“हिना” फिल्म इंसानियत को बयां करती दो दिलों की प्रेम कहानी है. इसमें प्रेम, इंसानियत के मूल्यों के साथ जी रहे आमलोगों की जिंदगी में मचने वाली खलबली है जो सियासत ने सरहद की लकीरें खींच कर उठाई है. ख़्वाजा अहमद अब्बास की जिंदगी का भी ये सवाल था कि चाँद को चन्द्रमा कहने से क्या उसकी रौशनी की तासीर में फर्क आ जाता है और यह उनकी ज़िंदगी का सपना भी था कि बाँटने वाली चीजों से ज़्यादा तरजीह इंसानों को आपस मे जोड़ने वाली चीजों को दी जाए। राजकपूर और अब्बास साहब की जोड़ी की यह आखिरी फिल्म थी जिसे दोनों ही अपने जीवन में नहीं देख पाए. हिना सरहद पार के दो दिलों की प्रेम कहानी है जो एक हिंदू और मुसलमान के बीच घटित होने वाली अपने समय की बोल्ड कहानी है. पाकिस्तान से इज़ाजत न मिलने की वजह से इस फिल्म की शूटिंग मनाली और आस्ट्रिया में हुई.
भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) द्वारा ख्वाज़ा अहमद अब्बास के बहुआयामी व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित ऑनलाइन कार्यक्रम की तीसरी कड़ी में अब्बास साहब द्वारा लिखी फिल्म “हिना” पर विस्तार से बात हुई. जिसका प्रीमियर फेसबुक और यूट्यूब पर 27 जुलाई 2021 को किया गया. फिल्म इतिहासकार और स्तम्भकार सुखप्रीत काहलों (दिल्ली) मुख्य वक्ता थीं. सुखप्रीत ने “सरहद, मिट्टी और ख़्वाब” शीर्षक से हिना फिल्म के जरिए अब्बास साहब की कहानी पर बात करने के साथ भारत और पाकिस्तान की सरहद पर घटने वाली प्रेम कहानी के साथ सांप्रदायिक सौहार्द्र देश के विभाजन पर उनका नज़रिया, राज कपूर के साथ बनाई फिल्मों पर चर्चा और उनकी आत्मकथा के कुछ प्रासंगिक अंश साझा किए.
उन्होंने बताया कि ख़्वाजा अहमद अब्बास के लिए राजकपूर ने कहा था – “लोगों के लिए ख़्वाजा अजमेर में हैं पर मेरे ख़्वाजा तो आप हैं”.
सुखप्रीत ने कहा कि सन 1987 में अब्बास साहब और 1988 में राजकपूर की मृत्यु के बाद “हिना” फिल्म का निर्देशन किया रणधीर कपूर ने लेकिन फिल्म की स्क्रिप्ट अब्बास साहब ने 1981 में ही लिख दी थी और उसी वर्ष राजकपूर के जन्मदिन पर मेहंदी के पत्तों से करीने से सजी टोकरी के बीच बहुत खूबसूरती से बाइंड की हुई “हिना” फिल्म की स्क्रिप्ट भेंट की थी.
हिना फिल्म सरहद पार की कहानी की अपनी तरह की पहली फिल्म है. बँटवारे पर होने वाली हिंसा पर अब्बास साहब ने विभाजन पर लिखी किताब में भी ज़िक्र किया है. वे मानते हैं कि इस दौर में होने वाली हिंसा की जिम्मेदारी न किसी हिन्दू की थी और न किसी मुसलमान की बल्कि इसके लिए अंग्रेजी साम्राज्यवाद जिम्मेदार था जिसने हिन्दू-मुसलमान नहीं बल्कि इंसानियत का कत्लेआम किया. सुखप्रीत ने हिना के साथ ही पाकिस्तान में इससे मिलती-जुलती थीम पर बनी फिल्म “लाखों में एक”, भारतीय फिल्म “छलिया” और हाल में बनी “वीर-ज़ारा” व “तूफ़ान” फिल्म के उल्लेख से अपने वक्तव्य के अंत में कहा कि अब्बास साहब का ख़्वाब सियासी सरहदों को मिटाकर इंसानियत का दायरा बढ़ाने का था लेकिन आज के वक्त में हम अपने वतन के भीतर ही सरहदों को बनता और बढ़ता देख रहे हैं.
कार्यक्रम में ख़्वाजा अहमद अब्बास की भतीजी और उनकी याद में बनी ट्रस्ट की अध्यक्ष डॉ सैयदा हमीद ने कहा कि अब्बास साहब की माँ का इंतकाल पाकिस्तान में हुआ था और वे जनाजे में शरीक भी नहीं हो पाए थे. इस प्रसंग पर उन्होंने लिखा था कि पाकिस्तान की ज़मीन में छह फिट ज़मीन हमेशा हिन्दुस्तान की रहेगी क्योंकि वहाँ मेरी माँ दफन हैं. इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश (लखनऊ) ने अपनी पाकिस्तान यात्रा का संस्मरण सुनाते हुए कहा कि जब हम वहाँ जाने वाले थे भारत से जाकर पाकिस्तान में बसे अनेक लोगों ने हमसे अपने गाँव की मिट्टी लाने की गुज़ारिश की थी.
कार्यक्रम का संचालन कर रहे विनीत तिवारी (इंदौर) ने कहा कि फिल्म की नम्बरिंग में राजकपूर और अब्बास साहब की सोच को सम्मान देते हुए चित्रांकन मक़बूल फ़िदा हुसैन ने किया था. इप्टा की सदस्या अर्पिता (जमशेदपुर) ने हसीना मोईन का जिक्र किया जिन्होंने फिल्म के संवाद लिखने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था लेकिन अपना नाम नहीं दिया. साथ ही अर्पिता ने अन्य कला माध्यमों में व्यक्त बँटवारे के दर्द का भी उल्लेख किया. कार्य्रकम संकल्पनाकार डॉ जया मेहता (इंदौर) ने कहा कि बँटवारे के दर्द में हिन्दू-मुसलमान के दर्द और संघर्ष को याद करते समय उस साम्राज्यवाद को भूलना नहीं चाहिए कि देश,धर्म, नस्ल आदि का बहाना लेकर सबसे बड़ा कहर साम्राज्यवाद ने बरपा किया.
इस ऑनलाइन कार्यक्रम में ओडिसी नृत्यांगना एवं ज़ोहरा सहगल की बेटी किरण सहगल (दिल्ली), इप्टा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तनवीर (पटना), इप्टा की राष्ट्रीय सचिव उषा आठले (मुंबई), सौम्या लाम्बा (दिल्ली), फरहत रिजवी (दिल्ली), राजीव कुमार शुक्ल (दिल्ली), सारिका श्रीवास्तव (इंदौर), प्रकाशकांत (देवास), नरेश सक्सेना (लखनऊ), महेश कटारे सुगम (बीना), डॉ जमुना बीनी, शेखर-ज्योति मलिक (झारखंड), डॉ अमित राय (वर्धा), शशिभूषण (उज्जैन), सुरेन्द्र रघुवंशी (अशोकनगर), रजनीश साहिल (दिल्ली) , के साथ देश भर से प्रगतिशील संगठनों से जुड़े क़रीब एक हज़ार लोग शामिल हुए।