वह स्थिति सबसे जटिल होती है जब लेखक के अंदर उसका रचनाकार होना ही उसको तोड़ने लगता है। अवसाद और बेचैनी, लम्बे समय तक कुछ भी नहीं लिख पाना, जो भी हो, लब्बोलुआब यह कि यह समझ लें कि कभी उत्तेजना और आवेग में लंबे समय तक नहीं लिखना है। यह खतरे को निमंत्रण देना है। मेरे युवा साथी चाहें तो इस बात का ध्यान रख लें। कार निरंतर फर्स्ट गेयर में चलाने पर इंजन गर्म भी होगा और कहीं कुछ बड़ा डैमेज भी होगा ही। लेखिका लवलीन की मृत्यु इसी स्थिति में हो गई थी।
इसी से जुड़ी एक और जटिल स्थिति है जिसे इस रोग से कुछ ठीक होने के बाद लेखक समझ नहीं पाता। शैलेश मटियानी और स्वदेश दीपक के जिक्र से इसे समझना सरल होगा। शैलेश मटियानी आई.आई.टी. कानपुर में थे जब उन्हें अपने पुत्र की हत्या की सूचना मिली। इस घटना ने ही उनके मानसिक संतुलन पर तत्काल प्रभाव डाला था, लेकिन यह घटना ही उनके मानसिक असंतुलन का एकमात्र कारण हो, ऐसा नहीं था। वह इसके बहुत पहले से लगातार अभाव, संघर्ष और साहित्य की दुनिया के कुछ लोगों की क्रूरता से अकेले जूझ रहे थे।
नए मित्र शायद नहीं जानते हैं, लेकिन उन्हें बताना जरूरी है कि साहित्य की बनाई हुई नकली, आरोपित और बौनों को कंधों पर उठाने वाली कथित मुख्यधारा से राहुल, रांगेय राघव, इलाचंद्र जोशी, बलवंत सिंह, शिवप्रसाद सिंह, कामतानाथ की तरह ही बाहर कर दिए गए शैलेश मटियानी साहित्य के प्रति बेहद निष्ठावान, समर्पित, प्रतिबद्ध और बहुत सधी कलम वाले लेखक थे। उनकी कुछ कहानियां, खासतौर से ‘दो दुःखों का एक सुख’ जैसी, प्रेमचंद की कहानियों से टक्कर लेती हैं। जीवन की तमाम विषमताओं, आर्थिक संकटों और इलाहाबाद के साथी लेखकों की ईर्ष्या व निंदा के बाद भी, उन्होंने जीवन में साहित्य को साधना की तरह जिया था। बाबरी मस्जिद गिरने के बाद के दिनों में उन्होंने हिंदूवाद के समर्थन में तर्कपूर्ण और प्रभावी पक्षधरता के लेख लिखने शुरू किए थे। हालांकि अपने लेखन में वे सदैव इसके विपरीत रहे थे। यह विचलन या परिवर्तन क्यों था यह मैं तो नहीं, लेकिन मेरे अग्रज या उनके समकालीन बेहतर बता सकेंगे। हां, इसके पहले एक घटना जरूर ऐसी हुई थी जो संभवतः समाज, राज्य, संविधान और कानून को लेकर उनकी पूरी दृष्टि और सोच के बदलने का कारण हो सकती थी। यही घटना उनके मानसिक असंतुलन की बीज भूमि भी थी। उन्होंने अपने समय के सबसे ताकतवर संपादक व पत्रिका धर्मवीर भारती और ‘धर्मयुग’ के खिलाफ मुकदमा किया था। यह पूरा मुकदमा उन्होंने अकेले सुप्रीम कोर्ट तक लड़ा। वकील के पैसे नहीं थे इसलिए वह अपनी पैरवी खुद करते थे। इस मुकदमे की तैयारी के दौरान ही उन्होंने कानून और भारतीय संविधान का अध्ययन किया था। उनके कई लेख ऐसे छपे थे जिसमें उन्होंने संविधान की कमियां दिखाते हुए उसकी धज्जियां उड़ाई थीं। मुकदमा वे हार गए। इस लड़ाई ने उनको बहुत स्तरों पर बुरी तरह तोड़ा। मुकदमे की पृष्ठभूमि क्या थी, मुकदमा क्या था, विशेष रूप से इलाहाबाद के किस लेखक की इसमें क्या भूमिका थी, यह पता किया जा सकता है। आर्थिक रूप से शैलेश मटियानी कभी मजबूत नहीं थे। चंदे के सहारे पत्रिका निकालते थे। साहित्य में लड़ते हुए ही जीना उनका तरीका था इसलिए उनके अंदर तनाव निरंतर बने रहते थे।
पुत्र की हत्या ने उनका मानसिक संतुलन बिगाड़ दिया था। लंबे समय तक उनका इलाज चला। बाद में वह काफी ठीक भी हो गए। फिर उन्होंने वही गलती की जो ऐसी स्थिति में कमोबेश हर लेखक कर देता है, और डॉक्टर भी जिसे करने की सलाह देते हैं। उन्होंने फिर लिखना शुरू कर दिया। ‘अकार’ के प्रवेशांक के लिए मटियानी जी ने शानदार लंबी कहानी ‘नदी किनारे का गांव’ लिखी। कुछ समय बाद ही मटियानी जी फिर मानसिक असंतुलन के शिकार हो गए। उसके बाद वह उससे निकल नहीं पाए, उनकी मृत्यु के दो दिन पहले गिरिराज किशोर जी जब अस्पताल में उनसे मिले तो वह चेन से पलंग के साथ बंधे हुए थे।
स्वदेश दीपक भी जब थोड़ा ठीक हुए तो उन्होंने ‘मैंने मांडू नहीं देखा’ जैसी विलक्षण कृति लिखी। मैं जब इसकी किश्तों को पढ़ रहा था तो उसकी कौंधती हुई, अंदर तक धंसने वाली भाषा की गहनता और लय से हतप्रभ था। वैसे तो स्वदेश दीपक के पास यह भाषा हमेशा से ही थी, लेकिन इस रचना की भाषा में कहीं कुछ असामान्य था। यह लगभग नीत्शे की भाषा के आस-पास की और अंदर तक छीलकर रख देने वाली भाषा थी। ‘मैंने मांडू नहीं देखा’ लिखने के दौरान निश्चित ही वह पूरे आवेग और उत्तेजना में रहे होंगे। उन्हीं स्मृतियों और क्रूर अनुभवों में लौट गए होंगे जो अवचेतन मैं शायद लुप्त हो चुके थे। एक दिन सुनाई दिया कि स्वदेश दीपक का कोई पता नहीं है कि वे कहां हैं। आज तक भी वे लापता हैं।
लेखक की एक और तरह की मृत्यु धीरे-धीरे उसके रचनाकार के सूखते जाने से भी होती है। यदि वह सचेत है तो इस मृत्यु की आहट सुन लेता है। निर्मल वर्मा की कहानी ‘सूखा’ संभवतः इस विषय पर हिंदी की अकेली कहानी है। हेमिंग्वे ने आत्महत्या इसीलिए की क्योंकि वह अपने अंदर के रचनाकार के सूख जाने को महसूस कर रहे थे और इसे स्वीकार नहीं कर पाए। 1952 में ‘द ओल्ड मैन एंड द सी’ आया था। इसके बाद 1961 में आत्महत्या तक हेमिंग्वे कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं लिख पाए। उसके पहले वह गहरे अवसाद में रहे। मृत्यु के कुछ दिन पहले उनके मित्र ए.ई. हाशनर के साथ हुई उनकी बातचीत के अंश पढ़ना जरूरी हैं।
‘मैंने बहुत विनम्रता से कहा ‘पापा (हेमिंग्वे) तुम अपने को मारना क्यों चाहते हो?’
वह केवल एक क्षण हिचकिचाए फिर वह अपने पुराने उद्देश्यपूर्ण तरीके से बोले-‘तुम क्या समझते हो कि बासठ साल के आदमी को कैसा लगता है जब वह यह महसूस करता है कि उसने अपने से जो वायदा किया था वैसी किताबें और कहानियां नहीं लिख सका…’
‘लेकिन अभी के लिए तुम लिखना एक ओर क्यों नहीं रख देते…?’
‘मैं नहीं कर सकता… क्योंकि देखो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं एक दिन नहीं लिखता या एक साल या दस साल, जब तक कि मेरे अंदर यह बोध पूरी दृढ़ता से है कि मैं लिख सकता हूं। लेकिन इस बोध के बगैर एक दिन जीना या इसके बारे में निश्चित न होना, मृत्यु है।’ हेमिंग्वे से एक साक्षात्कार में जब जर्मन पत्रकार फैलिपे ने पूछा- ‘हेमिंग्वे… क्या आप मृत्यु के बारे में अपनी भावनाएं बताएंगे।’ हेमिंग्वे ने कहा ‘…हां… एक और वेश्या।’ हेमिंग्वे ने कहा कि जब तक यह विश्वास है कि मैं लिख सकता हूं, कोई चिंता नहीं है, लेकिन इस बोध का खत्म हो जाना मृत्यु है। इसी को थोड़ा और बढ़ाएं तो यह बोध कि मैंने जो कुछ भी आज तक लिखा सब व्यर्थ है, रचनाकार की ऐसी मृत्यु का विस्तार है। ऐसा कम लेखक कर सकते हैं, लेकिन होता है। काफ्का ने अपने मित्र मैक्स ब्राड से कहा था कि उसकी मृत्यु के बाद वह उसकी सब रचनाएं जला दे। यह विरक्ति यहां तक पहुंची थी कि काफ्का ने ब्राड को आखिरी पत्र में लिखा था कि ‘उसका प्रत्येक शब्द, डायरी, पत्र, लिखा हुआ सब कुछ, बिना किसी अपवाद के जला दिया जाए और वह भी जितनी जल्दी संभव हो…।’ बहुत कुछ स्वयं काफ्का ने आग की लपटों में कई बार डाला था। करीब 20 नोटबुक्स डोरा ने आग में डाली थीं जिन्हें काफ्का अपने पलंग पर लेटे जलते हुए देखता रहा था।
इसी का और विस्तार है जब कोई रचनाकार या कलाकार उस पूरे परिदृश्य, उस पूरे जगत से ही विरक्त हो जाता है। ग्रेटा गार्बो ने स्वयं को एक छोटे से फ्लैट में बंद करके सिने जगत को हमेशा के लिए त्याग दिया था। यहां तक कि कोई उसकी झलक भी न पा ले, इसलिए वह खिड़की तक नहीं खोलती थी। फोटोग्राफर कैमरा लिए घंटों सड़क पर छुपकर बैठे रहते थे। यही सुचित्रा सेन ने किया है। अपने घर में स्वयं को पूरी तरह बंद कर लिया है। सिर्फ बेटी से मिलती हैं। दादा साहब फालके पुरस्कार देने की जब बात हुई थी तो कोई उनसे संपर्क ही नहीं कर पाया।
अंदर का रचनाकार धीरे-धीरे सूखता है, अचानक नहीं। इसी सूखने के साथ अपने ही लेखन के प्रति व्यर्थताबोध और विरक्ति जन्मती है। मार्क्वेज ने भी कुछ सालों पहले घोषणा की थी कि वे अब नहीं लिखेंगे। उन्हें भी लगा था कि जो कुछ, जिस उद्देश्य से लिखा वह समझा ही नहीं गया। लेकिन बाद में मार्क्वेज ने एक छोटा उपन्यास लिखा, यह कहकर कि उन्हें समझ में आया कि वह लिखने के अलावा कुछ और नहीं कर सकते। इस बहुत छोटे उपन्यास ‘मेमोरीज ऑफ माई मेलन्कलि होर्स’ (मेरी उदास वेश्याओं की स्मृतियां) में साफ दिखता है कि मार्क्वेज अपनी रचनात्मकता की सूखी जड़ों से जूझ रहे हैं। जिस तरह शरीर के अंगों का क्षरण निश्चित है, उसी तरह शायद लेखक की रचनात्मकता का धीरे-धीरे सूखना भी निश्चित होता है। लेकिन इससे जूझना ही उसके पास एकमात्र विकल्प है। उसी तरह, जैसे शरीर के क्षरित होते अंग से व्यक्ति जूझता है और जीवित रहता है। वह यह लड़ाई लड़े या फिर हेमिंग्वे की तरह आत्महत्या करे, दो ही विकल्प हैं। इसलिए इस जूझते रहने का स्वागत होना चाहिए। इसे समझना चाहिए। इसे स्वीकार करना चाहिए, बजाए ‘न लिखने का कारण’ जैसी नकली बहसों के बहाने मुर्दों को पंगत में बैठाकर खुद ही अपने मृत्युभोज करने का निमंत्रण देने के। इस जूझने में पूरी संभावना है कि रचनाकार नई ऊर्जा के साथ उसी तरह लौट आए जैसे व्याधि को जीतकर लौटता है। अब तो कैंसर से भी जूझकर लोग नया जीवन जीने लगे हैं।
लेकिन अंदर का यह रचनाकार आखिर सूखने क्यों लगता है? क्या हो जाता है? क्या प्रक्रिया होती है? रविशंकर की अभी मृत्यु हुई। वे 92 वर्ष की आयु के थे। सक्रियता से सितार बजाते थे। पिकासो भी 92 वर्ष तक पेंटिंग बनाते रहे। खुशवंत सिंह 96 वर्ष के हो रहे हैं। कुछ दिनों पहले तक उनका कॉलम आता रहा। जोहरा सहगल 100 वर्ष की हो चुकी हैं, लेकिन एक नवोदित कलाकार की तरह जिज्ञासा, उल्लास और कला की उत्तेजना के साथ बातें करती हैं। हुसैन अंतिम समय तक पेंटिंग बनाते रहे। फिर किसी के अंदर यह सूखा क्यों, कैसे पड़ जाता है? जरूर कुछ विशेष कारण होते होंगे। यदि रचनाकार के सूखने की किसी पौधे के सूखने से तुलना करें तो या तो खाद-पानी मिलना बंद हो जाए या कीड़ा लग जाए या धूप-रौशनी-हवा न मिले या समय-समय पर कटाई-छंटाई न हो। खाद-पानी यानी संवेदना-सरोकार-विचारशीलता खत्म हो जाए, कीड़ा लग जाए यानी संलग्नता, समय और ऊर्जा को दूसरे सरोकार खींचने लगें, धूप-हवा-रौशनी न मिले यानी अध्ययन और ज्ञान के दूसरे स्रोतों से संपर्क समाप्त हो जाए और कटाई-छंटाई न हो यानी उसकी बुरी रचनाओं और अहंकार को भी सराहा जाए। साहित्य की दुनिया में धीमी सांस और कछुए की चाल ही लेखक की नाड़ी होनी चाहिए वर्ना तो बुलबुले की तरह हवा में कुछ देर तैरकर फूट जाने वालों से साहित्य का नाबदान भरा पड़ा है। इसके अलावा दो चार कहानियां ‘फ्लूक’ में लिख लेने वाले या अपने से पहले की रचनाओं को अतिक्रमित न करने वाले, शेयर मार्केट की तरह साहित्य के मार्केट में बहुत कम समय में, बहुत कम ‘इन्वेस्ट’ करके, बहुत जल्दी, बहुत अधिक ‘रिटर्न’ पाने की उम्मीद में लिखने वाले या जीवित रहने की कठोर और बड़ी परिस्थितियों में निरंतर जूझने वाले लेखकों का रचनाकार भी बहुत जल्दी थक कर दम तोड़ देता है। सबसे दयनीय मृत्यु उनकी होती है जो आत्ममुग्धता, अहंकार और छोटे रास्तों पर विश्वास करते हुए, झूठी यश-लिप्सा के चलते हैमलिन के बांसुरी वादक के पीछे नाचते-गाते चूहों की तरह खुशी से आत्महत्या के मार्ग पर चल देते हैं।
प्रियंवद वरिष्ठ साहित्यकार व ‘अकार’ के संपादक हैं । यह आलेख ‘सलवटें’ का अंश है- संपादक
लेखक के भीतर बनते सूखे और न लिख पाने के बहुत से संकटों, अवरोधों, अंतर्विरोधो की शिद्दत से पड़ताल करता यह लेख कोरोना काल में बेहद प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण है। प्रियंवद जी को और विकल्प विमर्श को बहुत बहुत बधाई और साधुवाद।