असग़र वजाहत (जन्म – 5 जुलाई 1946) – हिन्दी साहित्य में कहानीकार एवं नाटककार के रूप में सम्मानित नाम है । कहानी, नाटक, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, फिल्म तथा चित्रकला आदि विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान किया है। इन्होने दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया में लगभग 40 वर्षों तक अध्यापन किया एवं हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष रहे । हम उनके जामिया से जुड़े संस्मरण धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं । (संपादक)
जामिया, मुजीब भाई और मैं – असगर वजाहत – 2
दिसम्बर 1971 में मैंने जामिया में पढ़ाना शुरू कर दिया था। चूँकि इससे पहले कभी कहीं नहीं पढ़ाया था, इसलिए काफी डर था कि मैं ठीक से पढ़ा सकूँगा या नहीं। ठीक से पढ़ाने के लिए मैंने यह सोचा कि क्लास में दिये जाने वाले लेक्चर को अच्छी तरह रट डालूँ और फिर क्लास में जाकर उसे बोलना शुरू कर दूँ। ये तरीका काम आया और धीरे-धीरे पढ़ाने का सिलसिला चल निकला। मुजीब भाई उस जमाने में रीडर थे, ‘हैड ऑफ दि डिपार्टमेंट’ थे। उनके अलावा विभाग में दो और लेक्चरर थे। इनमें से एक का नाम श्याम स्वरूप शर्मा था और दूसरे का नाम राधेश्याम पाठक। दोनों अपने ढंग के निराले लोग थे। राधेश्याम पाठक कविताएं लिखते
थे। उन्होंने कविताएं लिख कर दसियों मोटे-मोटे रजिस्टर भर दिये थे। आश्चर्य का विषय यह था कि उनकी कविता केवल जामिया की ‘राजनीति’ पर केन्द्रित हुआ करती थी। सुबह-सुबह स्टॉफ रूम में आते ही वे अपना रजिस्टर खोल लेते थे और कॉलेज में घटी किसी घटना पर अपनी नयी कविता सुनाते थे। कॉलेज की ‘राजनीति’ में मुख्य रूप से दो गुट थे। एक गुट प्रिंसिपल साहब का था जिसमें मुजीब भाई थे और दूसरा गुट अंसतुष्ट लोगों का गुट था जिसमें पाठक जी थे। अंसतुष्ट गुट का कोई नेता न था। पाठक जी लाजपत नगर में रहते थे। वहाँ से वे कम दाम पर कुछ सामान जैसे-साड़ियाँ और कपड़ा आदि खरीदकर ले आते थे। अपने थैले से निकाल कर यह सामान वे स्टॉफ रूम में रख देते थे। कभी-कभी कुछ लोग पाठक जी से साड़ियाँ और दीगर सामान खरीद भी लेते थे। पाठक जी हँसमुख आदमी थे। मज़ाक करना और हँसना-हँसाना उनकी आदत थी। वे जामिया कॉलेज में लेक्चरर होने से पहले जामिया हायर सेंकेडरी स्कूल में हिन्दी के अध्यापक थे। पाठक जी बहुत मिलनसार और सहृदय व्यक्ति थे।
सन् 1971 में जामिया की स्थिति बहुत अच्छी न थी। मतलब यह कि स्वर्णिम अतीत बीत चुका था। राष्ट्रीय आंदोलन के आदर्श समाप्त हो चुके थे। जामिया को भारत सरकार से पूरी ग्रांट मिलती थी। लेकिन जामिया नये साँचे में ढल नहीं पायी थी। वह अतीत के आदर्शों और वर्तमान के भ्रम में फँसी हुई थी। यही कारण था कि पुराने आदर्श टूट चुके थे और नये बन नहीं पाये थे। न तो उस समय अच्छी शिक्षा होती थी और न किसी दूसरे क्षेत्र में जामिया की कोई प्रतिष्ठा थी। अराजक छात्र आंदोलन हुआ करते थे और हर साल हड़तालों का सिलसिला भी जारी रहता था। सेशन के शुरू होते ही लड़के एक-आध डी.टी.सी. की बस जला देते थे। यह माना जाने लगा था कि नये सेशन की शुरुआत उस समय तक नहीं हो सकती जब तक डी.टी.सी. की बस जल न जाए। जामिया पुराने कॉलेज के ढाँचे में फंसा हुआ था। प्रभावशाली और सत्ता में रहने वाले अध्यापक ये नहीं चाहते थे कि जामिया कॉलेज से विश्वविद्यालय के स्वरूप में परिवर्तित हो। क्योंकि ऐसा होने से सत्ता में बने लोगों को हानि होती। प्रो. मुजीब बहुत विद्वान वाइस-चांसलर थे लेकिन उनसे नयी परिथतियों में काम नहीं हो पा रहा था और वे सत्ता से अलग भी नहीं हो रहे थे।
जामिया कॉलेज के कुछ अध्यापक ज़मीन बेचने और खरीदने के धंधे में लगे रहते थे। उनमें से कुछ ने इस कारोबार में बड़ा अच्छा पैसा कमाया था। एक-दो लोगों ने बाद में ‘मैनपावर एक्सपोर्ट’ का काम भी शुरू किया था। लेकिन अधिकतर अध्यापक पढ़ने और पढ़ाने तक ही सीमित थे। यह बात दूसरी है कि उस ज़माने में जामिया की पढ़ाई का स्तर बहुत ‘लो’ माना जाता था। आमतौर से वे छात्र जामिया में दाखिला लेते थे जिनको दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश नहीं मिल पाता था या आसपास के गाँव से वे छात्र आते थे जो केवल अच्छे परिवारों में शादी करने के लिए डिग्री लेना चाहते थे। यही वजह थी कि उस ज् ामाने में जामिया में लगातार छात्र आंदोलन नहीं बल्कि छात्र उपद्रव हुआ करते थे।
हिन्दी विभाग में दूसरे अध्यापक श्याम स्वरूप शर्मा जी हरियाणा के ब्राह्मण थे। उनका व्यक्तित्व और रूपरंग बहुत आकर्षक था। लेकिन बातचीत शुरू होने के बाद ही यह पता लग जाता था कि हिन्दी साहित्य में उनकी पैठ कितनी गहरी है। जामिया कॉलेज में लेक्चरर होने से पहले वे जामिया के ‘रूलर इंस्टीटयूट’ में हिन्दी के अध्यापक थे। उनकी रूचि तंत्र विद्या में थी। उनके घर में मनुष्य की खोपड़ी (स्कल) रखी रहा करती थी। वे कहते थे कि खोपड़ी का प्रयोग तंत्र विद्या में किया जाता है। इसके अतिरिक्त वे किसी प्रकार की स्वयंसेवी संस्था में भी सक्रिय थे और जामिया के नजदीक स्थित ‘होली फैमली अस्पताल’ की नर्सों से भी उनकी मित्रता थी। शर्मा जी बहुत सज्जन और शालीन व्यक्ति थे। आमतौर से कुर्ता-पज् ाामा पहनते थे जो उन पर बहुत फब्ता था। वे मुझे कभी-कभी चाय पिलाने अपने घर भी ले जाते थे। उनका घर कॉलेज के कैम्पस में ही था।
जामिया में नौकरी मिलने से पहले मैं आर.के. पुरम में अलीगढ़ के कुछ लड़कों के साथ ठहरा हुआ था। यह सरकारी फ्लैट जानवरों के सरकारी अस्पताल में काम करने वाले डॉक्टर को अलाट हुआ था। दो कमरों वाले फ्लैट का एक कमरा उसने सौ रुपये महीने पर दो-तीन लड़कों को उठा दिया था। हम लोग ‘घोड़ा डॉक्टर’ को खुश रखने के लिए डॉक्टर साहब-डॉक्टर साहब कहा करते थे और कभी-कभी वैसे ही झूठ-मूठ में कोई बीमारी बता कर उनसे दवा ले लिया करते थे। घोड़ा डॉक्टर के लिए यह बहुत बड़ी बात थी कि उनकी योग्यता से प्रभावित होकर आदमी भी उससे इलाज् ा करवा रहे हैं। घोड़ा डॉक्टर की बूढ़ी माँ का दिमांग कुछ खिसका हुआ था। उसको यह पता लग गया था कि घोड़ा डॉक्टर ने फ्लैट का एक कमरा मुसलमान लड़कों को उठा दिया है। इस बात से बुढिया बहुत दु:खी रहा करती थी और फ्लैट के बरामदे में बैठ कर हम लोगों को कोसती रहती थी। घोड़ा डॉक्टर ने हमसे कह रखा था कि हम उसकी माँ की बातों पर ध्यान न दिया करें क्योंकि उसका दिमांग सही नहीं है। हम लोगों ने डॉक्टर साहब की बात पर पूरा विश्वास कर लिया था। आर. के. पुरम से जामिया आना उन दिनों एक टेढ़ी खीर हुआ करती थी। बसों का हाल यह होता था कि उनमें तिल रखने की जगह नहीं होती थी। रिंग रोड पर फट-फट सेवा चला करती थी जिस पर बैठ कर आश्रम पहुँचता था।
सन् 1980 के आसपास दिल्ली की सड़कों से फट-फट सेवा गायब हो चुकी थी। फट-फट सेवा बहुत रोचक सवारी हुआ करती थी। द्वितीय विश्व युध्द के बाद सेना ने हजारों मोटर-साइकिलों की नीलामी की थी। ये मोटर साइकिलें आज की मोटर साइकिलों की तुलना में कम-से-कम दुगनी बड़ी हुआ करती थी। दिल्ली के लोगों ने अपने जुगाड़ बुध्दि का इस्तेमाल करके इन मोटर साइकिलों के पीछे एक गाड़ी जैसी बना दी थी। जिसमें चार सीटें होती थीं। ये गाड़ी चारों तरफ से खुली होती थी। लेकिन ऊपर छत होती थी। बाद में कुछ फट-फट सेवा बनाने वालों ने डीज् ाल के छोटे-छोटे इंजन भी लगा लिये थे जिसके कारण फट-फट काला और गाढ़ा धुँआ फेंका करते थे। फट-फट सेवा के रूट तय थे। सबसे बड़ी फट-फट सेवा कनाट प्लेस से चाँदनी चौक (फव्वारा) तक हुआ करती थी।
आर.के. पुरम से जामिया आने-जाने वाली तकलींफ से बचने के लिए मैंने ओखला गाँव में 80 रुपये महीने पर एक कमरा किराये पर ले लिया था। गाँव के एक नम्बरदार ने अपने घर के ऊपर तीन-चार कमरे बनवा कर किराये पर चढ़ा रखे थे। दूसरे कमरों में कुछ छात्र और स्कूल के अध्यापक रहते थे। कमरा किराये पर लेने के बाद जब मैं पहली रात कमरे में सोने के लिए आया था तो फर्श के सिवाय कमरे में कोई फर्नीचर न था। न कोई बिस्तर था, न कोई चादर थी, न तकिया था। मैंने कुछ अंखबार बिछा लिये थे और उन पर लेट गया था। यह देखकर अगले दिन पड़ोस के कमरे से किसी ने एक चटाई दे दी थी। कमरे में चूंकि कुछ न था इसलिए पहले से लगी कीलों में मैंने अपने कपड़े टाँग दिये थे। धीरे-धीरे चीज् ाें जुड़ती गयी थीं और जीवन अपने ढर्रे पर आने लगा था।
उस समय तक जामिया कॉलेज में केवल बी.ए. ऑनर्स तक की पढ़ाई होती थी। यह जामिया का संक्रमण काल था। मतलब यह कि पुराना सब कुछ टूट चुका था और नया नहीं बन पाया था। जामिया का वैभवशाली अतीत अब भी प्रभावित कर रहा था। जामिया में सबकी यह राय नहीं थी कि पुराने को छोड़कर जामिया नयी परिस्थितियों में नया रूप ले ले। इसकी वजह शायद यह थी कि जामिया का अतीत बहुत महान था और उस महानता से बाहर निकलकर साधारण बन जाना अच्छा नहीं समझा जा रहा था।
जामिया का गौरवशाली अतीत क्या था इसकी जानकारी मुझे पुराने अध्यापकों और विशेष रूप से राधेश्याम पाठक जी से मिलती रहती थी। उन जानकारियों के आधार पर यह लगता था कि आज् ाादी से पहले जामिया ज् ारूर एक महान संस्था रही होगी। जामिया की चेतना का निर्माण आधुनिक, उदारवादी मुस्लिम मानसिकता, राष्ट्रीय आंदोलन, गाँधीवाद, प्रयोगधर्मिता, साम्राज्यवाद विरोध, यूरोप के आधुनिक जीवन मूल्यों और शिक्षा पध्दति के मिश्रण से हुआ था। जामिया ने शिक्षा और जीवन के संबंधों पर बहुत गहराई से विचार किया था और अपनी शिक्षा पध्दति को जीवन सापेक्ष और प्रयोगधर्मी बनाया था। इस कोशिश में सैकड़ों लोगों ने अकथनीय त्याग किया था। इस त्याग के कुछ रोचक और महत्तवपूर्ण प्रसंग जामिया के पुराने लोगों से ही सुनने को मिला करते थे।
पाठक जी बताया करते थे कि उस जमाने में चंदे से चलने वाली जामिया के पास पैसे की हमेशा कमी रहा करती थी। एक दिन एक कसाई अपने पैसे लेने जामिया के खजांची के पास पहुँचा। वह हॉस्टल में गोश्त सप्लाई किया करता था। उसने खजांची से कहा कि तीन महीने हो गये हैं, अभी तक तुम लोगों ने मुझे एक पैसा नहीं दिया। आज मैं अपना पूरा पैसा वसूल करके जाऊँ गा। खजांची ने कहा कि देखो, खजाने में एक चवन्नी पड़ी है और वह भी खोटी। मैं तुम्हें उससे ज्यादा कुछ नहीं दे सकता। अगर ज्यादा बात करनी हो तो ज़ाकिर साहब बैठे हैं उनसे जाकर बात करो। !
‘अकार’ से साभार – आगे जारी…..