इको फेमिनिज़्म नारीवाद की तीसरी लहर है : प्रोफेसर के. वनजा

 8 मार्च 2021 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के उपलक्ष्य में  हिंदी साहित्य परिषद्, हिंदी विभाग, राजधानी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा ‘इको फेमिनिज़्म’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया।गूगल मीट पर आयोजित वेबीनार में यह व्याख्यान  सुप्रसिद्ध आलोचक प्रो. के. वनजा द्वारा दिया गया। 

    स्वागत व्यक्तव्य देते हुए, कॉलेज के प्राचार्य डॉ. राजेश गिरि ने सभी को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुभकामना देते हुए कहा कि ‘इको फेमिनिज़्म’ नया विषय है। नए विषय पर बात करने से, उसे समझने से ज्ञान और व्यवहार के क्षेत्र में बहुत कुछ नया जुड़ता है, जो हमारे सोचने-समझने के तरीकों को तार्किक बनाता है, उसका विस्तार करता है। इसी क्रम में आज का व्याख्यान नारी विमर्श के क्षेत्र में कुछ सार्थक विन्दुओं का समावेश करेगा। 

विस्तृत विषय प्रवेश और वक्ता का परिचय हिंदी साहित्य परिषद् के प्रभारी डॉ. राजीव रंजन गिरि द्वारा दिया गया। उन्होंने प्रो. के. वनजा की साहित्यिक, सामाजिक सक्रियता को रेखांकित करते हुए बताया कि उन्होंने विषय के रूप में ‘इको फेमिनिज़्म’ को विमर्श के केंद्र में लाने का कार्य किया है।  

प्रो. के. वनजा ने कहा कि ‘इको फेमिनिज़्म’ समकालीन विचारधारा है, जो प्रकृति और स्त्री को एक कर के देखती है। इको फेमिनिज़्म दो शब्दों से मिलकर बना हुआ है। फेमिनिज़्म का संबंध जहां स्त्री की मुक्ति की लड़ाई से है वहीं इको ‘इकोलॉजी’ का समानार्थी शब्द है। अतः इको फेमिनिज़्म को ‘पारिस्थितिक स्त्रीवाद’ कहना ज्यादा उचित रहेगा। यह विमर्श स्त्री और प्रकृति की सामान चिंता की बात करता है। जैसे धरती अनेक संकटों से जूझते हुए सृष्टि को रचती और संतुलित करती है उसी तरह स्त्री भी अपने गुणों द्वारा परिवार, समाज और सृष्टि को बेहतर बनाने का कार्य करती है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था सामंती समाज की उपज है, किंतु पूंजीवाद के संरक्षण में यह व्यवस्था अधिक चालाक और अमानवीय होती जा रही है। पूँजीवाद, विकास के नाम पर प्रकृति का शोषण कर रहा है, लोग शुद्ध हवा,पानी के लिए तड़प रहे हैं, व्यवस्थाओं के केन्द्रीकरण और पूँजी की केन्द्रीयता से मनुष्य अनेक तरह का दुष्परिणाम झेलने को विवश है। व्यवस्थाएं मनुष्य के सम्मान का क्षरण कर रही है। स्त्रियां सामंती और पूँजीवादी व्यवस्था के समीकरण का सामान रूप से शिकार हो रही हैं। 

उन्होंने कहा कि प्रकृति, स्त्री तथा अन्य उपेक्षित जातियां और वर्ग जो पीड़ित हैं, उनके साथ लड़ना और उनके लिए लड़ना ही ‘इको फेमिनिज़्म’ है। यह रेडिकल फेमिनिज़्म से इसी रूप में अलग है कि यह केवल स्वतंत्रता और अधिकार की बात नहीं करता है अपितु कहाँ तक स्वतंत्रता और कहाँ तक अधिकारों के उपयोग की सीमा हो, पर भी विचार करता है। पुरुष को सुधारने के साथ-साथ, दुनिया को बचाने का दायित्व भी स्वीकार करता है। बहुलता का स्वीकार, अहिंसात्मक प्रतिकार, लोकतांत्रिक विचार तथा प्रत्येक बुराई और अतिवाद से संघर्ष  ही उसके वे टूल्स हैं, जिनके आधार पर पारिस्थिकी के संतुलन की संकल्पना करता है। 

विचार रखने के क्रम में उन्होंने कहा कि ‘इको फेमिनिज़्म’ विचारधारा के रूप में पश्चिम में रूपायित हुई है, क्योंकि असंतुलित विकास का दुष्परिणाम उन्होंने सबसे पहले झेला है। सिमोन द बोउवार की पुस्तक ‘द सेकंड सेक्स’ में लिखा गया है- स्त्री और प्रकृति को पुरुष ने अपने अधीन करके उनका वस्तुकरण किया है, उनका शोषण किया है। इसके साथ उन्होंने अनेक पश्चिमी विचारकों को उद्धृत किया , जिन्होंने इको फेमिनिज़्म के सिद्धांत को गढ़ने की दृष्टि प्रदान की। हिंदी साहित्य की अनेक रचनाओं के माध्यम से उन्होंने हिंदी साहित्य में उसका साहित्यिक रूपायन प्रस्तुत किया। हिंदी साहित्य और ‘इको फेमिनिज़्म’ के बीच बनाते रिश्ते को रेखांकित किया।  

उन्होंने स्पष्ट किया कि भूमि की उत्पादन क्षमता, स्त्री की उत्पादन क्षमता पुरुषों के अधीन है। अर्थतंत्र पर पुरुषों का कब्ज़ा है। स्त्री पर, प्रकृति पर अपना मत थोपना पुरुष ने अपना अधिकार मान लिया है। चूँकि विश्वव्यवस्था पुरुष प्रधान है, इसलिए उसको लेकर कोई चिंता या सरोकार भी नहीं दिखाई पड़ता है। विश्व की दो प्रमुख व्यवस्थाएं पूँजीवाद और मार्क्सवाद, दोनों ही भौतिक प्रधान व्यवस्थाएं हैं और प्रकृति तथा मनुष्य की स्वतंत्रता और समानता का क्षरण अपने अनुसार करती हैं। इको फेमिनिज़्म इनके अतिवाद और अतार्किकता का विरोध करता है।  इको फेमिनिज़्म भविष्योन्मुखी विचारधारा है। वह आने वाली पीढ़ियों को भी संसाधन प्राप्त हों, इसकी चिंता करती है। सामाजिकता पर बल देती है। ऐसी विवेकपूर्ण स्त्रियां रचती है, जो बिना किसी द्वेष के पुरुषों को अहं और आत्मकेंद्रित होने से बचाती हैं। स्त्री-पुरुष की प्राकृतिक विविधता को स्वीकार करते हुए उन्हें मनुष्य के रूप में ही व्याख्यायित करती है। गरिमापूर्ण जीने के अधिकार की पक्षधर है, दूसरों का अस्तित्त्व स्वीकार करती है और उनकी निजता का सम्मान करती है।उनके आचरण में समस्त परिवेश उसके परिवार का हिस्सा बन जाता है।      

इस अवसर पर बड़ी संख्या में अनेक शिक्षक, संस्कृतकर्मी  तथा विद्यार्थी उपस्थित रहे। कार्यक्रम का समापन हिंदी विभाग के प्रभारी डॉ. सत्यप्रकाश सिंह के धन्यवाद ज्ञापन से हुआ

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