क्या केंद्र की सत्ता में बैठी भाजपा की सरकार ‘वैक्सीन ब्लैकमेलिंग’ के लिए ज़मीन तैयार कर रही है? या भाजपा शासित राज्यों में अतिरिक्त वैक्सीन की सप्लाई करके डबल इंजन के संघवाद विरोधी अभियान को सफल दिखलाने की नयी पेशकश है।कोरोना एक स्वास्थ्य आपातकाल है इसे लेकर कभी मतभेद नहीं रहे लेकिन इसे हिंदुस्तान की संघीय सरकार ने जिस तरह से अपने लिए ‘अवसर’ में बदला और सदी का सबसे घटिया नारा ‘आपदा में अवसर’ ईजाद किया वह न केवल देश के संघीय ढांचे बल्कि न्यूनतम लोकतन्त्र की मर्यादाओं का मखौल उड़ाता है।
पिछले साल इन्हीं दिनों देश बेहद सख्त लॉकडाउन के साये में था। हालांकि इस साल जब कोरोना की दूसरी लहर ने देश में वास्तविक स्वास्थ्य संकट अपने चरम पर है और हर रोज़ 3 लाख मामले आ रहे हैं, तब प्रधानमंत्री ने 20 अप्रैल 2021 को अपने निष्प्रभावी संबोधन में न केवल इसे गैर ज़रूरी करार दिया बल्कि इसे अंतिम विकल्प बताया और देश को कोरोना से ज़्यादा लॉकडाउन से बचाने पर ज़ोर दिया। हालांकि इसमें यह स्वीकार नहीं था कि पिछले साल जब चार घंटे की मोहलत पर इसे पहला विकल्प मानते हुए सख्त लॉकडाउन देश थोपा गया वो गलत था।
पिछले साल के लॉकडाउन के एक साल बाद भी प्रधानमंत्री या उनकी कैबिनेट यह बता पाने की स्थिति में नहीं है कि अचानक सख्त लॉकडाउन थोपने के निर्णय पर पहुँचने की प्रक्रिया क्या रही? ये सवाल एक साल से पूछे जा रहे हैं कि जब प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन की घोषणा की तब उनके सामने और क्या क्या विकल्प थे? किसने वो विकल्प सुझाए थे? क्या इस निर्णय पर पहुँचने से पहले राज्यों की सरकारों से कोई विचार-विमर्श किया गया? सवाल तो आज 5 साल होने को आ रहे ‘नोटबंदी’ को लेकर भी हैं। और लगभग यही सवाल हैं जिनमें मुख्य रूप से यही पूछा जा रहा है कि प्रधानमंत्री द्वारा जिन फैसलों को टेलीविज़न पर आकर बोला जाता है उनके पीछे की बुनियादी लोकतान्त्रिक प्रक्रियाएं क्या होती हैं?
ये सरकार ऐसे सवालों को राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में रखती है और ज़ाहिर है जिनका जवाब देना इस राष्ट्रवादी सरकार को ज़रूरी नहीं लगता है।
कोरोना जैसी महामारी की इस दूसरी लहर में देश के हालात हर घंटे बाद से बदतर हुए जा रहे हैं लेकिन संघीय सरकार इस दिशा में कोई ठोस पहल लेते हुए नहीं दिखलाई पड़ रही है। आर्थिक संसाधनों से बुरी तरह कमजोर हो चुके राज्यों पर अब ठीकरा फोड़ा जाने लगा है। विशेष रूप से उन राज्यों पर जहां भाजपा की सरकारें नहीं हैं गोया भाजपा शासित राज्यों की स्थिति बहुत अच्छी हो।
देश के संविधान में जिस संघीय ढांचे की कल्पना शामिल है उसके विपरीत भाजपा ने राज्यों के चुनावों में ‘डबल इंजन की सरकार’ के राजनैतिक नारों का इस्तेमाल किया है जो मूल रूप से इस संघीय ढांचे के खिलाफ है। डबल इंजन का मतलब क्या होता है? यही कि जब केंद्र व राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होगी तो राज्य को केंद्र का बेहतर सहयोग मिलेगा? इसका मलतब क्या ठोस रूप से यह नहीं है कि जिन राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं होगी उन राज्यों को केंद्र सहयोग नहीं करेगा?
हालांकि जिन राज्यों में इस तथाकथित डबल इंजन की सरकारें हैं भी क्या वहाँ की सरकारों को पूरी तरह एक पार्टी का गुलाम नहीं बनाया जा चुका है? क्या इस डबल इंजन के संविधान विरोधी नारे की छाया में राज्य सरकारों का अपना कोई स्वायत्त चरित्र बच सका है? यह इस बात के आंकलन का भी समय है।
कोरोना की इस विभीषिका में हम देख पा रहे हैं कि मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश से लगातार ऑक्सीजन की कमी से मरीजों की असमय मौत हो रही है लेकिन जिस शिद्दत से अभी भी छत्तीसगढ़ या दिल्ली या राजस्थान अपने प्रदेश की जनता के लिए केंद्र से अपना हक़ या दाय मांग पा रहे हैं वो हिम्मत भाजपा शासित राज्य कर पा रहे हैं?
नरेंद्र मोदी की सरकार ने शुरुआत से ही ऐसे निर्णय लिए हैं जो इस संघवाद के खिलाफ गए हैं। मामला चाहे वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) का हो या नोटबंदी का हो या बलात लॉकडाउन का हो या खनन से जुड़े कानून हों हमेशा राज्यों की घनघोर उपेक्षा की गयी है।
अपने शुरुआती भाषणों में मोदी हमेशा ‘टीम इंडिया’,‘कोऑपरेटिव फेडरलिज़्म’,‘कंपीटिटिव फेडलरिज़्म’ की बात करते आए हैं लेकिन इन सब बातों का असल मतलब केवल पूरे देश में भारतीय जनता पार्टी का एकछत्र शासन करना बन गया। जिसका भी सारांश डबल इंजन सरकार जैसे संविधान विरोधी नारे में प्रकट हुआ है।
इसका नया और ताज़ा उदाहरण कोरोना जैसी महामारी से देश के नागरिकों की सुरक्षा के अपनाए गए उपाय हैं। इन उपायों में भी केंद्र सब सुविधाओं के केंद्र में ही बल्कि तमाम बुनियादी संसाधनों को नियंत्रण में रखने के लिए है। राज्यों को केवल यह बताया जा रहा है कि सार्वजनिक स्वास्थय संविधान की समवर्ती सूची में है इस नाते राज्यों की जिम्मेदारी सबसे ज़्यादा है। ऐसे में फिर चिकित्सा से जुड़े ज़रूरी संसाधन मसलन ऑक्सीज़न, वैक्सीन केंद्र के नियंत्रण में क्यों हैं?
20 अप्रैल को फिर से टेलीविज़न पर अवतरित होकर मोदी ने इस आलोचना का माकूल जवाब दिया और संबोधन से पहले फार्मा कंपनियों के प्रमुखों से हुई मीटिंग का हवाला भी देश के सामने रखा। एक तरह से उस मीटिंग में तय हुई बातों को देश को बताया कि अब राज्य को यह आज़ादी दी जा रही है कि वे अपनी ज़रूरत और क्षमता के हिसाब से फार्म कंपनियों से सीधा वैक्सीन खरीद सकते हैं। कुल उत्पादित होने वाली वैक्सीन का आधा हिस्सा केंद्र अपने पास रखेगा। इसके अलावा फार्मा कंपनियाँ अब निजी अस्पतालों को भी वैक्सीन बेचेंगीं। अगले ही दिन सबसे बड़ी फार्मा कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ने इस प्रधानमंत्री द्वारा बताए गए इस फार्मूले के आधार पर वैक्सीन की रेट सूची भी जारी कर दी जिसके मुताबिक यह कंपनी केंद्र को 150 रुपये में, राज्यों को 400 रुपयों में और निजी अस्पतालों को 600 रुपयों में वैक्सीन बेचेगी।
सवाल फिर वही है कि क्या इस फार्मूले पर केंद्र ने राज्यों से बात करने का कोई औचित्य समझा? क्या राज्य सरकारों को यह मंजूर होगा? क्या वैक्सीन की यह नयी दरें राज्यों के साथ परामर्श के बाद तय हुईं या सीरम इंस्टीट्यूट को महज़ प्रधानमंत्री के करीबी हो जाने की वजह से इन सवालों से छूट मिल जाती है?
यह वैक्सीन जैसी जीवन रक्षक दवा के क्षेत्र में एकाधिकार को संरक्षण दिया जाना नहीं है जिसमें भी राज्य सरकारों को महज़ सूचना दी जा रही है उनसे कोई परामर्श नहीं लिया जा रहा है। यह दर सूची ऐसे समय में जारी हो रही है जब तमाम राज्य सरकारें (भाजपा शासित और गैर भाजपा शासित दोनों) अपने अपने राज्यों में इस स्वास्थ्य आपातकाल से न्यूनताम संसाधनों के साथ जूझ रही हैं। यह विशुद्ध रूप से तिजारत नहीं है तो और क्या है जिसे देश का प्रधानमंत्री सीधा संरक्षण दे रहा है क्योंकि अभी भी सारे सवाल हर ऐसे निर्णय की तरह बने हुए हैं कि क्या इस सरकार की कैबिनेट ने भी इस वैक्सीन वितरण फार्मूला को अनुमोदन दिया है?
वैक्सीन वितरण के इस फार्मूले और इसकी निर्धारित की गयी दरों को लेकर कोई तार्किक आधार हालांकि खुद सीरम इंस्टीट्यूट ने भी नहीं दिया है शायद उसे पता है कि ये एक जीवन रक्षक तरीका है और तमाम राज्यों को बाध्य होकर अंतत: इन्हीं दरों पर उससे वैक्सीन खरीदना होगा लेकिन इस भयादोहन की स्थिति में हमें यह सवाल भी पूछना ही चाहिए कि जब वही दवाई केंद्र को 150 रुपये में दी जा रही है तो राज्य सरकारों को 400 रुपये में क्यों? केंद्र को पूरी उत्पादित दवाई का आधा हिस्सा क्यों दिया जाना चाहिए तब जबकि केंद्र के अधीन अधिकतम कुछ केंद्र शासित प्रदेश ही हैं और जिनकी कुल आबादी केवल एक पूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश की कुल आबादी की एक चौथाई से भी कम है? केंद्र जैसा कुछ होता नहीं है। हिंदुस्तान अंतत: राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों का संघ है। आबादी या तो राज्यों में रहती है या केंद्रशासित प्रदेशों में। क्या देश के प्रधानमंत्री इस बुनियादी बात को भूल गए? लेकिन रुकिए, हमें यहाँ यह सोचने पर क्यों विवश होना पड़ रहा है कि यह अंतत: भाजपा की शक्ति विस्तार के लिए सबसे बड़ा हथियार होने जा रहा है। क्या केंद्र की सत्ता में बैठी भाजपा की सरकार ‘वैक्सीन ब्लैकमेलिंग’ के लिए ज़मीन तैयार कर रही है? या भाजपा शासित राज्यों में अतिरिक्त वैक्सीन की सप्लाई करके डबल इंजन के संघवाद विरोधी अभियान को सफल दिखलाने की नयी पेशकश है।
जिस तरह का रवैया इस मौजूदा केंद्र सरकारों ने राज्य सरकारों के साथ अपनाया है उससे किसी को भी यह संदेह हो सकता है कि आने वाला समय कोरोना वैक्सीन के बल पर साम्राज्य विस्तार का है। यह ‘घनघोर आपदा को अथाह मुनाफे’ में बदलने का अवसर नहीं है तो क्या है?
देश के सर्वोच्च दो नेताओं के लिए अभी भी पहली प्राथमिकता किसी भी तरह बंगाल को जीत लेने की है लेकिन इसे भाजपा का चुनावी अभियान मानकर थोड़ी देर के लिए भूल भी जाया जाए लेकिन एक संघीय गणराज्य के प्रधानमंत्री होने के नाते क्या वह ये बताने की भी कोशिश कर रहे हैं कि तमाम राज्यों में रहने वाली आबादी के लिए उनकी कोई सीधी ज़िम्मेदारी नहीं है।
(लेखक पिछले डेढ़ दशक से सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं। समसामयिक मुद्दों पर टिप्पणियां करते हैं। व्यक्त किए गए विचार निजी हैं।) सौज-न्यूजक्लिक