साथ अनुकूलन करने लगा। और चारा ही क्या था! बे-चारा था।

देखा, रोज़ सुबह चार बजे उठना पड़ता है। स्नान करके ‘सन्ध्या’ करनी पड़ती है – ‘सन्ध्या’ नहीं की, तो भोजन नहीं मिलेगा। धोती और जनेऊ पहनना अनिवार्य। वार्तालाप संस्कृत में करना आवश्यक – चाहे छोटे-छोटे वाक्य बोलें। पेण्ट-शर्ट पहनना वर्जित। सिनेमा देखना अपराध। मैंने पेण्ट सन्दूक में छिपा दिया। धोती निकाल ली – स्वयं हमीरगढ़ गाँव का व्यास-पंडित जो ठहरा!

घण्टी बजती। भोजनालय के छप्पर तले जा पहुँचते। हमारे पीछे ही ‘निगमबोध’ श्मशान घाट है – जहाँ चालीस चिताएं एक साथ जलने की व्यवस्था है। इधर, हम मंत्रोच्चार के साथ, भोजन प्रारंभ करते कि तभी बगल की सड़क पर ”रामनाम सत्ता है! सत्ता बोलो गत्ता है!” की पुरज़ोर ध्वनि के साथ अर्थियाँ आने लगतीं। ऐसा लगता, हम मृतकों के निमित्ता का ही क्रव्याद खा रहे हैं। पर, धीरे-धीरे हमारा मन अभ्यस्त हो गया और उसे एक अपरिहार्य क्षेपक मानकर सहन करने लगे।

प्रत्येक प्रदोष में व्रत रखना पड़ता। और शाम को छोटे शिवालय में सब छात्र एकत्र होते और अभिषेक के साथ यजुर्वेद की रुद्राष्टाध्यायी का सस्वर पाठ किया जाता। उस रात एक मिष्टान्न भी भोजन में मिलता। बाकी दिनों लूकी रोटियां और दाल। इसके अलावा हेण्डपंप का पानी। मेरी उठती उमर थी – छह-सात रोटी खा जाता। भीलवाड़ा में भाभीजी के द्वारा परोसी गई दो रोटी खाकर भूख मारने का संतोष याद आ जाता। चलो, यहाँ भोजन तो भरपेट मिल जाता है। पढ़ाई से महत्तवपूर्ण भोजन का प्रश्न है। मेरे और परिवार के ”आगामी भोजन” के लिए ही तो ‘पढ़ाई’ कर रहा हूं।

हमारे जीर्ण-शीर्ण होस्टल से दो किलोमीटर दूर यमुना के किनारे ही पढ़ाई का स्थान था। वह किसी रईस की बड़ी कोठी थी, जिसमें अनेक सजावटी कमरे और पीछे बड़ा बगीचा भी था। उसी में बदरिकाश्रम शांकर पीठ के शंकराचार्य स्वामी कृष्णबोधाश्रम जी महाराज भी रहते थे। वहीं हमारा विद्यालय चलता। काष्ठ पीठ पर आचार्य जी विराजते और हम कुर्ता उतारकर खूंटी पर टाँगते और धोती-जनेऊ मात्र पहने पढ़ने बैठ जाते। मेरे पाठयक्रम में मध्यसिध्दान्त कौमुदी भट्टोजी दीक्षित की, रघुवंश, अभिज्ञान शाकुन्तलम, किरातार्जुनीयम् और ‘कुमार संभवम्’ नामक भारी-भारी काव्य ग्रन्थ थे।

तीसरे पहर छात्रावास वापस लौटते तो यमुना का बहता जल देखकर नहाने की तबीयत होती। स्नान और तैराकी का तो बचपन से ही लगाव और अभ्यास रहा है। सो, अपनी किताबें और कपड़े कनिष्ठ प्रथमा कक्षा के छात्रों को सौंप देते और मात्र लंगोट में बहती यमुना में कूद पड़ते। तब यमुना इतनी दूषित नहीं हुई थी। अनायास तैरते हुए अपने छात्रावास के घाट तक पहुँच जाते।

यमुना-तट पर दिल्ली में कई अखाड़े और आश्रम थे – जहां मैं रोज़ तैल-मालिश करके दण्ड-बैठक और पहलवानी की ज़ोर आज़माइश करता था। मुफ्त का भोजन और पहलवानी का यह अच्छा संयोग बना। वहीं कभी-कभी ‘हनुमान व्यायामशाला’ से गुरु हनुमान और पहलवान चंदगीराम भी आ जाते। मैं उनके साथ अखाड़े में पहलवानी के गुर सीखता। धोबीपाट, जनेऊकाट, लंगड़ीमार जैसे दाँव-पेच सीखकर अच्छा पहलवान हो चला था। और कुछ न सही, चलो बोडी तो बनाओ! काम आएगी। संघर्ष में।

धर्मसंघ के छात्रावास में धीरे-धीरे मेरा मन रम गया। कोई तकलीफ़ नहीं। प्राय: श्राध्द-भोजन के निमंत्रण आते ही रहते थे। कोई सेठ-सेठानी दान-दक्षिणा, फल-मिठाई आदि बाँट जाते। एक बार तो ठंड के मौसम में सेठानी आई और हर छात्र को एक-एक नयी रजाई दे गई। जो मैंने हमीरगढ़ ले जाने को संभालकर रख ली।

हमारे यहां यदा-कदा करपात्री जी महाराज भी बनारस से आ जाते। उनके साथ शिष्यों और भक्तों की मंडली होती। खूब चढ़ावा आता जो हम विद्यार्थियों में बाँट दिया जाता। इसी तरह, पुरी पीठ के शंकराचार्य श्री निरंजनदेव तीर्थ भी धर्मसंघ में आकर ठहरे। वे बहुत क्रोधी थे। पेण्ट पहने कोई भक्त उन्हें प्रणाम करता तो उसे संस्कृत में दुत्कार कर भगा देते। ”त्वं शूद्रोऽसि! बहिर्गच्छ‼”

दिल्ली प्रवास की ही एक रोचक घटना याद आई। खारी बावली में काजू-बादाम सूखे मेवे का कोई करोड़पति थोक व्यापारी था। उसे हार्ट अटैक हुआ और बेहोशी में आईसीयू में एडमिट कराया गया। तत्काल उसके परिजन हमारे आचार्य जी के पास आए और पाँच ब्रह्मचारियों को उनके घर महामृत्युंजय मंत्र का जप करने हेतु भेजने की प्रार्थना की।

आचार्य जी ने पाँच विद्यार्थियों को बुलाया जिनमें मैं भी था। मेरे सिवा, गणेश, राजेन्द्र, मांगेराम और बद्री थे। हम सेठ के घर पहँचे। घरवालों ने हमारे पाँव धोये। आदर से पूजाकक्ष में ले गए और सवालक्ष मंत्र जप का अनुरोध किया। हम माळा-गोमुखी और पंचपात्र साथ ले गए थे। हमारे आसन जम गए। मंत्रजप से पहले जाते ही हमें पावभर मावे के पेड़े और दूध का गिलास फलाहार हेतु दिया जाता। उसके बाद हम जप शुरू कर देते। पेड़े खाने और मलाईदार दूध गटकने के बाद क्या जप हो सकता था? हम गोमुखी में माला को हाथ से पकड़े ऊंघने लगते। जैसे ही घर के किसी सदस्य की पदचाप हमारी तरफ सुनाई देती हम ऑंखें खोलकर सीधे होकर बैठ जाते और ज़ोर-ज़ोर से मंत्रोच्चार करने लगते – ”ऊँ त्र्यंबकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिवबन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।”

घर वालों को हमसे आशा थी कि सेठ जी स्वस्थ होकर घर लौट आएंगे। सवा लाख जप में एक सप्ताह लगना था। तीन दिन हमने जप किया और चौथे दिन निर्धारित समय खारी बावली में उनके मकान पर पहुंचे। दूर से देखा कि सौ-पचास आदमी चुपचाप कन्धों पर तौलिए डाले सिर नीचा किए हुए खड़े हैं। घर के अन्दर औरतों का रोना-बिलखना हो रहा था। घर में कुहराम मचा हुआ था। हम दूर ही ठिठक गए। समझ गए कि सेठजी नहीं रहे। हमारा वरिष्ठ साथी बोला ”अब आगे जाना समझदारी नहीं है। यहीं से लौट चलो।” कम-से-कम पचास-पचास रुपए दक्षिणा और धोती के जोड़े की आशा थी, जो धूल में मिल गई। चलो, कोई बात नहीं। जो पेड़े खाये और दूध पिया – वही उपलब्धि क्या कम है? फालतू तृष्णा क्यों पालें। पर यह हमारे लिए, खासकर मेरे लिए बहुत असहनीय घाटा था।

(पुस्तक कौटिल्य बुक्स, दिल्ली से 2019 में प्रकाशित हुई है।) 

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