मुकेश कुमार
कथाकार चंदन पांडेय का उपन्यास वैधानिक गल्प साल भर से काफ़ी चर्चा में है। समकालीन परिस्थितियों को यह उपन्यास गहरी संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करता है। पूरी कथा पाठक में इतनी बेचैनी पैदा कर देती है कि वह आतंकित कर देने वाली उन परिस्थितियों और किरदारों के बारे में सोचे जो हमारे आस पास निर्मित हो चुकी हैं और उनका दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है।
कई बार कोई क़िताब, कोई रचना आप पढ़ना तो चाहते हैं, मगर अन्य कारणों से वह टलता रहता है। आपके चाहने के बावजूद वह छूटती रहती है। आप पछताते रहते हैं, मगर वह हाथ नहीं आती। कथाकार चंदन पांडेय का उपन्यास वैधानिक गल्प ऐसी ही पुस्तक है। पिछले सात-आठ महीनों से यह उपन्यास मेरा पीछा कर रहा था और मैं इसके पीछे लगा हुआ था, मगर पढ़ा जा सका अब। पढ़ने के बाद लगा कि अगर न पढ़ता तो कुछ छूट जाता।
साल भर से यह उपन्यास काफ़ी चर्चा में है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा नवलेखन का पुरस्कार मिलने की वज़ह से भी यह चर्चित रहा, लेकिन पक्के तौर पर यह मुख्य वज़ह नहीं थी। कारण था इसकी विषयवस्तु, भाषा और उसकी शैली। समकालीन परिस्थितियों को यह उपन्यास गहरी संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करता है। लेकिन यह वर्तमान मीडिया के सरलीकरण का शिकार नहीं हुआ है। न ही किसी निष्कर्ष तक पहुँचने की जल्दबाज़ कोशिश इसमें दिखती है।
उपन्यास रहस्य-रोमांच शैली में लिखा गया है। शुरुआत एक फ़ोन से होती है, जो उपन्यास के मुख्य पात्र अर्जुन की पूर्व प्रेमिका का है। वह यानी अनसुइया परेशान है क्योंकि उसका पति रफ़ीक़ लापता है और पुलिस रिपोर्ट लिखने तक के लिए तैयार नहीं है। पत्नी के ज़ोर देने पर उसे पूर्वी उत्तरप्रदेश के एक गाँव नोमा जाना पड़ता है और तब सिलसिला शुरू होता है रफ़ीक़ की खोज का।
खोज-पड़ताल के क्रम में परतें खुलती जाती हैं। ये परतें वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य की हैं, जिसमें स्थानीय राजनीति के वे आपराधिक गठबंधन हैं जो ख़ुद को बचाने के लिए हिंदू-मुसलमान और लव जिहाद जैसे मुद्दों को हवा देता है। इस गठबंधन में पुलिस, प्रशासन, स्थानीय कॉलेज के सर्वेसर्वा, व्यापारी और अपराधी सब शामिल हैं। इसके बरक्स वे लोग भी हैं जो सामाजिक ताने-बाने को बचाने में लगे हुए हैं, इसके लिए जान जोख़िम में डालने की हद तक समर्पित हैं।
रफ़ीक़ का दोष यह है कि वह एक बहुत ही परिपक्व, मँजा हुआ और प्रतिबद्ध रंगकर्मी है। वह एक ऐसे नाटक पर भी काम कर रहा है जो वैसे तो समाज में सांप्रदायिक सौहार्द्र को बढ़ावा देने वाला होगा, मगर आपराधिक गठजोड़ की पोल भी खोलने वाला है। अध्यापन उसकी आजीविका है। वह एक कॉलेज में पढ़ाता भी है, मगर उसके रंगकर्म की वज़ह से और मुसलमान होने के कारण भी वह निशाने पर है। तिस पर उसने एक हिंदू लड़की से शादी की है।
अर्जुन के नोमा पहुँचने, अनसुइया, रफ़ीक़ के छात्रों और स्थानीय सर्किल अफ़सर शलभ श्रीनेत से मिलने के साथ-साथ रफ़ीक के ग़ायब होने की परतें खुलनी शुरू होती हैं, मगर वे उलझाती भी जाती हैं। रफ़ीक़ की रंग-टोली की एक सदस्य जानकी भी लापता है और दोनों का एक साथ ग़ायब होना या किया जाना उस आख्यान को बल देता है जो स्थानीय माफिया फैला रहा है।
ये आख्यान लव जिहाद का है, जो प्रदेश की राजनीति का एक बड़ा हिस्सा बन चुका है। ये आख्यान बहुत सारे झूठों, कल्पनाओं और फ़ेक न्यूज़ से मज़बूत किया जा रहा है। इस साज़िश में मीडिया भी पूरी तरह से और सक्रिय रूप में शामिल है।
ऐसे में अचानक पहुँच कर इन पहेलियों को सुलझाना अर्जुन के लिए बड़ी चुनौती बन जाता है। ख़ास तौर पर तब जब पूरा तंत्र गुमराह करने से लेकर धमकाने तक में लगा हो। वह प्रलोभन भी दे रहा है और यह प्रचारित करने की धमकी भी कि वह अपनी ‘एक्स’ से मिलने आया हुआ है। उसकी राह क़तई आसान नहीं है कि उस पर हर पल नज़र रखी जा रही है। उसकी फ़ेसबुक पोस्ट पर आपत्ति की जाती है और उसे एक तरह से विवश कर दिया जाता है कि वह उन्हें हटाए।
यह ख़तरा स्पष्ट दिख रहा है कि अगर उसके मालिक-संपादक ने उसकी सुरक्षा सुनिश्चित न की होती या उसका साला भारत सरकार में बड़े पद पर न होता तो उसे भी लापता कर दिया जाता।
इस सबके बावजूद रफ़ीक़ को ढूँढना तो दूर उसके लापता होने की रिपोर्ट लिखवाना एक बड़ी चुनौती है। पुलिस का रवैया ऐसा है कि वह उसे ढूँढना ही नहीं चाहती या फिर जैसे उसे पता हो कि रफ़ीक़ का क्या हुआ है, वह कहाँ ग़ायब हो गया है या कर दिया गया है। खोज-पड़ताल के बीच ही रंग टोली का एक सदस्य भी ग़ायब हो जाता है, जिससे आतंक बढ़ जाता है।
अनसुइया द्वारा दी गई रफ़ीक़ की भीगी डायरी के पन्ने, जिसे अर्जुन होटल के अपने पूरे कमरे में, यहाँ तक कि बाथरूम तक में भी सुखाने के लिए फैला देता है, रफ़ीक़ के व्यक्तित्व और उसके रंगकर्म का नया परिचय देते हैं। उसका ज्ञान और उसकी सामाजिक प्रतिबद्धता अर्जुन को चौंकाती है और उस प्रचलित नैरेटिव को स्वीकार करने से रोकती है जिसमें कहा जा रहा है कि ये लव जिहाद का मामला है।
इतने अंतराल के बाद मिल रहे अर्जुन की अनसुइया से दूरी कम नहीं होती। दोनों तरफ़ से इसकी कोई कोशिश भी नहीं होती, मगर अर्जुन की बेवफ़ाई की वज़ह से एक गाँठ बनी हुई है, जो खुलती नहीं। इतनी भी नहीं कि अर्जुन उससे रफ़ीक़ के बारे में कुछ पूछताछ कर सके। हालाँकि इसकी एक बड़ी वज़ह वे हालात भी हैं जिनकी गिरफ़्त में अनसुइया है।
कुछ सुराग़ अमनदीप से मिलते हैं, जो कि एक मुअत्तल कर दिया गया असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर है। मुअत्तली का कारण यह है कि परफॉर्मेंस के दौरान वह रंगकर्मियों को उन गुंडों के हमले से बचाता है, जिनका संबंध स्थानीय राजनीति से है। रफ़ीक़ उसी की भूमिका को केंद्र में रखकर एक नाटक खेलने की तैयारी कर रहा होता है तभी ग़ायब हो जाता है या कर दिया जाता है। मगर पुलिस अब भी उस पर नज़र रखे हुए है।
उपन्यास इस अर्थ में अधूरा है कि अंत तक यह पता नहीं चल पाता कि रफ़ीक़ या ग़ायब हुए लोगों का क्या हुआ। एक प्रश्नचिन्ह है जो ख़ुद आपको उत्तर ढूँढने के लिए कहता है।
पूरी कथा पाठक में इतनी बेचैनी पैदा कर देती है कि वह आतंकित कर देने वाली उन परिस्थितियों और किरदारों के बारे में सोचे जो हमारे आस पास निर्मित हो चुकी हैं और उनका दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है।
उपन्यास की एक बड़ी विशेषता इसका जीवंत और बहुस्तरीय गद्य है। वह कहानी के अंदर कहानी कहने का अपना ढंग प्रस्तुत करता है। वह समानांतर पाठ रचते हुए कहानी की बुनावट में घुला-मिला है मगर अलग से ध्यान भी खींचता है। यह गद्य और गद्य की भाषा ही है जो उसे इसी विषय पर लिखे जाने वाले कथा साहित्य से विशिष्ट बनाती है। एक और चीज़ जिसे दर्ज़ किया जाना चाहिए वह है लेखक की सामाजिक पक्षधरता। उसे पता है कि इस कहानी को वह कहाँ खड़े होकर कह रहा है।
किसी भी रचना की सफलता-असफलता की एक कसौटी उसकी पठनीयता होती है और यह उपन्यास इस पर भी हर लिहाज़ से खरा उतरता था। ऐसे कम उपन्यास होते हैं जो इस क़दर आपको बाँध लें कि अगर एक बार इसे पढ़ना शुरू किया तो छोड़ना मुश्किल हो जाए। वैधानिक गल्प इसी श्रेणी का उपन्यास है।
लेखकः चंदन पांडेय – प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन – 152 ( पेपर बैक)
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सौजः सत्यहिन्दी