क्या है सिस्टम का फेल होना?

विक्रम सिंह

लोगों को बताया जा रहा है कि जनता ही सिस्टम है, इसलिए जनता फेल हो गई। सिस्टम का फेल होना आपका फेल होना है।

हमारे देश में कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने आतंक मचा रखा है। हस्पताल से श्मशान/कब्रिस्तान तक लम्बी कतारें लगी हैं। जनता आशंकित और आतंकित दिख रही है। ऊपर से सरकार गायब है। ऐसा लगता है कि जैसे हमारी सरकार ने इस स्थिति के बारे में सोचा ही नहीं- तैयारी करना तो दूर की बात है। जाहिर है लोगों का गुस्सा चुनी हुई सरकार के खिलाफ उग्र हो रहा है। जब लोग मर रहें है, प्रधानमंत्री और उनके मंत्री केवल चुनावी रैलियों में लीन हैं। ऊपर से कुम्भ का आयोजन और इसके आयोजन को सही साबित करने के लिए भाजपा नेताओं के कुतर्क बयान। पूरा देश सरकार और प्रधानमंत्री से कठोर प्रश्न पूछ रहा है।

ऐसे में यकायक टेलीविज़न में सरकार के रक्षक न्यूज़ एंकर नया शिगूफ़ा लेकर आए और सभी तरफ से सिस्टम को कोसना शुरू हो गया। विफलता सरकार की नहीं सिस्टम की है। पता चला है कि नॉएडा में स्थित समाचार चैनलों को सरकार से मेल आया है कि सरकार शब्द का प्रयोग न करें। जहाँ सरकार को कोसना पड़े, वहाँ सरकार की जगह सिस्टम लिखें/बोलें। पिछले कुछ दिनों से वह सभी लोग जो कभी सिस्टम पर ऊँगली नहीं उठाने देते थे, सिस्टम के फेल होने के प्रमाण पत्र दिखा रहे हैं। यह हो रहा है केवल और केवल मोदी जी की विफलता को छुपाने के लिए।

जनाब, वैसे हम तो इनसे पूरी तरह सहमत हैं, पहले से ही कह रहे थे इस महामारी ने भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में इस व्यवस्था की पोल-खोल कर रख दी है। सही में सिस्टम फेल हो गया है। इसकी विफलता लोगों की जिंदगियों के साथ नंगई के साथ खेल रही है। पर समझना पड़ेगा यह सिस्टम है क्या और कौन सा सिस्टम फेल हुआ है। हालाँकि सिस्टम फेल होने के साथ ही जनता के खिलाफ साजिश शुरू हो गई। उनको ही दोषी ठहराने की मुहिम चल पड़ी। कहा जा रहा है कि हॉस्पिटल फेल हो गए, ऑक्सीजन प्लांट फेल हो गए, दवाई कंपनियां फेल हो गईं। लोगों को बताया जा रहा है कि जनता ही सिस्टम है, इसलिए जनता फेल हो गई। तो चलिए चुप रहिये क्योंकि सिस्टम का फेल होना आपका फेल होना है। जो लोग नहीं गरियाए, वे दुःख सहन कर के अगले दुःख की खबर के लिए कमर कसने लगे।

लेकिन सिस्टम बनाती है सरकारें और उनके हुक्मरान। हाँ जी, यह समझना होगा वही सिस्टम फेल हुआ है जिसका आधार ही मुनाफा बनाया गया था। इसी सिस्टम को बनाने की कोशिश में सब केंद्र सरकारें लगी रहीं। इससे पहले वाली और उनसे पहले वाली भी। और मोदी जी तो इस सिस्टम को अपने चरम पर लेकर जाने वाली सरकार का नेतृत्व कर रहें है। 

जी वही सिस्टम फेल हुआ है जहाँ हर चीज निजी हाथों में देने की प्रक्रिया है। उसी निजीकरण के चलते महामारी के दौर में भी इंसानी जान से ऊपर है मुनाफा। तो निजी हस्पताल लगे है इंसानी खून चूसने में। मरीज जिन्दा रहे या नहीं फर्क नहीं पड़ता उनको, हाँ उनका बिल समय पर चुकता होना चाहिए। अभी तो चलन हो गया है अग्रिम डिपोजिट का। जी मरीज की भर्ती से पहले अग्रिम जमानत- चाहे वह मरीज़ ठीक हो या उसका पार्थिव शरीर जाये हॉस्पिटल से। यह सिस्टम की विफलता ही है कि कोरोना से लड़ाई में जीत की दिख रही आस- वैक्सीन- में भी कम्पनियाँ अरबों रुपये का मुनाफा कमा रही हैं और सरकार उनके साथ खड़े होकर उनके मुनाफे सुरक्षित कर रही है। हाँ, यही सिस्टम है जहाँ देश की बहुतायत जनता (युवा, 18 से 45 वर्ष आयु ) के लिए वैक्सीन के चरण शुरू करते ही वैक्सीन बनाने वाली निजी कंपनियों ने वैक्सीन के दाम कई गुना बढ़ा दिए। केंद्र सरकार कोने में खड़ी लोगों की ज़िन्दगी की बोली लगते देख रही थी। यह है सिस्टम ही विफलता।

यह उस सिस्टम की विफलता है जहाँ नवउदारवादी नीतियों के फतवों के चलते भारत ने अपने मेडिकल सेक्टर को निजीकरण की राह पर ला दिया। और निजीकरण की पहली शर्त है सार्वजनिक क्षेत्र को कमजोर करना। जनाब यह हमारे सरकारी डॉक्टर्स, नर्स और अन्य मेडिकल और पैरा-मेडिकल स्टाफ की हार नहीं है। उन्होंने तो बिना असले (पी पी किट, दवाइयां, ऑक्सीजन, बेड आदि) के भी मोर्चा संभाले रखा है। अपने जीवन तक न्योछावर कर दिए हैं। अनेक कहानियां हैं उनकी बहादुरी की। जब-जब कोरोना महामारी को याद किया जायेगा तो उनकी विजयगाथा कानो में गूंजेगी। परन्तु लाखों मरीज़ जो हस्पालों के बाहर एक अदद बेड , दवाई या ऑक्सीजन के लिए संघर्ष में अपनी जान गंवा दे रहे हैं, उनका दोषी है यही सिस्टम जिसने हमें इस हालात में पहुँचाया है। जी इस सिस्टम की विफलता है जिसे सबके सामने लाना है और उसका विकल्प खोजना है।

सीधे शब्दों में कहें तो यह विफलता है इस पूंजीवादी व्यवस्था की जिसे अंतिम सत्य के तौर पर हमारे सामने पेश किया जाता है। हाँ जब हम इस सिस्टम के फेल होने की बात करेंगे तो सबके सुर बदल जायेंगे। तब सरकार भी अपनी विफलता मानेंगी और पूंजीवादी व्यवस्था पर कोई प्रश्न न करने देंगी। यह है वह मर्ज़ जिसे हमें पहचानना है।

तय है कि मोदी सरकार तो हर मोर्चे पर विफल रही है। इस पर चर्चा ही क्या करें। इस इंसान के पास कोई नीति ही नहीं है। जिसका काम केवल आत्मस्तुति के लिए कार्यक्रमों का आयोजन करवाना मात्र है। महामारी के खिलाफ गंभीर लड़ाई की जगह, जिसकी प्राथमिकता अपनी इमेज बनाने और अपनी लोकप्रियता आंकने तक सिमित हो उनसे तो आशा ही क्या की जा सकती है। लेकिन यह भी समझना पड़ेगा कि इस व्यवाह हालात का बड़ा कारण हमारी व्यवस्था ही है जिसका आधार निजी सम्पति और निजीकरण हैं। जिसमें पूँजी प्राथमिक है न कि श्रम। इंसान प्राथमिक नहीं केवल मुनाफा को प्राथमिकता दी जाती है।

हाँ, इस पूंजीवादी व्यवस्था में भी सही समझ और सही नीति के साथ लोगों का जीवन बचाया जा सकता है। जिसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं। इस महामारी से पूंजीवाद का ध्वजवाहक अमरीका भी बुरी तरह त्रस्त है। वहां भी आम इंसान मरने को मज़बूर है क्योंकि तमाम दावों के बावजूद निजी चिकत्सा और चिकित्सा बीमा का मॉडल का आधार तो मुनाफा ही था। ऐसी आपदा का सामना करने की कुव्वत तो उसमें थी ही नहीं। इसके विपरीत चीन जहाँ यह वायरस पहले पहल रिपोर्ट हुआ और तबाही मचाई, वहां की सरकार ने स्थिति नियंत्रण में कर ली है और दूसरी/ तीसरी लहर का इतना प्रतिकूल असर नहीं दिख रहा है। आप उनसे नफरत करें उनके खिलाफ घृणित प्रचार करें परन्तु वहां के सिस्टम की काबिलियत तो सबके सामने है। क्यूबा जैसे छोटे से देश ने तो पूरे विश्व में लोगों की जान बचाने का बेमिसाल काम किया। वहां भी श्रेय वहां के समाजवादी सिस्टम को ही जाता है।

यहाँ अपने घर में भी केरल जैसा राज्य जहाँ सबसे पहला केस सामने आया था उसने विकल्प पेश किया है। यह उदहारण है इस व्यवस्था में भी विकल्प बनाने का क्योंकि केरल कोई समाजवादी मुल्क नहीं है वल्कि इसी देश का एक राज्य है। इसी देश की नीतियां और विधान वहां लागू होता है। परन्तु केरल की वाम मोर्चे की सरकार के पास समझ और नीति है। उनकी विचारधारा में मुनाफा प्राथमिक नहीं है वल्कि इंसान पहले हैं। इसलिए धारा के खिलाफ जाते हुए सार्वजानिक क्षेत्र को न केवल बचाया है बल्कि मज़बूत किया है। और यही सार्वजानिक क्षेत्र कोरोना के खिलाफ लड़ाई में रीड की हड्डी का काम कर रहा है।

चुनाव तो केरल में भी थे और राज्य की सरकार चला रहे मोर्चे के लिए ज्यादा मुश्किल थे। परन्तु उनकी प्राथमिकता कोरोना के खिलाफ लड़ाई ही बनी रही। केंद्र में बैठे कपटी नेताओं की तरह केवल चुनावी रणनीति ही अंतिम सांस नहीं बनने दी। इसलिए उन्होंने कोरोना की दूसरी लहर के खिलाफ लड़ने के लिए ढांचा तैयार किया। नतीज़न जब पूरा देश ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहा था,  उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री अजय बिष्ट (योगी आदित्यनाथ का असली नाम) अपने नागरिकों से ऑक्सीजन की कमी के चलते मौत या कमी को उजागर करने पर केस का विकल्प पेश कर रहे थे तो केरल की सरकार बाकि राज्यों को ऑक्सीजन भेज रही थी। यह है विकल्प। और यह केवल पिनरई विजयन की सरकार की उपलब्धि नहीं बल्कि उनके द्वारा बनाये गए वैकल्पिक सिस्टम की कामयाबी भी है।

लेकिन केंद्र में तो कॉर्पोरेट के चाकर बैठे है जो इस सिस्टम की विफलता मानना तो दूर, इसी दमनकारी सिस्टम को मज़बूत कर उनके मुनाफे बढ़ाने के लिए कटिबद्ध है। लोग मरें या जिए लेकिन पूंजीपति के मुनाफे में कोई कमीं न आए। यही देखा है हमने पिछले एक वर्ष में जब देश में जन कोरोना के साथ साथ भुखमरी से मर रहा है, बेरोजगारी नवजवानो को मार रही है परन्तु हमारे कॉरपोर्रेट घरानो के मुनाफे लगातार बढ़ रहें। और भविष्य में ज्यादा मुनाफे निश्चित करने के लिए केंद्र सरकार नीतिगत बदलाव करने के लिए महामारी के समय का दुरुप्रयोग कर रही है है जिसने देश के किसानो और मज़दूरों को सड़क पर ला दिया है ।

इसलिए सिस्टम की विफलता को समझना होगा, यह जनता की विफलता नहीं है। देश की जनता तो इस गले-सड़े और शोषणकारी सिस्टम में भी मानवता ज़िंदा रखे हुए है। एक दुसरे के साथ दुःख और सुख में शरीक है। अगर यह साल कोरोना के कहर और सरकारों के अमानवीय वर्ताव के लिए जाना जायेगा तो जनता की बहादुरी, प्यार, त्याग के अनेको कहानिय भी इसी साल अमर हो गई है जब लोग धर्म, जाती, भाषा क्षेत्र से ऊपर उठ भूखे को खाना खिला रहे थे, मरीज को हस्पताल पहुंचा रहे थे, रक्त और प्लाज्मा दे रहें थे। 

अब यह भी जरूरत है कि हम सिस्टम के फेल होने को समझें। कौन सा सिस्टम फेल हुआ है और यह किसने बनाया है। उससे भी बड़ा सवाल अगर यह सिस्टम फेल हुआ है तो हमारा सिस्टम क्या है और उसे कैसे बनाया जायेगा। वह सिस्टम जिसे जनता, मेहनतकश जनता बनाएगी, वही चलाएगी। जिसमें मुनाफा और पूंजी ड्राइविंग सीट पर नहीं होगी, जो मानवता और मानव जरूरतों से निर्देशित होगा, लालच से नहीं। हाँ, वो ही है वैकल्पिक सिस्टम। 

इसलिए इस सिस्टम के फेल होने पर अपने को न कोसिये। यह हमारा नहीं शासकों का सिस्टम है। हम अपना सिस्टम बनाएं और उससे पहले इस सिस्टम के ढर्रे में उसके बीज बोयेंगे। एकजुटता के साथ इस महामारी को हराने के साथ-साथ नीतियों पर मोदी सरकार से प्रश्न पूछ कर। और इन अमानवीय नीतियों के खिलाफ संघर्ष लड़ कर। सृजन और संघर्ष के जरिये।

(लेखक अखिल भारतीय खेत मज़दूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।) सौज-न्यूजक्लिक

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