तबलीगी जमातः निराशा के माहौल में उम्मीद की किरण है बॉम्बे हाई कोर्ट का फ़ैसला

अनिल जैन

जब-जब भी न्यायपालिका को लेकर लोगों का भरोसा डिगने लगता है और वे हताश-निराश होने लगते हैं, तब-तब न्यायपालिका के किसी न किसी हिस्से से ऐसी कोई आवाज आ जाती है, जो आश्वस्त करती है कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। कोरोना महामारी की आड़ में एक समुदाय विशेष को निशाना बनाने और सत्तारूढ दल के पक्ष में अभियान चलाने के इस काम में मुख्यधारा के मीडिया का एक बडा हिस्सा भी इस बढ़-चढ़ कर शिरकत कर था। तमाम टीवी चैनलों पर प्रायोजित रूप से तबलीगी जमात के बहाने पूरे मुस्लिम समुदाय के खिलाफ मीडिया ट्रायल जा रहा था।

‘अस्पताल में तबलीगियों ने बिरयानी मांगी’, ‘जमातियों ने अपने कपड़े उतारकर नर्सों को घूरा’, ‘मौलानाओं ने डॉक्टरों पर थूका’, ‘तबलीगी ने नर्सों के सामने पेशाब किया’, ‘मौलाना अस्पताल से फरार’, ‘तबलीगी जमातियों ने अपना ब्लड सेंपल देने से इनकार किया’, ‘जमाती ने नर्स का हाथ पकड़ा’….मार्च महीने लॉकडाउन शुरू होने के ठीक बाद से लेकर लगभग दो महीने तक तमाम टेलीविजन चैनलों पर सुबह से लेकर देर रात यही खबरें छाई हुई थीं, जिन्हें बदतमीज, कुपढ़ और हिंसक वृत्ति के रिपोर्टर और एंकर चीख-चीख कर दिखा रहे थे। ज्यादातर अखबार भी अपने पाठकों को यही खबरें परोस रहे थे और यही खबरें सोशल मीडिया में भी वायरल हो रही थीं। रही सही कसर केंद्र सरकार के मंत्री, कुछ राज्यों के मुख्यमंत्री, सत्तारूढ़ दल और पुलिस सहित तमाम सरकारी एजेंसियों के प्रवक्ता पूरी कर दे रहे थे। कुल मिलाकर सबकी कोशिश ऐसी तस्वीर बना देने की थी, मानो कोरोना एक समुदाय विशेष की ही बीमारी है और वही समुदाय इसे देशभर में फैला रहा है।

मीडिया और सरकार के इसी गैर जिम्मेदाराना रवैये पर बॉम्बे हाई कोर्ट ने सख्त टिप्पणियां करते हुए विदेशों से आए तबलीगी जमात के 29 सदस्यों के खिलाफ दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) को खारिज किया है।

जब-जब भी न्यायपालिका को लेकर लोगों का भरोसा डिगने लगता है और वे हताश-निराश होने लगते हैं, तब-तब न्यायपालिका के किसी न किसी हिस्से से ऐसी कोई आवाज आ जाती है, जो आश्वस्त करती है कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। इन दिनों कई मामलों को लेकर देश की न्यायपालिका की कार्यशैली पर उठ रहे संदेह और सवालों के धुएं के बीच बॉम्बे हाई कोर्ट का यह फैसला उम्मीद की रोशनी बन कर आया है।

भारत में कोरोना संक्रमण के शुरुआती दौर में मुस्लिम समुदाय के जिस धार्मिक संगठन तबलीगी जमात को लेकर खूब शोर मचा था, उसे लेकर बॉम्बे हाई कोर्ट की औरंगाबाद खंडपीठ ने बेहद अहम टिप्पणी की है। हाई कोर्ट ने कहा है कि दिल्ली में तबलीगी जमात के कार्यक्रम में शिरकत करने विदेश से आए लोगों को कोरोना संक्रमण फैलने के मामले में ‘बलि का बकरा’ बनाया गया। अदालत ने इस संबंध में राज्य सरकार और मीडिया के रवैये की सख्त आलोचना करते हुए विदेश से आए 29 जमातियों के खिलाफ दर्ज एफआईआर को भी रद्द कर दिया। यह एफआईआर महाराष्ट्र पुलिस द्वारा टूरिस्ट वीजा नियमों और शर्तों के कथित तौर पर उल्लंघन को लेकर दर्ज की गई थी।

अदालत ने घाना, तंजानिया, इंडोनेशिया और कुछ अन्य देशों के तबलीगी जमात से जुडे लोगों की याचिकाओं पर अपना फैसला देते हुए कहा, ”राजनीतिक सत्ता किसी भी महामारी या आपदा के दौरान कोई बलि का बकरा खोजती है और मौजूदा हालात इस बात को दिखाते हैं कि इन विदेशियों को बलि का बकरा बनाया गया है। जबकि पहले के हालात और भारत में कोरोना संक्रमण से संबंधित ताजा आंकडे यह दिखाते हैं कि इन लोगों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। अदालत ने कहा, ”हमें इसे लेकर पछतावा होना चाहिए और इन लोगों को हुए नुकसान की भरपाई के लिए कुछ सकारात्मक कदम उठाने चाहिए।’’

हाई कोर्ट ने साफ कहा कि वीजा शर्तों के अनुसार धार्मिक स्थलों पर जाने और धार्मिक प्रवचनों के कार्यक्रम में भाग लेने जैसी सामान्य धार्मिक धार्मिक गतिविधियों के लिए विदेशियों पर कोई प्रतिबंध नहीं है। अदालत ने कहा, ”किसी भी स्तर पर यह अनुमान लगाना संभव नहीं है कि विदेशों से आए ये लोग इस्लाम धर्म का प्रचार कर रहे थे और उनका इरादा लोगों का धर्मांतरण कराना था।’’

जस्टिस टीवी नलावडे और जस्टिस एमजी सेवलिकर की खंडपीठ ने अपने विस्तृत फैसले में केंद्र सरकार को भी इस बात के लिए आडे हाथों लिया कि उसने मार्च महीने में भारत आए गैर मुस्लिम और मुस्लिम यात्रियों (तबलीगी जमात के सदस्यों) के साथ अलग-अलग तरह का व्यवहार किया, जो कि हमारे देश की अतिथि देवो भव: की संस्कृति और भारतीय संविधान की मंशा के भी प्रतिकूल था।

अदालत ने इस पूरे मामले में मीडिया की भूमिका को बेहद निराशाजनक और निंदनीय करार देते हुए कहा कि मीडिया ने मुसलमानों को बदनाम करने की नीयत से एक अभियान के तहत तबलीगी जमात के लोगों पर कोरोना फैलाने का आरोप लगाया, जिसका कि कोई आधार नहीं था। अदालत ने कहा कि भारत में कोरोना संक्रमण के जो मौजूदा आंकड़े हैं, वे भी यही साबित करते हैं कि तबलीगी जमात के खिलाफ कोरोना फैलाने का आरोप सरासर गलत था।

बॉम्बे हाई कोर्ट के इस फैसले से पहले जून के महीने में मद्रास हाई कोर्ट ने भी विदेशों से आए तबलीगी जमात के सदस्यों के खिलाफ दर्ज एफआईआर को खारिज कर दिया था, जब उसने पाया था कि जमात के सदस्य ‘हद से ज्यादा पीड़ित’ हो चुके हैं और वे अपने-अपने देश लौटने की व्यवस्था करने के लिए केंद्र सरकार से कई बार अनुरोध भी कर चुके हैं।

गौरतलब है कि मार्च के महीने दिल्ली के निजामुद्दीन स्थित तबलीगी जमात के मरकज में एक कार्यक्रम हुआ था। उसमें देश-विदेश के करीब 9000 लोगों ने शिरकत की थी। कार्यक्रम खत्म होने पर बडी संख्या में आए भारतीय तो अपने-अपने राज्यों में लौट गए थे लेकिन लॉकडाउन लागू हो जाने के कारण विदेशों से आए लोग मरकज में ही फंसे रह गए थे। वहां से निकले लोग जब देश के अलग-अलग राज्यों में पहुंचे तो वहां कोरोना संक्रमण बहुत तेजी से फैलना शुरू हो चुका था। मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए हमेशा मौके की तलाश में रहने वाले लोगों ने महामारी के इस दौर को अपने अभियान के लिए माकूल अवसर माना और सोशल मीडिया के जरिए जमकर दुष्प्रचार किया कि तबलीगी जमात के लोगों की वजह से कोरोना का संक्रमण फैल रहा है। तबलीगी जमात के बहाने मुस्लिम समुदाय के खिलाफ नफरत फैलाने के अभियान को तेज करने में लगभग सभी टीवी चैनलों और अधिकांश अखबारों ने भी बढ़-चढ़कर अपनी भूमिका निभाई और ऐसी तस्वीर बना दी गई कि भारत में कोरोना संक्रमण फैलाने के तबलीगी जमात के लोग ही जिम्मेदार हैं।

कोरोना महामारी की आड़ में मुसलमानों के खिलाफ जिस तरह सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर योजनाबद्ध तरीके से नफरत-अभियान और मीडिया ट्रायल चलाया जा रहा था, उसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। यूरोपीय देशों के मीडिया में भी भारत की घटनाएं खूब जगह पा रही थीं। सबसे पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस तरह का अभियान बंद करने की अपील की और कहा था कि इस महामारी को किसी भी धर्म, जाति या नस्ल से न जोड़ा जाए। बाद में खाड़ी के देशों ने भी भारतीय घटनाओं पर सख्त प्रतिक्रिया जताई थी। कुवैत और सऊदी अरब ने तो कोरोना महामारी फैलने के लिए मुस्लिम समुदाय को जिम्मेदार ठहराने और मुसलमानों को प्रताड़ित किए जाने की घटनाओं पर भारत सरकार को चेतावनी देने के अंदाज में चिंता जताई थी।

इन प्रतिक्रियाओं पर न सिर्फ भारतीय राजदूतों को सफाई देनी पड़ी थी, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी ट्वीट करके कहना पडा था कि कोरोना नस्ल, जाति, धर्म, रंग, भाषा आदि नहीं देखता, इसलिए एकता और भाईचारा बनाए रखने की जरुरत है। इससे पहले भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा को अपनी पार्टी के नेताओं से कहना पडा था कि वे कोरोना महामारी को लेकर सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाले बयान देने से परहेज बरतें। हालांकि प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष की ये अपीलें पूरी तरह बेअसर रही थी, मगर इनसे इस बात की तस्दीक तो हो ही गई थी कि देश में कोरोना महामारी का राजनीतिक स्तर पर सांप्रदायीकरण कर एक समुदाय विशेष को निशाना बनाया जा रहा है। यह सब करते और कराते हुए इस बात पर जरा भी विचार नहीं किया गया कि इसका खाड़ी के देशों में रह रहे भारतीयों के जीवन पर क्या प्रतिकूल असर हो सकता है।

हकीकत यह भी रही कि प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के अध्यक्ष ने भले ही औपचारिक तौर कुछ भी कहा हो, मगर कोरोना को लेकर सांप्रदायिक राजनीति सरकार के स्तर पर भी हो रही थी और सत्तारूढ पार्टी तथा उसके सहयोगी संगठन भी अपने राजनीतिक एजेंडा को आगे बढाने के लिए महामारी की इस चुनौती को एक अवसर के तौर पर इस्तेमाल कर रहे थे।

अगर ऐसा नहीं होता तो भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल कोरोना संक्रमण के शुरुआती दौर में रोजाना की प्रेस ब्रीफिंग में कोरोना मरीजों के आंकड़े संप्रदाय के आधार पर नहीं बताते, गुजरात में कोरोना मरीजों के इलाज के लिए हिंदू और मुसलमानों के लिए अलग-अलग वार्ड नहीं बनाए जाते, भाजपा कार्यकर्ता गली, मोहल्लों और कॉलोनियों में फल-सब्जी बेचने वाले मुसलमानों के बहिष्कार का अभियान नहीं चलाते, मुसलमानों को कोरोना बम कह कर उनका मजाक नहीं उड़ाया जाता, पुलिस लॉकडाउन के दौरान सड़कों पर निकले लोगों के नाम पूछ कर पिटाई नहीं करती, जरूरतमंद गरीबों को सरकार की ओर से बांटी जाने वाली राहत सामग्री, भोजन के पैकेट, गमछों और मास्क पर प्रधानमंत्री की तस्वीर और भाजपा का चुनाव चिह्न नहीं छपा होता, भाजपा का आईटी सेल अस्पतालों में भर्ती तबलीगी जमात के लोगों को बदनाम करने के लिए डॉक्टरों पर थूकने वाले फर्जी वीडियो और खबरें सोशल मीडिया में वायरल नहीं करता और खुद प्रधानमंत्री लॉकडाउन के दौरान लोगों से एकजुटता दिखाने के नाम पर थाली, घंटा, शंख आदि बजाने और दीया-मोमबत्ती जलाने जैसी धार्मिक प्रतीकों वाली अपील नहीं करते।

कोरोना महामारी की आड़ में एक समुदाय विशेष को निशाना बनाने और सत्तारूढ दल के पक्ष में अभियान चलाने के इस काम में मुख्यधारा के मीडिया का एक बडा हिस्सा भी इस बढ़-चढ़ कर शिरकत कर था। तमाम टीवी चैनलों पर प्रायोजित रूप से तबलीगी जमात के बहाने पूरे मुस्लिम समुदाय के खिलाफ मीडिया ट्रायल जा रहा था। यही नहीं, मीडिया को सांप्रदायिक नफरत फैलाने से रोकने के लिए जब एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई तो प्रधान न्यायाधीश की अगुवाई वाली पीठ ने प्रेस की आजादी की दुहाई देते हुए उस याचिका को खारिज कर दिया।

अगर इस तरह के संगठित अभियान को लेकर ‘शक्तिशाली’ प्रधानमंत्री जरा भी चिंतित होते तो इतनी देरी से एक अपील जारी करने की खानापूर्ति करने के बजाय वे इस तरह का अभियान चलाने वालों को सख्त चेतावनी देते। कोरोना काल में प्रधानमंत्री मोदी ने अब तक छह बार टीवी पर राष्ट्र को संबोधित किया है लेकिन किसी एक संबोधन में भी उन्होंने इस महामारी का सांप्रदायीकरण करने के अभियान पर न तो नाराजगी जताई, न ही अभियान चलाने वालों को कोई चेतावनी दी और न ही नफरत फैलाने वाली खबरें दिखाने और बहस कराने वाले टीवी चैनलों को नसीहत दी। नतीजा यह हुआ कि नफरत फैलाने का यह अभियान परवान चढता गया। यही वजह है कि पूरी दुनिया में कोरोना संक्रमण धीरे-धीरे उतार पर है, जबकि भारत में यह बढता जा रहा है। रोजाना 60 से 70 हजार तक संक्रमण के मामले सामने आ रहे हैं।

हम कोरोना के संकट से आज नहीं तो कल उबर ही जाएंगे, मगर जिस तरह यह महामारी इतिहास के पन्नों में दर्ज होगी, उसी तरह यह भी दर्ज होगा कि दुनिया के तमाम दूसरे देशों ने जब अपनी पूरी ऊर्जा कोरोना की चुनौती से निबटने में लगा रखी थी, तब भारत में सरकार, उसके समर्थकों का एक बडा हिस्सा और मुख्यधारा का मीडिया अपनी पूरी क्षमता के साथ तबलीगी जमात के बहाने एक समुदाय के खिलाफ नफरत को हवा देने में जुटा हुआ था। बॉम्बे हाई कोर्ट की टिप्पणी भी परोक्ष रूप से इसी बात की ओर इशारा करती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) सौज- न्यूज क्लिक

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *