राज्यसभा द्वारा बुधवार को पारित विदेशी अनुदान (नियमन) संशोधन बिल, 2020 को राजनैतिक संदर्भ में समझा जाना होगा। इसका संदेश स्पष्ट है: भारत में गढ़े जा रहे सत्ता के आख्यान को मिल रही किसी भी चुनौती को संदेह की निगाह से देखा जाएगा और पूरी ताकत से कुचल दिया जाएगा। सिविल सोसायटी यानी नागरी समाज, जो मानता है कि उसकी प्राथमिक भूमिकाओं में एक है सत्ता की जवाबदेही को सुनिश्चित करना और हाशिये के वंचित लोगों के पक्ष में पक्षपातहीन राजनीतिक कार्रवाई करना, उसे संदेश दिया गया है कि अब वह भी कतार में आ जाए। सरकार का संदेश है कि इस देश में नागरी समाज को अगर खुद को बचाना है तो उसे केवल सेवा प्रदाता की भूमिका में रहना होगा अन्यथा खत्म हो जाना होगा।
लोकसभा ने सोमवार को यह विधेयक पास किया था, जिसमें सिविल सोसायटी को विदेश से अनुदान प्राप्त करने की शर्तों को बतलाया गया है। इसका शिक्षा, स्वास्थ्य, लोगों की आजीविका, लैंगिक न्याय और भारतीय लोकतंत्र पर दूरगामी असर होने वाला है।
इस बिल की व्याख्या इस पर निर्भर करती है कि आप इसे कहां से देख रहे हैं। एक ओर इसे एक दमनकारी कानून में किये गये निष्ठुर बदलाव की संज्ञा दी जा सकती है। दूसरी तरफ, इसे एक ढीलाढाला लचर कानून कहा जा सकता है क्योंकि जिस क्षेत्र को यह नियंत्रित करना चाहता है, उसके काम करने की शैली की बुनियादी समझ और विश्लेषण का इसमें अभाव है। यह सही है कि हमारी मौजूदा प्रशासनिक और नियामक प्रणालियां उतनी सक्षम नहीं हैं, लेकिन यह भी सच है कि संशोधित विधेयक विभिन्न हितधारकों पर इतने बुनियादी बदलावों के पड़ने वाले असर से गाफिल है।
आश्चर्य की बात है कि यह बिल सदन में कपटपूर्ण तरीके से लाया गया। बीते 20 सितम्बर को जब यह लोकसभा में प्रस्तुत किया गया, तब तक इस बिल का मसविदा सार्वजनिक नहीं हुआ था। सदन में रखे जाने से पहले इस पर न तो कोई सार्वजनिक रायशुमारी की गयी और न ही किसी हितधारक से परामर्श किया गया। आम तौर से चलन है कि किसी भी बिल को सदन के पटल पर रखे जाने से पहले उसका मसविदा सार्वजनिक परामर्श और हितधारकों की प्रतिक्रियाओं के लिए खोला जाता है। इस मामले में ऐसा न किया जाना अजीब है।
इससे यह धारणा पुष्ट होती है कि यह बिल संकीर्ण राजनैतिक मानसिकता से प्रेरित है, जहां संविधान में वर्णित मानक प्रक्रिया और नज़रिये का अतिक्रमण किया गया। यह बिल इस तथ्य की उपेक्षा करता है कि भारत में अब भी भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, आश्रय, आजीविका और इंसानी प्रतिष्ठा जैसी बुनियादी आवश्यकताओ का अभाव है, जो विकास का पैमाना हैं।
केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने संसद को बताया कि इस बिल का उद्देश्य गैर-सरकारी संगठनों को जवाबदेह और पारदर्शी बनाकर नियामित करना है। एक और घोषित उद्देश्य है विदेशी धन से समर्थित धर्मांतरण पर लगाम कसना। तीसरा उद्देश्य ‘’सरकारी नौकर’’ की परिभाषा को व्यापक कर के उसमें ‘’लोक सेवकों’’ को समाहित करना है यानी वे सभी लोग जो विदेशी अनुदान प्राप्त नहीं कर सकते।
कानून में किये गये संशोधनों पर एक सरसरी निगाह डालने से साफ़ समझ में आता है कि पहले दो घोषित उद्देश्य किसी भी तरह इससे पूरे नहीं होने वाले हैं। इसके बजाय, ये नौकरशाही से जुड़ी नयी अड़चनें ही पैदा करेंगे जिनका घोषित उद्देश्यों से कोई लेना-देना नहीं है। तीसरा घोषित उद्देश्य किसी व्यापक सवाल से नहीं जुड़ा है, बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि यह लॉयर्स कलेक्टिव के साथ प्रतिशोध के चक्कर में सरकार की प्रतिक्रिया का सीधा परिणाम है।
चाहे जो हो, अगर यह वास्तव में सरकार का उद्देश्य था भी (जिस पर सवाल हैं) तो यह इतने सारे संशोधनों को कहीं से सही नहीं ठहराता। यह उद्देश्य तो कुछ मामूली संशोधनों से ही हासिल किया जा सकता था।
सिविल सोसायटी के संगठन चूंकि दूसरों से जवाबदेही की मांग करते हैं, लिहाजा उनकी नैतिक बाध्यता है कि वे खुद तमाम तरीकों से जवाबदेह और पारदर्शी रहें और इस मामले में उच्च मानकों का पालन करें। यह सिविल सोसायटी संगठनों की जाहिर प्रतिबद्धता तो है ही, लेकिन यह कहना भी जरूरी है कि एनजीओ सेक्टर इस देश के सर्वाधिक नियामित क्षेत्रों में एक है। संस्थाओं को हर साल कम से कम चार विस्तृत और अहम रिपोर्टें सरकार को जमा करनी होती हैं।
संस्थाओं को आयकर कानूनों का पालन करना होता है और नियमित आयकर रिपोर्ट दाखिल करनी होती है। दूसरी रिपोर्ट गृह मंत्रालय के एफसीआरए विभाग को जमा करनी होती है। तीसरी रिपोर्ट चैरिटी कमिश्नर या कंपनी पंजीयक के यहां लगानी होती है और चौथी रिपोर्ट डोनर यानी दानदाता को जमा करनी होती है। इनके अलावा देश में लागू तमाम दूसरे कानून इस सेक्टर पर बराबर और निरंतर लागू होते ही हैं, जैसे प्रॉविडेंट फंड कानून और ग्रैच्युटी, आदि।
इतना सब होने के बाद भी एफसीआरए में किया गया मौजूदा संशोधन एक और शर्त जोड़ता है कि संस्थाओं को अब छोटी-छोटी चीज़ों, जैसे बैंक खाते में या संपर्क पते में हुए बदलाव अथवा किसी एक बोर्ड सदस्य में हुए बदलाव की सूचना दो सप्ताह के भीतर गृह मंत्रालय के एफसीआरए विभाग को देनी होगी।
इसके अलावा, एफसीआरए की वेबसाइट पर हर तिमाही एफसीआरए पंजीकृत प्रत्येक संस्था को विदेशी अनुदान से हुई अपनी आय, सम्बंधित परियोजना और दानदाता के विवरणों के साथ रिपोर्ट लगानी होगी। जिस देश में हर क्षेत्र में नौकरशाही और नियमन को कम से कम करने की बात की जाती हो, वहां एनजीओ सेक्टर में पहले से मौजूद नियमन के स्तर को अपर्याप्त बताया जाना अचम्भित करता है।
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि इस सेक्टर में भी कुछ खराब तत्व हैं (जैसा कि हर क्षेत्र में होते ही हैं), लेकिन मौजूदा नियामक ढांचे के गंभीर अनुपालन के रास्ते उन्हें छांटा जा सकता था। अहम बात यह है कि जितने भी संशोधन सुझाये गये हैं उनसे कोई जवाबदेही या पारदर्शिता नहीं बढ़ने वाली। इसके बजाय, ये गैर-सरकारी संस्थाओं को नौकरशाही के मकड़जाल में फंसा देंगे जहां अधिकारी अपनी मनमर्जी कार्रवाइयां करने को स्वतंत्र होंगे।
प्रस्तावित संशोधनों के संदर्भ में धर्मांतरण पर चर्चा बिलकुल आकस्मिक तरीके से सामने आती है। इस उद्देश्य के समर्थन में दी गयी दलीलों को ध्यान से पढ़ने पर पता चलता है कि इसे हासिल नहीं किया जा सकेगा। यह महज एक भुलावा है जो अपने हिंदुत्ववादी जनाधार से इस सरकार को राजनीतिक समर्थन पुष्ट करने के काम आएगा।
इसे रेखांकित किया जाना जरूरी है कि अनुदान के विदेशी स्रोत ज्यादातर चर्च से आते हैं यह बात झूठी है। दानदाताओं की बड़ी संख्या या तो धर्मार्थ संस्थाएं हैं या सरकारी एजेंसियां, जिनका चर्च से कोई सम्बंध नहीं। इसी तरह, जिन्हें अनुदान मिलता है उनमें बहुसंख्य संगठनों का धर्म के काम से कोई लेना-देना नहीं है। इसके बजाय, ये संस्थाएं विकास के सवालों पर काम करती हैं, जैसे गरीबी उन्मूलन, निर्धनतम लोगों के लिए आजीविका निर्माण या लैंगिक न्याय।
अब जबकि बिल पास हो चुका है, इसके अहम संशोधनों और उनके निहितार्थों की पड़ताल करना ज़रूरी है ताकि यह समझा जा सके कि आखिर वानी- वॉलन्टरी ऐक्शन नेटवर्क ऑफ इंडिया– ने इसे एनजीओ सेक्टर की मौत का फ़रमान क्यों बताया है। आइए, प्रस्तावित पांच अहम संशोधनों को एक- एक कर के देखते हैं।
पहला, कोई एफसीआरए पंजीकृत संगठन खुद को मिला विदेशी अनुदान किसी दूसरे एफसीआरए पंजीकृत संगठन को नहीं दे सकता। सिविल सोसायटी जिस तरीके से काम करती है, उस लिहाज से यह बदलाव विनाशकारी है। एनजीओ दूसरी संस्थाओं को री-ग्रांट क्यों देते हैं, इसका सार इस सेक्टर की सहयोगात्मक और साझा कार्यवाहियों के इस विचार में निहित है कि कठिन सामाजिक समस्याओं को संबोधित करने के लिए विविध किस्म की विशेषज्ञताओं को एक जगह पर लाया जा सके। इसमें यह स्वीकार्यता भी निहित है कि भारत के अधिकतर एनजीओ छोटे हैं और समुदायों के साथ मिलकर ज़मीनी काम करते हैं, लिहाजा उनके पास अनुदान के लिए प्रपोज़ल लिखने से लेकर दानदाताओं के साथ संवाद करने का कौशल नहीं होता। इस इकलौते संशोधन ने एक झटके में करोड़ों गरीब नागरिकों को मिलने वाली राहत और सहयोग के समूचे मॉडल पर ही हमला बोल दिया है।
यह भी याद रखना होगा कि इससे पहले भी एफसीआरए का पैसा केवल एफसीआरए पंजीकृत संगठनों को ही री-ग्रांट किया जा सकता था। सवाल उठता है कि जब एफसीआरए विभाग उन्हें पहले ही सब ठोंक बजाकर मंजूरी दे चुका है, तो काम करने के इस मॉडल पर कुठाराघात करने की जरूरत ही क्या थी? इसका कुल असर यह होगा कि ज़मीन पर चलने वाला काम बाधित होगा और बड़े संगठनों के आगे छोटे-छोटे संगठन किनारे लग जाएंगे।
दूसरे, विदेशी अनुदान पाने वाली संस्थाओं का प्रशासनिक मद में व्यय अब 20 फीसद पर लाकर सीमित कर दिया गया है। यह स्पष्ट रूप से विधायिका के अतिक्रमण का मामला है। अगर दानदाता खुद प्रशासनिक मद में ज्यादा पैसा देने को तैयार हो, तो सरकार को इस पर क्यों एतराज़ हो? दो इकाइयों के बीच अनुबंध में सरकार के अनधिकृत प्रवेश का यह मामला बनता है, जो कानून के बुनियादी सिद्धांत की उपेक्षा है।
गहरे दार्शनिक सवालों को छोड़ दें, तो कामकाजी स्तर पर भी ये संशोधन विनाशकारी साबित होने वाले हैं। इसे सिविल सोसायटी के काम करने के तरीकों के संदर्भ में समझा जाना होगा। प्रशासनिक मद के 20 फीसद तक सीमित किये जाने को उन संगठनों के मामले में फिर भी समझा जा सकता है जो बड़े बजट में काम करते हैं और प्रत्यक्ष सेवा प्रदाता हैं। यदि कोई एनजीओ शोध, प्रशिक्षण और पैरोकारी जैसे काम करता हो, तब तो 20 फीसद प्रशासनिक व्यय की सीमा बहुत कम होगी। इसका व्यवहार में मतलब यह निकलता है कि सरकार अब केवल उन्हीं संस्थाओं को काम करने देगी जो प्रत्यक्ष सेवाएं देने का काम करते हैं और उन्हें नहीं रहने देगी जो समाज में दूसरी अहम भूमिकाएं निभाते हैं।
इसे एक और तरीके से समझा जा सकता है। अकसर प्रशासनिक मद में ज्यादा व्यय की सीमा संस्थानों को दूसरी बड़ी सरकारी या सीएसआर परियोजनाओं को क्रॉस सब्सिडी के माध्यम से चलाने में मदद करती हैं। ज्यादातर सरकारी या सीएसआर परियोजनाओं में प्रशासनिक मद में व्यय की सीमा 5 से 6 फीसद होती है, लेकिन इनकी अहमियत को देखते हुए अकसर एनजीओ अपने विदेशी अनुदान पर टिकी परियोजनाओं के प्रशासनिक मद से इनके लिए पैसा निकालते हैं ताकि सरकारी/सीएसआर परियोजनाओं को चलाये रख सकें।
तीसरी बात, सबसे अजीबोगरीब प्रस्ताव जो बिल में आया है वो है सभी एफसीआरए संस्थाओं के बैंक खातों के दिल्ली स्थित किसी भारतीय स्टेट बैंक शाखा में होने की अनिवार्यता। इसमें केंद्रीकरण की जबरदस्त कोशिश और खुद अपने बैंकिंग तंत्र पर सरकार के संदेह की बात छोड़ भी दें, तो इंटरनेट और डिजिटल इंडिया के नारों के बीच यह संशोधन एक त्रासद प्रहसन की तरह हमारे सामने आता है।
चौथी अनिवार्यता यह है कि संगठनों के सभी अहम पदाधिकारी अपने आधार कार्ड जमा करावें। आधार पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बावजूद ऐसा प्रावधान निराशाजनक है। जो भी सिविल सोसायटी समूह विश्वसनीय होगा, वह स्वेच्छा से खुद अपने लोगों के निजी विवरण देगा। फिर आधार की अनिवार्यता क्यों? जवाबदेही और पादर्शिता को पासपोर्ट, पैन या ऐसे ही किसी दस्तावेज़ से क्यों नहीं सुनिश्चित किया जा सकता?
और अंत में, नये संशोधनों में सरकार को जांच की अवधि बढ़ाने, संपत्ति राजसात करने और ऐसे ही अन्य प्रावधानों के रास्ते बख्शी गयी कार्रवाई की ताकत पहले से ही कठोर एक कानून को व्यवहार में और निर्दय बना देगी। अब भी ऐसे तमाम केस हैं जहां सरकार अपनी छह महीने की जांच अवधि का पालन नहीं कर पायी है। यह संशोधन ऐसे में बदले की कार्यवाहियों का रास्ता खोल देगा। फिर सरकार उसे चुनौती देने वाली और उससे अहसमत आवाज़ों का गला अपनी मनमर्जी बड़ी आसानी से घोंट देगी।
अमिताभ बेहार ऑक्सफैम इंडिया के सीईओ हैं। यह लेख मूल अंग्रेज़ी में स्क्रॉल पर प्रकाशित है। अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है। कवर तस्वीर ऑक्सफैम से साभार प्रकाश.सौज- जनपथः लिंक नीचे दी गई है-