रज़ा नईम
साहिर लुधियानवीः 1921-1980- “साहिर लुधियानवी की शायरी में अपने वक्त और आम आदमी के हक-हुकूक की आवाज खुलकर उठी”
सौ साल पहले मार्च में लुधियाना के एक पंजाबी जमींदार परिवार में जन्मे अब्दुल हई बाद में साहिर लुधियानवी नाम से मशहूर हुए। 1980 में मुंबई में उनका निधन हुआ। वे धनी-मानी जमींदार के इकलौते वारिस थे, जिसने उनकी मां को तलाक दे दिया था। महान उर्दू शायर अहसान दानिश के अनुसार, अदालती फैसले से पहले ही साहिर ने अपने अमीर पिता के साथ रहने के बजाय गरीब मां के साथ रहने का फैसला कर लिया था। इसी के साथ, साहिर के लिए मानवीय मूल्यों की कसौटी में महिला अधिकार की अहमियत खास हो गई। उन पर मां के सामाजिक शोषण का ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा कि उससे उनकी रूमानी जिंदगी भी प्रभावित हुई और वे आजीवन अकेले रहे।
वर्ग गैर-बराबरी के खिलाफ उनका गुस्सा कॉलेज से उन्हें निकाल दिए जाने की भी वजह बना। हालांकि 25 साल के होने के पहले ही उनकी तल्खियां प्रकाशित हुई, जो आज भी बेस्ट सेलर बनी हुई है। अलबत्ता, लोग साहिर को बतौर कामयाब फिल्मी गीतकार ही सबसे ज्यादा याद करते हैं। गाता जाए बंजारा शीर्षक से आया उनके कुछ फिल्मी नज्मों का संग्रह आज भी संजीदा किताबों की दुकानों में काफी बिकता है। फिल्मी गीतों में वर्ग चेतना को रांमांटिक अंदाज में पेश करने का श्रेय उन्हीं को है। इस तरह अपनी राजनैतिक चेतना का उन्होंने फिल्मी मुहावरा गढ़ा।
उनकी लोकप्रियता केवल फिल्मी गीतों के लिए ही नहीं थी। तल्खियां के नज्म और गीत भी कुछ वर्षों बाद फिल्म प्यासा के माध्यम से गैर-उर्दू भाषी तबकों तक पहुंचे। हालांकि यह अचरज भरा है कि बौद्धिक वर्ग में उनकी अनदेखी हुई। मसलन, मुहम्मद सादिक ने उर्दू साहित्य की समालोचना में गालिब, इकबाल और अकबर इलाहाबादी तक पूरा-पूरा अध्याय लिखा, जबकि साहिर को एक पैराग्राफ में निपटा दिया, जिसकी शुरुआत कुछ इस तरह है, “कल्पना का दायरा छोटा होने के बावजूद साहिर की बौद्धिक पृष्ठभूमि मजबूत है।” लेकिन शायर तो लोगों की याददाश्त में ही जिंदा रहता है।
साहिर की लोकप्रियता उर्दू के आला शायरों के लिए भी ईर्ष्या की वजह थी लेकिन यह मुशायरों में मिली शोहरत से अलग थी। उनकी शायरी में शब्दों का आंडबर नहीं था। उनके गीतों को संगीत में बांधा गया लेकिन उनकी शब्द-संरचना में कोई लय या छंद नहीं है। रोमांटिक गीतों में भी आशिकी के रंग के बजाय वास्तविकता की कड़वाहट थी, जिसने हर दिल पर दस्तक दी। उनकी शायरी में शब्द बहुत सरल हैं लेकिन अर्थ गहरे।
साहिर उस वक्त शायरी की दुनिया में आए, जब फैज की नज्म मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग की गूंज फिजा में थी। इसलिए उनके नज्मों के संग्रह तल्खियां में अभी न छेड़ मुहब्बत के गीत ए मुतरिब/अभी हयात का महौल खुशगवार नहीं को शीर्षक के रूप में प्रस्तुत किया गया।
उनकी शुरुआती शायरी में, कलीमुद्दीन अहमद की शब्दों में, ऐसे व्यक्ति की भावनाएं हैं, जो अभी बीए पास नहीं है। बेशक, यकसुई नज्म के अंतिम शे’र देखिए तुम में हिम्मत हो तो दुनिया से बगावत कर दो/वरना मां-बाप जहां कहते हैं शादी कर लो। शुरुआत से ही साहिर में कविताई और गीत के तत्व दिखते हैं। उनके कुछ गीत उस दौर के बेहतर गीतों में हैं, फिर न कीजिए मेरी गुस्ताख निगाह का गिला/देखिए आपने फिर प्यार से देखा मुझ को।
मजाज लखनवी की तरह, उनकी शायरी में ऐसी अपील है, जो सबको छूती है और यही उनकी लोकप्रियता का राज भी है, भले उसमें एकदम गहरे अनुभव और बौद्घिकता का पुट न हो। साहिर के संग्रह शायद प्रगतिशील शायरों में सबसे अधिक पढ़े गए। साहिर न तो फैज की तरह बौद्धिक वर्ग के शायर हैं और न ही दूसरों की तरह मजदूरों के जलसों के शायर। उनकी लोकप्रियता मध्यम वर्ग के सामान्य शिक्षित युवाओं में है। उनकी शैली में एक पवित्रता, सहजता और मिठास है, जो सीधे आम युवाओं को जोड़ती है। अपनी सबसे लोकप्रिय नज्म ताजमहल से साहिर ने उर्दू प्रगतिशील शायरों में अपनी जगह बनाई। मोहम्मद रफी ने 1964 में फिल्म गजल में उसे खूबसूरती से गाया, ताज तेरे लिए एक मजार-ए-उल्फत ही सही/तुझको इस वादी-ए-रंगीन से अकीदत ही सही/मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे।
साहिर की लोकप्रिय शायरी की खासियत वह शैली है जिसमें स्वछंदता और बनावटीपन नहीं है। उनमें अपने अनुभव को पेश करने का अनोखा कौशल है। फिल्मी दुनिया में प्रवेश करने के बाद, उन्होंने शायरी को लगभग छोड़ दिया, लेकिन फिल्मी गीतों में भी उन्होंने बड़ी संजीदगी से प्रगतिशील रुझान को जगह दी। उनके फिल्मी गीत माधुर्य और लय से भरे हैं, तो उनमें नई परिस्थितियों और नए मुद्दों का गहरा एहसास भी है। उसी दौर में शांति पर उन्होंने परछाईं लंबी नज्म लिखी, जो इस विषय पर अब तक सर्वश्रेष्ठ है। और 1976 में आई फिल्म कभी कभी का मैं पल दो पाल का शायर हूं अविस्मरणीय है।
साहिर लुधियानवी की शायरी में दुनिया की घटनाओं के अलावा एक आत्मकथात्मक स्पर्श भी है। वह अपने वक्त के इनसानी समस्याओं से भी रू-ब-रू है और खुद से भी मुकाबिल है। वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बर्बाद किया है/इल्जाम किसी और के सर जाए तो अच्छा।
(लेखक लाहौर में समाज विज्ञानी, आलोचक, अनुवादक हैं। वे आजकल साहिर लुधियानवी का लाहौर, लाहौर का साहिर लुधियानवी पुस्तक पर काम कर रहे हैं। ये विचार निजी हैं) सौज- आउटलुक