जयंत भट्टाचार्य
“अगर सरकार के सामने कोई मजबूरी है तो मैं उसे समझ सकता हूं। लेकिन इसके लिए हमें एक साथ बैठने और उस मजबूरी पर चर्चा करने की जरूरत है।”
दिल्ली ने ऐसा किसान आंदोलन इससे पहले अक्टूबर 1988 में देखा था। उसका नेतृत्व महेंद्र सिंह टिकैत कर रहे थे। विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक करीब पांच लाख किसान धरने पर बैठे थे। वे ट्रैक्टर, बैलगाड़ियों और बुग्गियों के साथ आए थे। किसान गन्ने की ज्यादा कीमत के अलावा पानी और बिजली बिल माफ करने की मांग कर रहे थे। आखिरकार सरकार को किसानों की मांगें माननी पड़ी थीं। उस आंदोलन में महेंद्र सिंह टिकैत के बेटे, 18 साल के राकेश टिकैत भी मौजूद थे। आज 51 साल के राकेश टिकैत नए कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन में किसानों का नेतृत्व कर रहे हैं। आउटलुक के जयंत भट्टाचार्य के साथ बातचीत में उन्होंने कहा कि दिल्ली की सीमा पर जहां भी आंदोलन चल रहे हैं, वे जारी रहने चाहिए। अगर 26 जनवरी की घटना के बाद आंदोलन टूट जाता, तो अगले 20 वर्षों तक और कोई आंदोलन नहीं होता। टिकैत के साथ बातचीत के मुख्य अंशः
आपके आंदोलन का भविष्य क्या है? क्या यह समय के साथ धीमा पड़ जाएगा? आपने आगे के लिए क्या योजना बनाई है?
समय बीतने से हमारा आंदोलन खत्म नहीं होगा। सरकार आंदोलन को तोड़ना चाहती थी, वह किसानों को बांटना चाहती थी। सरकार वैसा नहीं कर सकी, लेकिन अब वह अतीत की बात है। अब हम हरियाणा जाएंगे, लोगों से मिलेंगे। हमें यह तय करना है कि हर जगह आंदोलन जारी रहे। जो लोग टिकरी बॉर्डर पर बैठे हैं वे वहां बैठे रहें, और किसी को भी आंदोलन को तोड़ने न दें।
अगर सरकार के सामने कोई मजबूरी है तो मैं उसे समझ सकता हूं। लेकिन इसके लिए हमें एक साथ बैठने और उस मजबूरी पर चर्चा करने की जरूरत है। अगर कोई परेशानी है तो उसका हल भी निकालेंगे। लेकिन उन्हें हमें भरोसे में लेकर अपनी मजबूरी बतानी पड़ेगी, तभी हम किसी समाधान का सुझाव दे सकते हैं। मैं नहीं चाहता कि दुनिया के सामने हमारे देश की गलत छवि जाए। मैं कभी यह संदेश नहीं देना चाहूंगा कि सरकारी झुक गई। दोनों पक्षों को एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए, ताकि किसी की भी गरिमा कम न हो।
आपके और आपके भाई नरेश टिकैत के बीच मतभेद की खबरें आईं। वे भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष हैं। उन्होंने कहा था कि गाजीपुर में आंदोलन खत्म कर दिया जाएगा क्योंकि वे पुलिस और प्रशासन के साथ टकराव नहीं चाहते। लेकिन आप आंदोलन जारी रखने पर अड़े रहे। यह मतभेद क्यों?
हम भाइयों में मतभेद क्यों होगा? अफवाह फैलाने वालों के कैंपेन के चलते ऐसा लग रहा है। पहले उन्होंने पंजाब से आने वाले सिख किसानों को निशाना बनाया। उसके बाद हरियाणा के किसानों के बारे में अफवाहें फैलाईं। अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बारी है। उन्होंने हमें खालिस्तानी कहा, पाकिस्तानी कहा…
टिकैत हमेशा साथ हैं। हम सब आंदोलन का हिस्सा हैं। भाई नरेश गांव में रहते हैं और वहां हो रहे कार्यक्रमों और लोगों की देखरेख करते हैं। आगे की योजना और कार्यक्रम तय करने के लिए उन्होंने वहां पंचायत की बैठक की। पंचायत के बाद लोग गाजीपुर बॉर्डर पर आना चाहते थे, लेकिन हम नहीं चाहते कि दिल्ली की सीमा पर भीड़ बढ़े। हमें जब भी समर्थन की जरूरत होगी, लोग आ जाएंगे। भाई ने लोगों को यहां आने से रोका है। हमारा काम करने का एक तरीका है। हमारा काम बंटा हुआ है। नरेश खाप के मामले देखते हैं और स्थानीय मुद्दों की बात करते हैं।
जब मैं आंदोलन का नेतृत्व कर रहा हूं तो मैं प्रदर्शन की जगह से नहीं हट सकता। लेकिन अगर किसी दूसरी जगह कार्यक्रम हो रहा है और मैं वहां नहीं जा सकता, तो नरेश वहां जाते हैं। अगर समय के अभाव में वे भी नहीं जा सके तो अन्य भाई जाते हैं। अगर टिकैत आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं तो एक भाई हमेशा प्रदर्शन वाली जगह पर रहेगा। टिकैत की यह परंपरा रही है और यह आज भी बनी हुई है। हमारा मानना है कि परिवार में जन्म लेने वाले हर बच्चे को एक न एक दिन किसी आंदोलन में सक्रिय रूप से हिस्सा लेना पड़ेगा।
सरकार ने जब आंदोलन कर रहे किसानों से गाजीपुर बॉर्डर खाली करने को कहा, तो मीडिया से बात करते समय आप रो पड़े थे। उसके बाद सैकड़ों किसान आपका साथ देने के लिए लौट आए। क्या आपने वह जानबूझकर किया था?
मैं भावुक हो गया था। बातें जिस तरह से बताई जा रही थीं, उससे मुझे ठेस पहुंची थी। आंदोलन खत्म करने के लिए मतभेद पैदा करने की कोशश की जा रही थी। अगर उस दिन आंदोलन टूट जाता, तो अगले 20 वर्षों तक और कोई आंदोलन नहीं होता। लंबे समय तक कोई भी व्यक्ति आंदोलन शुरू करने की हिम्मत नहीं करता। लेकिन उस रात किसान तूफान के बीच एक मजबूत पेड़ की तरह खड़े रहे। अब वह तूफान गुजर गया है। तूफान के गुजरने के बाद जो लोग बच गए हैं उनके साथ आंदोलन जारी रहेगा। इस तूफान में सूखी टहनियां और पत्ते उड़ गए। जो लोग जमे रहे, वे सरकार के साथ बातचीत करेंगे ताकि किसानों को उनका हक दिला सकें।
स्थानीय लोगों की शिकायत है कि प्रदर्शन की जगह पर ज्यादा लोगों के जुटने से उन्हें परेशानी हो रही है।
हम भीड़ को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे हैं ताकि एक साथ बहुत ज्यादा लोग न इकट्ठा हो जाएं। इसीलिए महापंचायत के बाद लोगों का मार्च रद्द करने का फैसला किया गया। हमारे समर्थक अपने-अपने इलाकों में हैं और अपना काम कर रहे हैं। हम अराजकता या उपद्रव नहीं फैलाना चाहते। किसानों को आंदोलन के साथ अपनी जमीन पर भी उतना ही ध्यान देना है। अगर हमें जरूरत महसूस हुई तो वे कभी भी आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए यहां आ सकते हैं। तब तक वे खेतों में काम करेंगे। लेकिन इसके साथ ही वे आंदोलन पर भी करीबी नजर रखेंगे।
आरोप लग रहे हैं कि यह आंदोलन विपक्षी दलों को प्लेटफॉर्म देने का प्रयास है।
प्रदर्शन स्थल पर आने वाले विपक्षी दलों के नेता हमारे घर आने वाले मेहमान की तरह हैं। जिस तरह हम घर आए मेहमान का सम्मान करते हैं, हम इन नेताओं का भी सम्मान करते हैं। लेकिन किसी भी राजनीतिक नेता को मंच पर जाने की अनुमति नहीं है। हमने राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के लिए विशेष व्यवस्था की है। वे मंच के ठीक सामने बैठ सकते हैं, लेकिन उनकी जगह मंच से नीचे ही होगी। हमने उनके लिए कुर्सियां रखी हैं। अब यह उन पर है कि वे कुर्सी पर बैठते हैं या जमीन पर। लेकिन मंच पर उन्हें जगह नहीं मिलेगी।
अपनी बात कहने के लिए हम उन्हें माइक भी नहीं देते हैं। यह एक गैर-राजनीतिक आंदोलन है और हम नहीं चाहते कि इसे किसी पार्टी का रंग दिया जाए। विपक्ष कर भी क्या सकता है, उनके हाथ में कोई कंट्रोल नहीं है।
जहां तक आंदोलन के जरिए राजनीति करने की बात है, तो हर व्यक्ति किसी न किसी समय राजनीति करता है। जब आप किसी को वोट देने जाते हैं तो आप किसी खास राजनीतिक दल का समर्थन करते हैं। अभी तक मैंने कभी यह नहीं बताया था कि किस पार्टी को वोट दिया। दूसरों को किसी पार्टी विशेष को वोट देने के लिए भी नहीं कहता हूं। मैं अपने विचार थोपने की कोशिश नहीं करता। अब पहली बार मैंने कहा कि पिछली बार भाजपा को वोट दिया। मैंने यह बात धरने वाली जगह से भी कही। मैं और मेरी पत्नी एक ही गाड़ी में वोट देने गए थे, लेकिन कौन किसे वोट दे रहा है यह हमें नहीं मालूम था। हमने इस बारे में कोई चर्चा भी नहीं की। न तो वोट देने से पहले और न ही बाद में। लेकिन मुझे लगता है कि पिछली बार हमने अलग-अलग पार्टियों को वोट दिया। विडंबना यह है कि मैंने जिस पार्टी को वोट दिया था, उसी की नीतियों के खिलाफ आज प्रदर्शन कर रहा हूं।
आपके पिता महेंद्र सिंह टिकैत ने 1988 में नई दिल्ली के बोट क्लब में बड़ी रैली निकाली थी। उन्होंने सरकार को अपनी मांगें मानने के लिए मजबूर कर दिया था। आपका आंदोलन उस आंदोलन से कैसे अलग है?
बोट क्लब पर हुई रैली में मैं भी मौजूद था। वह रैली एक ही जगह पर थी, लेकिन इस बार का आंदोलन दिल्ली की कई सीमओं पर है। बोट क्लब की रैली में उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसान ज्यादा आए थे। इस बार पंजाब के किसानों की संख्या ज्यादा है। यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है। मुझे गर्व है कि किसानों के हितों के लिए सिख लड़ रहे हैं। लेकिन मेरी तुलना मेरे पिता से मत कीजिए, न ही उनके नेतृत्व में हुई रैलियों की मेरी रैलियों से। मैं उन जैसा नहीं बन सकता। वे जिस तरह सोचते और बोलते थे, मैं वैसा नहीं कर सकता। हालांकि, मैं उनकी तरह काम करने की कोशिश करता हूं। मैं इस बात की कल्पना करता हूं कि जब आंदोलन में उतार-चढ़ाव आते हैं तब वे क्या फैसला लेते। किसानों के अधिकारों के लिए आंदोलन का नेतृत्व करते वक्त मैं अपने पिता के सिद्धांतों का पालन करता हूं। विचार कभी मरते नहीं। मैं अब भी उनकी फिलॉसफी का पालन करता हूं।
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