“भारत में जनमुक्ति के लिए जरूरी हैं मार्क्स और आम्बेडकर, दोनों ही के विचार” भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की केंद्रीय समिति द्वारा 14 अप्रैल 2021 को हाल में दिवंगत महाराष्ट्र इप्टा के समन्वयक और प्रसिद्ध फिल्म कलाकार इप्टा के साथी विजय वैरागड़े उर्फ़ वीरा साथीदार की याद में कॉमरेड पी सी जोशी एवं डॉ भीमराव आंबेडकर की जयंती पर “आंबेडकर की वैचारिकी और भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का अंतर्संबंध” विषय पर एक ऑनलाइन संगोष्ठी का आयोजन किया गया।
कॉमरेड वीरा साथीदार का कोरोना संक्रमण से 12 अप्रैल की रात नागपुर के एम्स अस्पताल में निधन हो गया था। लेखक, कवि, विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता, ‘विद्रोही’ पत्रिका के संपादक तथा मार्क्सवादी-आंबेडकरवादी समन्वय की वैचारिक स्पष्टता के साथ ज़मीनी संघर्षों में भी अग्रणी रहने वाले वीरा दलित-वंचित लोगों के जन-जागरण हेतु लेखन-गायन-संगठन-आंदोलन जैसे अनेक क्षेत्रों में सक्रिय थे। सन 2014 में वीरा की अभिनीत मराठी फिल्म ‘कोर्ट’ को सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने के बाद कला जगत में उनकी पहचान प्रमुखता से हुई। न्याय-व्यवस्था की विसंगतियों तथा शारीरिक अस्वच्छ श्रम के रोज़गार से जुड़े लोगों के प्रति असंवेदनशीलता पर प्रकाश डालती इस फिल्म में लोकगायक नारायण कांबले की केन्द्रीय भूमिका वीरा ने निभाई थी। सन 2016 में इंदौर में हुए इप्टा राष्ट्रीय सम्मेलन में वे प्रतिनिधि के तौर पर शरीक हुए और 2018 में पटना में आयोजित इप्टा के प्लेटिनम जुबली समारोह में नागपुर इप्टा के नाटक ‘मसीहा’ की टीम के साथ वीरा साथीदार ने शिरकत की थी।
इस ऑनलाइन संगोष्ठी में मुख्य वक्ता थे प्रगतिशील लेखक संघ के वरिष्ठ सदस्य एवं प्रख्यात आलोचक वीरेंद्र यादव (लखनऊ), इप्टा के साथी एवं महाराष्ट्र के प्रसिद्ध गायक और कवि लोक शाहीर सम्भाजी भगत, वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं इप्टा की सक्रिय सदस्य डॉ जया मेहता (दिल्ली), विद्रोही चळवळ संगठन के पूर्व महासचिव सुबोध मोरे (मुंबई), इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश (लखनऊ), प्रलेस के राष्ट्रीय सचिव विनीत तिवारी (इंदौर), इप्टा की राष्ट्रीय सचिव उषा आठले (मुंबई)। इप्टा नाशिक के युवा साथी विराज देवांग, श्रावस्ती मोहिते एवं तल्हा शेख ने जनगीतों के जरिये इस आयोजन में अपनी भागीदारी दर्ज की। इस आयोजन का संचालन किया उषा आठले एवं तकनीकी पक्ष को संभाला इप्टा के ही साथी नवीन नीरज (मुंबई) एवं अर्पिता (जमशेदपुर) ने।
आयोजन की शुरुआत इप्टा की जानी-मानी परम्परा जनगीत गायन से हुई। नाशिक इप्टा से श्रावस्ती मोहिते ने मराठी भाषा के इस भीम गीत को स्वर दिया। आयोजन का संचालन कर रहीं उषा आठले ने बताया कि मराठी भाषा के इस गीत का अर्थ कुछ इस तरह है – बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर को याद करने के लिए भक्ति, श्रद्धा एवं कर्मकाण्ड में कैद करने या उनकी मूर्तिपूजा की जरूरत नहीं है बल्कि वैचारिकी को जानने, समझने, अमल करने और उसे कार्यरूप में जिन्दा रखने की ज्यादा जरूरत है। यदि हम सच्चे भीम सैनिक या आंबेडकर को मानने वाले हैं तो उन्हें इन आडंबरों से मुक्त करवाना होगा। इस मराठी जनगीत के बोल हैं – “माझा भीम मले भेंटतो नाहीं…”।
जनगीत के बाद संगोष्ठी की शुरुआत करते हुए श्री वीरेंद्र यादव ने कहा कि भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन और आंबेडकर की वैचारिकी स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ही विकसित हुए और दोनों के बीच अंतर्संबंध भी उसी दौरान बने। सन 1917 में रूस में हुए वामपंथी आंदोलन में मार्क्स की सैद्धांतिकी एवं वैचारिकी उसके केंद्र में थी। भारत में वामपंथी आंदोलन के शरुआती दौर पर लोग यह आरोप लगाते हैं कि इन आंदोलन में दलित मुद्दों की उपस्थिति नहीं थी लेकिन यह सही नहीं है क्योंकि मार्क्स ने अपने शुरुआती दौर 1853 में भारत के संबंध में जो लेख लिखे वे भारत की इसी जातिगत व्यवस्था पर केंद्रित हैं जिसमें उनका लेख “द फ्यूचर रिजल्ट्स ऑफ़ ब्रिटिश रूल इन इंडिया” उल्लेखनीय है। वर्ण आश्रम यानि जातिव्यवस्था के सूत्र हमें मार्क्स के इस लेख और एकाधिक अन्य लेखों में मिल जाते हैं। मार्क्स ने जातिव्यवस्था को सबसे बड़ी बाधा करार दिया था लेकिन कालांतर में जब 1925 में भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की विधिवत स्थापना हुई तब उसकी प्रस्तावना में जाति का प्रश्न और वर्णाश्रम व्यवस्था के तहत श्रमिकों का जो परम्परागत शोषण था उसको समाहित नहीं किया गया। इस सम्मेलन में दक्षिण भारत के वामपंथी नेता कॉमरेड सिंगारावेलर जो खुद मछुआरा सम्प्रदाय से आते थे, वे भी शामिल हुए थे। उन्होंने कहा कि जब श्रमिकों का शोषण समाप्त होगा और समाजवादी व्यवस्था आएगी तो अन्य सारे शोषण स्वतः ही समाप्त हो जाएँगे। मार्क्स के सिद्धान्त का मूल है कि जाति का प्रश्न आधार से जुड़ा प्रश्न नहीं है, अधिरचना का प्रश्न है और आर्थिक आधार व आर्थिक संघर्षों के जरिये भारतीय समाज में जब परिवर्तन होगा तो जाति, धर्म व अन्य तरह के अंतर्विरोध अपने आप ही समाप्त हो जाएँगे।
वीरेन्द्र यादव ने कहा कि इसके बरअक्स आंबेडकर का चिंतन उनके खुद के व्यावहारिक जीवन के अनुभवों से जुड़ा हुआ था। अमरीका और इंग्लैण्ड में अध्ययन करने के बावजूद दलित पृष्ठभूमि होने के कारण उन्हें खुद जगह-जगह भेदभाव का सामना करना पड़ा। आंबेडकर के लिए दलित या जाति का प्रश्न कोई चिंतन, सैद्धांतिकी या विचार का प्रश्न न होकर व्यावहारिक जीवन का प्रश्न था।इसलिए 1927 में जब उन्होंने तालाब से पानी लेने का निर्णय लिया और मनुस्मृति को जलाया, उस समय उन्होंने कहा कि यह आंदोलन सार्वजनिक जीवन में दलितों के उद्धार का आंदोलन है। लेकिन इस आंदोलन में उन्हें वामपंथियों का वैसा सहयोग नहीं मिला जैसा अपेक्षित था। आंबेडकर वर्गभेद को पूरी तरह नहीं नकारते थे। वे जाति को एक बंद वर्ग की तरह व्ख्यायायित करते हैं। आंबेडकर दास केपिटल से सहमत नहीं थे, साथ ही वे वर्ग संघर्ष के भी खिलाफ थे लेकिन सन 1956 में उनकी मृत्यु के कुछ समय पहले उन्होंने अपने भाषण में बुद्ध और मार्क्स में एकता के बिंदु तलाश किये थे। उन्होंने कहा था कि वामपंथियों के मुख्य मुद्दे श्रमिकों, किसानों, पीड़ितों की समस्याओं एवं समाजवाद की स्थापना तो थे लेकिन जातिगत भेदभाव को खत्म करना वामपंथी आंदोलन का मुख्य मुद्दा नहीं था जिससे दलितों के आत्मसम्मान को ठेस पहुंची। वामपंथियों के अनुसार मुख्य प्रश्न जाति या वर्ण का नहीं है बल्कि अधिरचना का प्रश्न है जो समाजवाद आने से हल हो जाएगा इसलिए दलित आंदोलन का वामपंथी आंदोलन से विलगाव रहा जो बाद तक जारी रहा।
कॉमरेड एम एन रॉय ने अपनी पुस्तक “इंडिया इन ट्रांजिशन” में लिखा कि भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन से प्रेरित था जिसका उद्देश्य समाजवाद की स्थापना था। सोवियत संघ का मानना था कि भारत में अंग्रेजों के रूप में पूंजीवाद का उदय हो चुका है इसलिए यह हालात समाजवादी जमीन के लिए जरखेज हैं। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी भी अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के सिद्धांतों को केंद्र में रखकर आंदोलन कर रही थी। वामपंथी आंदोलन ने मजदूरों, किसानों के आंदोलनों में तो अग्रणी भूमिका निभाई लेकिन दलितों के आंदोलन में भारत के वामपंथियों ने अग्रणी तो ठीक सक्रिय भूमिका भी नहीं निभाई। जो लोग विदेशों से पढ़कर आये उन्होंने खुद को तो डी-क्लास किया लेकिन मजदूर, किसान या दलित तबके को नेतृत्व नहीं दिया और ठीक यही स्वाधीनता आंदोलन में भी हुआ। स्वाधीनता आंदोलन में जन भागीदारी तो रही लेकिन नेतृत्व उच्चवर्ग एवं मध्यम वर्ग के हाथ था। वर्गभेद और जातिभेद यहाँ भी रहा। गाँधी और आंबेडकर के बीच हुए पूना पैक्ट के समझौते में वामपंथियों ने आंबेडकर के साथ न आकर गाँधी को अपना समर्थन दिया। वामपंथी आंदोलन को जिस तरह दलित आंदोलन के साथ सहकार करना चाहिए था वह नहीं हुआ।
वीरेन्द्र यादव ने कहा कि चाहे वामपंथी हों या आंबेडकरवादी, दोनों को आत्मावलोकन की जरूरत है। जिस विचार के साथ कम्युनिस्ट आंदोलन की शुरुआत हुई थी, निकट भविष्य में वह पूरा होता हुआ नहीं दिख रहा है बल्कि थोड़ा पीछे हो गया है और इसी तरह जाति उन्मूलन पर आंबेडकर की वैचारिकी भी उस तरह आगे नहीं बढ़ी जिस तरह वे चाहते थे। जाति प्रश्न आज भी अधूरा छूटा हुआ है। जाति केन्द्रीयता आज भी है बल्कि और ज्यादा बढ़ गई है। आज पी सी जोशी और आंबेडकर दोनों के जन्मदिन पर हमें मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद के मिलन बिंदुओं को तलाशने की जरूरत है, जाति और वर्ग संघर्ष में जो कमियां रहीं उन्हें पूरा करने की जो स्थिति बन रही है वह सराहनीय है और आगे उम्मीद की किरण दिखती है। इन दोनों वैचारिकी के मेल से ही भारत में आने वाले भविष्य का रास्ता प्रशस्त होगा।
अगले वक्ता सम्भाजी भगत ने कहा कि हमें जाति बनने के गतिनियम को समझना बहुत जरूरी है। इसे समझे बिना जाति की पूरी संरचना, जातिगत व्यवस्था को समझ नहीं पायेंगे और जब तक जाति व्यवस्था को नहीं समझेंगे, भारतीय समाज को नहीं समझ पाएंगे। कोई जाति आस्तित्व में आई है तो क्यों आई? उस समय का उत्पादन तंत्र क्या था और किसी जाति के इस तरह अस्तित्व में आने की क्यों जरूरत पड़ी? जिस तरह आधार और अधिरचना का अन्तर्सम्बन्ध है, जाति व्यवस्था भी बिलकुल इसी तरह की है। जिस तरह जड़, बीज, पेड़ का चक्र चलता रहता है बिलकुल उसी तरह जाति व्यवस्था का चक्र है। जाति में भी वर्ग की गैरबराबरी का सिद्धांत है जो बाबा साहेब ने दिया है। एक दलित या अछूत जाति अपने से नीची जाति का शोषण करती है और उससे नीचे वाली जाति अपने से नीची जाति का शोषण करती है और यह सिलसिला नीचे तक लगातार चलता रहता है। अपने से निचले तबके का शोषण करते वक्त वे अपने पर हुए शोषण को भूल जाते हैं। लेकिन संकीर्ण सोच के लोग जो समझना ही नहीं चाहते, वही जातिवाद, ब्राह्मणवादी या सामन्ती हैं। समाज में उत्पादन साधन व्यवस्था से ही जातिव्यवस्था कायम हुई है। जैसे किसानों का संगठन बनता है तो उसमें छोटे, मंझौले, बड़े सभी वर्ग के किसान शामिल होते हैं, लेकिन संगठन के सबसे छोटे तबके तक वह लड़ाई नहीं पहुँचती क्योंकि उसकी माँगो पर कोई ध्यान ही नहीं देता और इसलिए किसान आंदोलन पूर्ण सफल नहीं होते। यही हाल समाज का है। समाज के छोटे तबकों तक सुविधाएँ या विचार नहीं पहुँचता तो क्रांति नहीं होती। दलित समुदाय को इकट्ठा करने का काम फुले, आंबेडकर, कांछीराम, बहुजन समाजवादी पार्टी सभी ने किया लेकिन कोई भी इन विभिन्न वर्गों में बनती दलित जातियों को एक नहीं कर पाया।
अंग्रेजों के आने से पहले शासन और शोषण के आधार पर बनी सामाजिक व्यवस्था जातिगत आधार पर ही बनी थी। वर्तमान में यदि हम सच में इस समस्या का हल निकालना चाहते हैं तो वामपंथियों और आंबेडकरवादियों को अपने आपसी मतभेदों और अहंकार को भुलाकर साथ आकर लड़ने और चुनौतियों का एकजुट सामना करने की जरूरत है। जमीनी काम न करने की वजह से यह दूरियाँ आई हैं। हमें जमीनी काम करने की जरूरत है। पिछली गलतियों को नजरअंदाज करके किस तरह आगे बढ़ना है, मिलकर यह सोचने की जरूरत है।
भारत के समाजवाद का रास्ता कुछ अलग रास्ता हो सकता है। मार्क्स ने जब लिखा तब उद्योगों का युग था। आज साइबर युग है, साइबर समाज है। पूँजीवाद का स्वरूप अब बदल गया है, भूमि संबंध बदल गए हैं, किसानों और किसानी के तरीके बदल गए हैं, साम्राज्यवाद का स्वरूप बदल गया है, ब्राह्मणवाद भी बदल गया है। पाँच हजार साल से बनी वर्ण व्यवस्था और दो-ढाई सौ साल पुरानी इस जातिव्यवस्था को खत्म करना इतना आसान नहीं है। इनकी जड़ें बहुत गहरी हो चुकी हैं तो यह सब इतनी आसानी से खत्म नहीं होगा और इसे ख़त्म करने में लम्बा समय लगेगा। हमें यह सब बदलने के लिए बहुत काम करना पड़ेगा, नयी नीतियाँ बनानी पड़ेंगी, नये शब्द, नयी भाषा, नये प्रतिमान स्थापित करने होंगे। इसे खत्म करने के लिए बहुत मेहनत करके संगठित होकर नयी योजनाएँ बनाना होंगी। लगातार काम करेंगे तब कहीं जाकर धीरे-धीरे यह वर्णव्यवस्था और जातिगत भेदभाव खत्म होगा। जिस तरह रूस में समाजवाद आ गया था, हमारे यहाँ यह इतना आसान नहीं है। हमारे यहाँ हर राज्य की विभिन्न संस्कृति हैं, भाषा-बोली, जातिगत रचना इत्यादि बिलकुल अलग हैं। ऊपरी तौर पर भले हम कह सकते हैं कि पूँजीवाद आ गया है लेकिन जमीनी स्तर की सच्चाई इससे बिलकुल इतर है। पहले फैक्ट्री में एक साथ हजारों मजदूर-श्रमिक काम करते थे जिनकी यूनियनें हुआ करती थीं लेकिन 1990 के बाद सब ढाँचे बदल गए हैं, काम विभाजित कर दिया गया है और इस सबको हुए भी बीस-तीस साल बीत गए हैं, अब तो परिस्थितियाँ और भी ज्यादा बदल गई हैं। उत्पादन साधन बदल गए हैं। अपने देश की परिस्थितियों के अनुसार काम करते हुए धीरे-धीरे ही जातिभेद खत्म किया जा सकता है। हमें आंबेडकर और मार्क्स की शिक्षाओं को समझकर और अपने देश की परिस्थितियों के अनुसार ढालकर काम करना होगा। जिस तरह मार्क्स ने औद्योगिक समाज में बने उत्पादन संबंधों को व्याख्यायित करने के लिए नये शब्दों को गढ़ा, वैसे ही हमें भी इस सायबर समय के लिए नये शब्द गढ़ना होंगे क्योंकि नये परिवेश, नयी परिस्थितियों के लिए ये पुराने शब्द काम नहीं आएँगे।
डॉ जया मेहता ने कहा कि अपने समय के लिए नये सिद्धान्त और नयी भाषा बनाने के पहले हमें इतिहास को ठीक तरीके से समझना बहुत जरूरी है जो हम अभी तक नहीं कर पाये। यह इत्तेफाक है कि कॉमरेड पी सी जोशी और डॉ भीमराव आंबेडकर का जन्मदिन एक ही दिन पड़ता है लेकिन मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद की थ्योरी को आपस में तुलना करना थोड़ा गलत है क्योंकि इस संगोष्ठी में मुझसे पूर्व के दो वक्ताओं ने कहा कि “आंबेडकर ने जाति के प्रश्न को जितने फ़ोर्स के साथ उठाया था उसी जाति के प्रश्न को हिंदुस्तान की कम्युनिस्ट टेक्टिक्स ने उस तरह से महत्त्व नहीं दिया जो दिया जाना चाहिए था। और यदि वो महत्त्व दिया जाता तो आज शायद स्थिति कुछ और होती” इस बात पर मैं यह कहना चाहती हूँ कि आज जब हम कॉमरेड पी सी जोशी की बात कर रहे हैं तो उसके पहले हमें उनके काम, कार्यप्रणाली और उस समय की भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की कार्यशैली के बारे में समझने की जरूरत है। कॉमरेड पी सी जोशी सन 1935 से 1947 तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रहे हैं।, इतिहास में इस कालावधि को बहुत कठिन समय कहा गया है और स्वाधीनता आंदोलन के लिए भी यह दौर सबसे कठिन दौर था। काम करने के लिए परिस्थितियाँ बहुत कठिन और विपरीत थीं। अंग्रेजों का दमन बढ़ता जा रहा था। इसी कठिन समय में कम्युनिस्ट पार्टी अपनी युवावस्था में थी और उसमें काम करने वाले पी सी जोशी एवं उनके साथी भी युवा थे।हिंदुस्तान की नयी गठित हुई युवा कम्युनिस्ट पार्टी तीसरे इंटरनेशनल से सीधे तौर पर नहीं जुड़ी थी। उसे ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी और आर पी दत्त से निर्देश दिए जाते थे। लेनिन ने जब तीसरा इंटरनेशनल बनाया तो दुनिया की सभी कम्युनिस्ट पार्टियों से आह्वान किया कि समाजवादी आंदोलनकारियों को उन देशों में उपनिवेशवाद विरोधी स्वतंत्रता के आंदोलनों को समर्थन देना चाहिए जहाँ वामपंथी आंदोलन नेतृत्वकारी भूमिका में नहीं है। हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी को भी तीसरे इंटरनेशनल की तरफ से ये निर्देश मिले। उस समय कॉमरेड पी सी जोशी सीपीआई के राष्ट्रीय महासचिव थे। उन्होंने बड़ी ही समझदारी के साथ इस जिम्मेदारी को निभाया। उन्होंने जमीनी संघर्ष की अवधारणा को कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ जोड़ने की कोशिश की। वे उसमें कामयाब भी हुए। उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के जनसंगठनों, प्रगतिशील लेखक संघ, भारतीय जन नाट्य संघ, किसान सभा, स्टूडेंट फेडरेशन को कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा से परिचित करवाया। इतना ही नहीं उन्होंने बौद्धिक स्तर पर कम्युनिस्ट विचारधारा को अपने जीवन में भी उतारा।
सन 1947 में जब कॉमरेड रणदिवे और पी सी जोशी के बीच वैचारिक मतभेद हुआ उसमें अभी तक यह द्वन्द बना हुआ है कि रणदिवे का शोध सही था या पी सी जोशी का। कॉमरेड रणदिवे का यह मानना था कि बुर्जुआ प्रबुद्ध वर्ग के भीतर कम्युनिस्ट विचारधारा का परिचय करवाकर क्रांति नहीं होगी। यदि समाजवाद लाना है तो हमें कामगार तबके के पास जाना होगा। उन्होंने कहा कि 1947 में जो आज़ादी हासिल हुई है यह झूठी आज़ादी है, असली आज़ादी हासिल करने और समाजवाद स्थापित करने के लिए हमें मजदूर और किसान के संघर्षों में सक्रिय भागीदारी दर्ज करना होगी और यही समय है जब उन संघर्षों को समाजवादी क्रांति की तरफ मोड़ा जा सकता है।
कॉमरेड रणदिवे का मानना था कि आज़ादी के आंदोलन में शामिल बुर्जआ तत्वों से अलग होकर अपनी वर्ग संघर्ष की पहचान को कायम किया जाये और कॉमरेड पी सी जोशी का मानना था कि भारत की परिस्थितियों को देखते हुए आंदोलन को व्यापक राष्ट्रीय मुक्ति के आंदोलन में शरीक किया जाये। कॉमरेड रणदिवे की सोच को पार्टी ने माना और पार्टी के नेतृत्व की कमान उनके हाथ में सौंप दी।कॉमरेड रणदिवे ने जो विचार सामने रखा बहुत सारे लोग उसे एडवेंचरिज्म बोलते हैं। आज़ादी के बाद के इन सत्तर वर्षों में कॉमरेड रणदिवे के विचार भी हकीकत नहीं बन पाए। आज इतने साल बाद भी हम कहीं भी उत्पादन संबंधों को वहाँ तक पहुँचाने में सफल नहीं हुए हैं जो कि समाजवाद की परिकल्पना के साथ जुड़ा है। यह सवाल हमारे सामने बना हुआ है कि एक उपनिवेश विरोधी राष्ट्रीय आज़ादी के आंदोलन का इतिहास होते हुए हम किस तरह से मजदूरों और किसानों की भूमिका को इतना मजबूत बनाएँगे कि वे आज़ादी के बाद एक समाजवादी देश बनाने के लिए हों।
धारणा यह थी कि जब उत्पादन संबंध बदल जाएँगे तो जाति वर्गीकरण और उसकी अधिरचना अपने आप खत्म हो जाएगी। लेकिन जब उत्पादन ढाँचा बदला ही नहीं तो इसको टेस्ट करने का समय मिला ही नहीं। उत्पादन ढाँचे को बदलने के लिए, मजदूरों और किसानों की पहचान को मजबूत बनाने के लिए, उनके संघर्ष को इतना आगे बढ़ाने के लिए सही परिस्थितियाँ बन ही नहीं पाईं। मजदूरों-किसानों के शोषण से मुक्ति के आंदोलन को इतना आगे बढ़ाना था कि वही स्वतन्त्रता हासिल करने का राष्ट्रीय आंदोलन बन जाए – यह हो नहीं सका। वर्गीय आंदोलन के विकास में जो जातिगत बाधाएँ आ रही हैं वे ठोस हकीकत हैं। लेकिन मैं इस बात से सहमत हूँ की कम्युनिस्ट नेताओं ने उन ठोस हकीकतों को समझने, सुलझाने की जरूरत नहीं समझी। मैं इस बात से भी सहमत नहीं हूँ कि कम्युनिस्ट आंदोलन का नेतृत्व चूँकि ब्राह्मणों के पास रहा इसलिए वे जातिगत शोषण को समझ नहीं पाए। नंबूदरीपाद ने लिखा है कि जातिगत शोषण लोगों के साथ इतना गहरा जुड़ा है कि इस हकीकत को कोई नजरअंदाज कर ही नहीं सकता चाहे वो कम्युनिस्ट विचारधारा का हो या न हो।
दूसरी बात यह है कि भारत में जाति और वर्ग बहुत हद तक एकदूसरे के साथ घुले-मिले हैं। भारत में वर्णव्यवस्था किस तरह से बनी है उसे समझना जरूरी है। लोगों की जो आजीविका थी, जो उनका पेशा था उसी के अनुसार उनकी जाति तय कर दी गई। इसलिए जब खेती-किसानी की तरफ देखें तो हम पाते हैं कि दलितों के पास खेती की जमीन है ही नहीं। आजीविका के अनुरूप ही जाति तय होती हैं। यदि इस बारे में समझ साफ नहीं है तो जाति व्यवस्था को समझा जा ही नहीं सकता। केरल में जाति व्यवस्था बहुत कठोर थी लेकिन केरल में कम्युनिस्ट पार्टी ने वर्ग संघर्ष के जरिए जो कामयाबी हासिल की उससे काफी हद तक जाति का भेदभाव कम हुआ। आज केरल में पहले की तरह कठोर जाति व्यवस्था नहीं है जैसी हम महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार इत्यादि में देखते हैं।उत्पादन सम्बन्ध बदलने के लिए होने वाले वर्ग संघर्ष में अन्य हकीकतों को ध्यान में न रखा जाए यह सम्भव ही नहीं है। जो भी आंदोलन उत्पादन संबंधों को बदलने की कोशिश करेगा वह अपने समाज के और अपने समय के विभिन्न सांस्कृतिक, समाजिक, राजनीतिक, यहाँ तक की भौगोलिक स्थितियों को ध्यान में रखकर आगे बढ़ेगा। मैं इस बात को नहीं मानती कि कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों ने जाति के सवाल को नजरअंदाज किया। उन्होंने वर्ग संघर्ष को केन्द्र में रखा और कम्युनिस्ट आंदोलन से यही अपेक्षा की जा सकती है।
अंतिम बात यह कि कॉमरेड बी टी रणदिवे ने इस बात की और इशारा किया है कि अंग्रेज यहाँ आये तो उन्होंने अपने खिलाफ होने वाले विद्रोह को दबाने के लिए जानबूझकर इस तरह की स्पेस तैयार की जिसमें दलित आंदोलन ब्राह्मणों के खिलाफ अपनी आवाज़ उठा सके। यह बात महात्मा फुले एवं पेरियार ने भी कही कि ब्रिटिश राज्य के आने से हमें एक स्पेस मिली है जिससे हम अपने सदियों पुराने शोषण के खिलाफ आवाज़ उठा सकें। आंबेडकर भी भारत की समाज व्यवस्था के भीतर निहित अंदरूनी शोषण यानि जाति व्यवस्था की बात प्रमुखता से करते हैं। यह बात करते समय वे औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा किये गए अन्यायों, जुल्मों और लूटपाट को दुसरी प्राथमिकता पर रखते हैं। औपनिवेशिक सत्ताओं ने नकली आपदाओं को खड़ा करके उन्हें प्राकृतिक आपदाओं का नाम दिया। अनाज के भरे भंडारों के बावजूद लाखों लोगों को भूख से मार डाला और उसे प्राकृतिक अकाल का नाम दे दिया। औपनिवेशिक सत्ता के जुल्म को कैसे भुलाया जा सकता है? मैं कहना चाह रही हूँ कि जब चर्चा केवल दलित आंदोलन पर केंद्रित करते हैं तो साम्राज्यवाद के खिलाफ जो आंदोलन हुआ, वह पृष्ठभूमि में चला जाता है। विरोधाभास तो हर जगह होते हैं पर उस दौर की सारी परिस्थितियों को जाने-समझे बगैर किसी को भी पूरी तरह गलत ठहराना सही नहीं होगा। आज जरूरत हर तरह के शोषण के खिलाफ एक साथ लड़ाई लड़ने की है। पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के खिलाफ भी लड़ें और जातिव्यवस्था वाली शोषण की समाज व्यवस्था के खिलाफ भी। लेकिन परिस्थितियों को देखने का दृष्टिकोण व्यापक रखें, इतिहास जरूर पढ़ें, उसे पढ़े बिना यह व्यापक सोच और लड़ाई व्यापक नहीं बनेगी।
विद्रोही चळवळ के महासचिव रहे सुबोध मोरे ने कहा कि आज बहुत महत्त्वपूर्ण दिन पर बहुत महत्त्वपूर्ण बातें हुई हैं। इतिहास में कम्युनिस्ट पार्टी से जो गलतियाँ हुई हैं उन्हें बार-बार कहने से कुछ नहीं होगा बल्कि जो गलतियां हुई हैं उन्हें सुधारने की जरूरत है। पार्टी के शुरुआती दौर में नेतृत्व में लकीर के फ़क़ीर की तरह मार्क्सवाद को लागू करने की कोशिश की हालाँकि मार्क्स ने 1853 में जाति के बारे में लिखा था लेकिन वो जाति की बहुत गहरी समझ का परिचायक नहीं था। हमें आज के समय और अपने देश की परिस्थितियों के अनुसार मार्क्सवाद को समझना और लागू करना होगा। आज जिस तरह की समस्याएं समाज के सामने हैं उसमें चाहे आंबेडकर की वैचारिकी हो या मार्क्स की, दोनों को मिलकर आगे बढ़ना होगा। सन 1925 से लेकर 1943 तक का जो समय है उसमें कम्युनिस्ट पार्टी का काम भूमिगत तरीके से चल रहा था जिसमें उनकी कुछ सीमाएँ थीं। उसी दौर में टेक्सटाइल मिल के अछूत मजदूरों के संघर्ष और भेदभावपूर्ण शोषण के खिलाफ कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा कोशिश जरूर की गई। सन 1928 और 1934 की जो टेक्सटाइल मजदूरों की जो हड़तालें हुईं उनमें दलित मजदूरों की मांगें तो उठाई गईं लेकिन बाद में उसका फॉलोअप नहीं हुआ। ये सही बात है कि उस वक्त कम्युनिस्टों की जो भी सीमाएँ रही हों, दलितों का प्रश्न उनके संघर्षों में प्रमुखता से नहीं उठाया जा सका। हम अपनी इस कमजोरी या गलती को स्वीकार भी करते हैं। लेकिन यह भी सच है की दक्षिणी राज्यों में कम्युनिस्ट पार्टी ने वर्ग के साथ-साथ जाति के सवाल पर भी बहुत आंदोलन किये और सफलता भी हासिल की है। कुछ मुद्दों पर वामपंथी और आंबेडकरवादी एक साथ भी आये और संघर्ष भी किया। इतिहास में भी इस तरह की अनेक घटनाओं या आंदोलन का उल्लेख नहीं किया गया है जो गलत है। आंबेडकर का अख़बार जनता पेपर 1930 से 1955 तक निकलता रहा जिसमें इन संयुक्त आंदोलनों की जानकारी हमें मिलती है जिसमें मजदूरों, किसानों के संघर्ष में वामपंथी और आंबेडकरवादी साथ आकर संघर्ष और आंदोलन किये।
प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव विनीत तिवारी ने साथी वीरा साथीदार को याद करते हुए बताया कि वीरा साथीदार महाराष्ट्र में उस आंदोलन के जीवंत हिस्से थे जो जो दलित एवं मार्क्सवादी आंदोलन के साथ उन बातों को लेकर आगे बढ़ना चाहते हैं जो समाज की बेहतरी के लिए हों। मैं इतिहास पर पर्दा डालने के हक में नहीं हूँ बल्कि इतिहास को सही परिपेक्ष्य में समझने के पक्ष में हूँ। जमीनी काम करने का अर्थ केवल लोगों के बीच जाकर “एक हो जाओ” का नारा लगाना ही नहीं होता बल्कि उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है इतिहास के अनसुलझे सवालों को हल करना इसका मतलब पुरानी बातों पर आपस में उलझना नहीं है बल्कि इतिहास को सही परिपेक्ष्य में जानना है। मार्क्स ने कहा है और जिसे आंबेडकर भी मानते थे कि “अपने समय की निर्मम आलोचना, खुद अपने आप की भी, अपनी मान्यताओं की भी निर्मम आलोचना करनी चाहिए।” तो चाहे मार्क्स हों या आंबेडकर किसी को भी निर्मम आलोचना से परे नहीं रखा जा सकता। यदि हम आलोचना नहीं करेंगे तो इसका मतलब है कि हम उनके विचारों को दफ़न कर रहे हैं। विचार पूजे जाने के लिए नहीं होते बल्कि सबक लेकर आगे बढ़ने के लिए होते हैं। इसलिए इतिहास को बार-बार देखना जरूरी है। सन 1936 से द्वितीय विश्व युद्ध के ख़तम होने के ठीक बाद से लेकर हिन्दुस्तान की आज़ादी से अभी तक का जो वक्त रहा है वह बहुत उथल-पुथल भरा रहा है। गलतियाँ भी हुई हैं, लेकिन उन गलतियों के समय को और उन सारी परिस्थितियों को भी देखने, जानने, समझने की जरूरत है। मेरा मानना है कि गलती करने वालों को सराहा जाना चाहिए कि कम से कम उन्होंने काम तो किया तभी गलतियों की गुंजाईश बनी। आरएसएस या इस तरह के अन्य संगठनों ने कोई गलती इसलिए नहीं की क्योंकि ये संगठन कोई काम नहीं कर रहे थे बल्कि उल्टे ब्रिटिश सरकार से माफी माँग रहे थे या अंग्रेजों के साथ खड़े हुए थे। इसलिए यदि उस वक्त कम्युनिस्ट पार्टी या उसके नेताओं से कुछ गलतियाँ हुईं या उस समय आंबेडकर ने किस तरह दलित आंदोलन आगे बढ़ाया, इसमें कोई कमी रह गई तो इन कमियों को हम वक्त के फ्रेम से देखना भी जरूरी समझते हैं।
दूसरी बात, आंबेडकरवाद का मसला हो या मार्क्सवाद का, ये अगर बौद्धिक बहसों तक ही सीमित रहेगा तो जाहिर है कि उससे या लाल-नीले की प्रतीकात्मकता से बात नहीं बनेगी। बौद्धिक बहसों से हमें समझने में मदद मिल सकती है, नये विचार या नये प्रस्थान बिंदु मिल सकते हैं। मैं बौद्धिक बहसों की आलोचना नहीं कर रहा मैं उन्हें भी काम मानता हूँ। यह भी उतना महत्त्वपूर्ण काम होता है और उससे वैसी ही फसल तैयार होती है जैसे एक किसान खेत में पसीना गिराता है। ये जो हमारा मानसिक श्रम है इसको यदि हम ठीक तरह से तैयारी के साथ करें तो यह भी हमें कुछ प्रस्थान बिंदु दे सकता है जहाँ से हम जनपक्षधर समाज, जनपक्षधर आंदोलन को आगे बढ़ाने में कुछ नये सूत्र, कुछ नये रास्ते तलाश कर सकें। आंबेडकर “सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धान्त”.के खिलाफ थे। मैंने जो आंबेडकर को पढ़ा तो पाया कि उनके ऊपर मार्क्सवाद को लेकर जो असरात थे, वो मुख्यतः अमरीकन और इंग्लैण्ड के मार्क्सवादियों के थे। रूसी, जर्मनी मार्क्सवादियों से उनका वास्ता नहीं रहा था, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल (कॉमेंटर्न) के वे कभी हिस्सेदार भी नहीं बने इसलिए समाजवाद और मार्क्स के “सर्वहारा की तानाशाही” को लेकर उनकी समझ सही नहीं बनी। सर्वहारा की तानाशाही को लेकर मार्क्स के आशय को आंबेडकर की समझ पर सवाल हैं।
आंबेडकर ने भारत में जातिवाद की समस्या को पहचाना और लड़ाई लड़ी। आम्बेडकर अपने आखिरी दिनों में जो किताब लिख रहे थे और जो पूरी नहीं हो पाई जिसका शीर्षक वे भारत और साम्यवाद रखना चाहते थे उसके उसके तिरेसठ पेज टाइप्ड पेज आनंद तेलतुम्बड़े के पास हैं, जिसमें उन्होंने कम्युनिस्ट आंदोलन और उनके द्वारा शुरू किये गए दलित आंदोलन के बीच की दरारों पर रौशनी डाली। यह तकलीफदेह है कि आम्बेडकर ने कम्युनिस्टों के लिए बहुत ही खराब भाषा का प्रयोग किया और उतना तकलीफदेह यह भी है कि उस वक्त कम्युनिस्टों ने अपने प्रस्तावों में आम्बेडकर के आन्दोलन को अंग्रेज साम्राज्यवादियों की साजिश करार दिया। अपने वक्त के दो बड़े आंदोलन जो शोषितों की शोषण से मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध थे, आपस में एकदूसरे के साथ तालमेल नहीं बिठा पाए। कम्युनिस्टों की पहली प्राथमिकता वर्ग संघर्ष थी तो आंबेडकर के लिए जातिवाद मुक्ति। दलित तबके में भी जातिवाद अपनी जड़ें फैलाए हुए है तो जातिवाद को केवल ऊपरी तौर पर खत्म नहीं किया जा सकता। बाद में जाति आधारित जितनी भी राजनीतिक पार्टियां बनीं, उन्होंने इस जातिवाद को और मजबूत ही किया। इससे न तो दलितों के संघर्ष का भला हुआ और न ही वर्ग संघर्ष का। आज इतने वर्षों बाद भी हम देख सकते हैं कि ज्यादातर दलित ही गरीब हैं और ज्यादातर गरीब ही दलित हैं।
मुश्किल से एक प्रतिशत लोग ही दलित वर्ग के तौर पर ऊँचे तबके तक पहुँचते हैं। दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन ने अपने भीतर के जातिवाद के प्रश्न को भले वक्ती तौर पर खत्म किया हो लेकिन आज वहाँ हमें जातिवाद नहीं दिखता क्योंकि किसान और खेत मजदूर के तौर पर दलित किसान हों या गैरदलित किसान, दलित मजदूर हों या गैरदलित मजदूर दोनों के ही तात्कालिक और दीर्घकालीन हित एकदूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। परस्पर हितों की इस समानता ने पंजाब और हरियाणा को आपस में रंजिश भुलाकर एक साथ आने के लिए मजबूर कर दिया। जिंदगी की रोजमर्रा की जो हकीकतें होती हैं उनसे ही वो मोर्चा खुलता है जहाँ अलग-अलग तबके एकदूसरे के साथ खड़े होते हैं। यह वक्त है कि हम ऐसी एकजुटताएँ बढ़ा सकें और आज सबके सामने मौजूद फासीवाद के खतरे का सामना कर सकें। न तो आंबेडकर फासीवाद के पक्ष में थे और न ही मार्क्सवादी कभी फासीवाद को बर्दाश्त कर सकते हैं। पूँजीवाद के जरिये जिस तरह लोगों पर लगातार जबरन चीजें थोपी जा रही हैं, लोगों को आपस में बाँट-बाँट कर अलग करने की साजिशें की जा रही हैं, इनसे पूँजीपति वर्ग को छोड़कर सभी तबकों पर कोड़े की मार पड़ेगी चाहे वे दलित हों या गैरदलित। और यही हमला हर शोषित तबके को एकसाथ लाने की बुनियाद बन सकता है। और इसमें हमारे इप्टा के साथियों, कलाकारों के गीत हों, नाटक हों, नृत्य हों। ये सब दरारों को पाटने में एक सही समझ का निर्माण करने में अपनी अहम भूमिका निभा सकते हैं। इन सांस्कृतिक औजारों का इस्तेमाल कॉमरेड पी सी जोशी ने बखूबी किया। बंगाल के अकाल के दौरान इप्टा और प्रलेस की भूमिका ऐतिहासिक रही। कम्युनिस्ट पार्टी ने भी बिना वर्ग संघर्ष या जाति संघर्ष का नाम लिए जनांदोलन के जरिये जनता के दिलों में अपनी अमिट छाप छोड़ी। ऐसी तमाम मिसालें लोगों की नजर में लाना जरूरी हैं। मेरा मानना है कि आज देश जितनी भी बुरी हालत में हो लेकिन इसमें जो भी अच्छा है उसकी वजहों को अगर ढूढेंगे तो उसकी बुनियाद में गाँधी, नेहरू, आम्बेडकर, भगत सिंह, सुभाष बोस जैसे अनेक लोग आएँगे। उन्हें भुलाकर या हाशिये पर धकेल कर इस हिंदुस्तान को मुमकिन नहीं किया जा सकता था। आरएसएस ने आज जो खराब हिंदुस्तान बनाया है, आज से 70 साल पहले वे इससे भी ख़राब हिंदुस्तान बनाने के पक्ष में थे। तो आज जो अच्छाइयाँ इस हिंदुस्तान में बची हुई हैं उन्हें उनके अन्तर्विरोधों के साथ समग्रता में समझते हुए, उनकी ऐतिहासिकता जानते हुए हमें उन अच्छाइयों को आगे बढ़ाना है।
भारतीय जन नाट्य संघ के राष्ट्रीय महासचिव राकेश ने इस चर्चा के अंत में कहा कि आज की परिचर्चा का सार यह है कि वर्तमान की चुनौतियां से निपटने के लिए हम कैसे अपने नये औज़ार विकसित करें। जब आज़ादी की लड़ाई चल रही थी तो आम्बेडकर उसे केवल अंग्रेजों से देश की आज़ादी के रूप में नहीं देख रहे थे। वे इसे दलित, अछूत, और एक दमित राष्ट्र के संघर्ष के रूप में देख रहे थे। तमाम बातों के बाद जनता के बीच सीधा-सादा संदेश जाता है कि दुनिया दो हिस्सों में बँटी है अमीर और गरीब। शोषक और शोषित। लेकिन हिंदुस्तान में शोषित और शोषक के बीच कितनी तहें हैं जिन्हे आंबेडकर पकड़ते हैं। आंबेडकर चिंतन को विवेक और तर्क के रूप में हमारे सामने रखते हैं वहीं मार्क्सवादी चिंतन का मूल आधार ही वैज्ञानिक तर्क और चिंतन है। पिछले दिनों में जिन तर्कशीलों की हत्याएँ हुईं, वो सारे वही थे जो तर्क और चिंतन, वैज्ञानिक तर्क के जरिये सच्चाई को लोगों के सामने रख रहे थे। लोगों के सामने तर्क और विवेक के जरिए सच्चाई रखने वाले लोगों पर हमले किये गए, जेलों में डाला गया, कैद किया गया और तमाम लोगों के ऊपर दूसरी तरह से हमले किए गए। विशेष रूप से आज सांस्कृतिक मोर्चे पर काम करने वाले हम लोगों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हम आपसी मतभेद, रंजिश एवं भेदभाव भूलकर एकजुट होकर संघर्ष करें।
कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में लिखा है कि अब तक का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है। भारत के संदर्भ में अगर हम इसके शब्दों पर न जाकर मूल आशय को समझें तो यहाँ वर्ग संघर्षों का नहीं बल्कि वर्ग और जाति संघर्षों का इतिहास रहा है। जब जाति आधार अधोरचना को ओव्हरलेप करती है तो आज वर्तमान की न्यायिक व्यवस्था, सारे सरकारी विभाग, सारा सरकारी तंत्र और यहाँ तक कि जनता द्वारा चुनी हुई सरकार भी पूरी तरह से आज के कॉर्पोरेटी समाजवाद के कब्जे में है। सबसे ज्यादा आत्म चिंतन, आत्म समीक्षा का विषय यह है कि विभिन्न मोर्चों पर लड़ने वाले हमारे साथी चाहे वह दलित, आदिवासी या अन्य मोर्चे हों, उन्हें कैसे सुरक्षित रखा जाए। हम अपने औज़ार नये तरह से कैसे तराशें, यह समझने की जरूरत है। और यही बात हमें बार-बार इतिहास को खँगालने और उसके पन्ने पलटने को मजबूर करती है। जब हम इतिहास को समझेंगे तभी हम भविष्य की कोई राह बना पाएँगे। आज की संगोष्ठी जयंती के तौर पर याद करने की औपचारिकता मात्र नहीं है। कॉमरेड पी सी जोशी के औज़ारों के कारण ही आज हम इप्टा एवं प्रलेस के मंच पर खड़े हैं। आज भले हममें बिखराव हो गया हो लेकिन आज हमारे सामने चुनौती यह है कि सबको मिलकर एकजुट कैसे किया जाए? वीरा साथीदार को बहुत सम्मान के साथ याद करते हए बताना चाहता हूँ कि वे एक अलग पृष्ठभूमि से आये थे लेकिन विगत कुछ दिनों से लगातार इप्टा के साथ मिलकर काम कर रहे थे। हम लगातार इस तरह एकजुट होने का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने नागपुर में तो इप्टा का गठन किया ही लेकिन अमरावती से लेकर पूरे विदर्भ में इप्टा के गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। जिस तरह वीरा साथीदार को इप्टा ने अपने साथ जोड़ा, सम्भाजी भगत आज हमारे साथ हैं, उसी तरह हमें एक राह के अन्य साथियों को जोड़ने और एकजुट करने की जरूरत है। हम सभी को हमें अपने औज़ार पैने करने के लिए जो जरूरतें हैं उन्हें तलाशना है। इस वेबिनार में देशभर की इप्टा इकाईयों से जुड़े हजारों लोगों ने शिरकत की।
इंदौर से सारिका श्रीवास्तव की रिपोर्ट