“तुमसे न होगा मोदी जी!”

शंभूनाथ शुक्ल

एक प्रधानमंत्री और उसके मुख्यमंत्रियों की यह नाकामी उस व्यवस्था की पोल खोलती है जो ख़ुद पिछले सात वर्षों में भाजपा ने गढ़ी है। हर जगह संवेदन-शून्य लोगों की नियुक्ति से यही होगा। पब्लिक मशीन नहीं होती। वह एक जीता-जागता समाज है।

एम आसैपंडी नोएडा के सेक्टर 51 स्थित केंद्रीय विहार में रहते थे। वे कोरोना पॉज़िटिव हो गए। शुरू में तो घर पर इलाज चलता रहा किंतु 26 तारीख़ से उन्हें साँस लेने में तकलीफ़ हुई। सेक्टर 39 के कोविड सेंटर में उन्हें भर्ती कराने के काफ़ी प्रयास किए गए। लेकिन हर बार नहीं का उत्तर मिला। सीएमओ दीपक जौहरी ने एक बार भी उनकी बात नहीं सुनी तो हार कर उनके सभी परिचितों ने स्थानीय विधायक पंकज सिंह को संपर्क करने की कोशिश की, पर बार-बार फ़ोन करने के बाद भी उनका फ़ोन नहीं उठा। मालूम हो कि पंकज सिंह केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के बेटे हैं, रसूखदार हैं। वे कहीं भी उन्हें भर्ती करा सकते थे। मगर उन्हें अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों की तनिक भी चिंता नहीं है। आसैपंडी अगले रोज़ नहीं रहे। मात्र 54 वर्ष में एक व्यक्ति अपनी कच्ची गृहस्थी को छोड़ कर चला गया। लेकिन उनके जन-प्रतिनिधि, ज़िला प्रशासन और प्रदेश शासन को उनकी कोई चिंता नहीं है। और उनकी ही क्यों नोएडा और ग़ाज़ियाबाद में सैकड़ों लोग रोज़ कोविड के चलते मर रहे हैं। इतनी अधिक संख्या में कि श्मशान में भी जगह नहीं मिल रही है। मगर सरकार चलाने वाले बेफ़िक़्र हैं। यह अकेले नोएडा का मामला नहीं है। ग़ाज़ियाबाद के विधायक और सांसद ग़ायब हैं। ग़ाज़ियाबाद ज़िले में साहिबाबाद के विधायक सुनील शर्मा और सांसद वीके सिंह सिवाय शादी-विवाह के और कहीं नहीं दिखते। एक भी कोरोना-ग्रस्त मरीज़ों की मदद के लिए आगे बढ़ कर नहीं आए। जब ऐन केंद्र सरकार की नाक के नीचे बैठे भाजपा जन-प्रतिनिधियों का यह हाल है तो दूर-दराज इलाक़ों की भला क्या बात की जाए। इसीलिए अब सभी को लग रहा है, कि किसे चुन लिया।

और तो और ख़ुद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के दिल्ली प्रांत की कार्यकारिणी परिषद के सदस्य राजीव तुली ने इस महामारी के समय भाजपा नेताओं, सांसदों और विधायकों की अनुपस्थिति पर हमला किया है। आज के इंडियन एक्सप्रेस में एक खबर है कि श्री तुली ने अपने एक ट्वीट में लिखा है कि “जब दिल्ली में चारों तरफ़ आग लगी है, तब क्या किसी ने दिल्ली भाजपा नेताओं को देखा?” यह गंभीर मामला है। इससे साफ़ प्रतीत होता है कि आरएसएस को भी अब लग रहा है कि भाजपा जनता के बीच अपनी साख खोती जा रही है। भाजपा के लिए प्राण-प्रण से जुटे वे जो लोग हर-हर मोदी और घर-घर मोदी का नारा लगाने में तत्पर थे, वे भी अब कह रहे हैं कि “तुमसे न होगा मोदी जी!” 

एक प्रधानमंत्री और उसके मुख्यमंत्रियों की यह नाकामी उस व्यवस्था की पोल खोलती है जो ख़ुद पिछले सात वर्षों में भाजपा ने गढ़ी है। हर जगह संवेदन-शून्य लोगों की नियुक्ति से यही होगा। पब्लिक मशीन नहीं होती। वह एक जीता-जागता समाज है। अगर वह किसी को सिर पर चढ़ा कर लाती है तो उसे दूर फेंकना भी उसे अच्छी तरह पता है। पूरे देश से जब आक्सीजन के लिए हाहाकार मचने लगा तो अब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री कह रहे हैं कि आक्सीजन की कमी दूर करने के लिए 500 प्लांट लगेंगे या रेमडसिविर इंजेक्शन की कमी दूर करेंगे। सवाल उठता है, कि पिछले सवा साल में मोदी सरकार चुनाव लड़ती रही, जन विरोधी क़ानूनों को पास करती रही, मंदिर का शिलान्यास करती रही लेकिन कोरोना की दवाओं अथवा कोरोना वैक्सीन के भरपूर उत्पादन बढ़ाने का ख़्याल नहीं आया? कोरोना को भारत में प्रकट हुए 15 महीने बीत चुके हैं। इस बीमारी से लड़ने के लिए हर आमो-ख़ास ने पीएम केयर फंड में मदद भी की पर इस फंड का ईमानदारी से इस्तेमाल नहीं हुआ। क्या ज़रूरत थी पाँच राज्यों में चुनाव कराने की, उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव के लिए तमाम सरकारी कर्मचारियों को झोंक देने की। इनमें से 135 कर्मचारी मारे गए, लेकिन सरकार ने चुनाव नहीं रोका। क्या ज़रूरत थी हरिद्वार में होने वाले कुंभ में लोगों की भीड़ जुटने देने की? सत्य बात तो यह है कि जब कोरोना पर लगभग क़ाबू पा लिया गया था तब इस तरह की ढील बरतने की भूल कर सरकार ने स्वयं इस बीमारी को न्योता है। और जिस दूसरी लहर को पहली लहर के पलटवार करने जैसी बात कर सरकार ज़िम्मेदारियों से मुँह मोड़ रही है, वह और भी हास्यास्पद और सरकार की संवेदन हीनता को दिखाता है। वह यह नहीं मान रही कि उसकी अपनी ग़लतियों से कोरोना की दूसरी लहर आई है। 

दिसंबर के तीसरे हफ़्ते से ही कोरोना के ब्रिटेन स्ट्रेंच की सूचनाएँ आने लगी थीं। कनाडा, अमेरिका और रूस व चीन ने ब्रिटिश उड़ानों की आवाजाही पर रोक लगा दी थी लेकिन भारत सरकार की नींद जनवरी में तब टूटी जब दिल्ली में कई लोग इस स्ट्रेंच से ग्रस्त मिले। तब तक ये लोग देश के कई हिस्सों में घूम कर अपनी बीमारी दे आए थे। इसके बाद होली के अवसर पर सरकार को लॉकडाउन लगा देना था ताकि लोग रंग खेलने के बहाने भीड़ न बढ़ाएँ। किंतु सरकार का ध्यान इस तरफ़ नहीं गया क्योंकि उसको चुनाव कराने थे। बंगाल में ममता बनर्जी को घेरना था। उसे यक़ीन था कि ममता बनर्जी अकेली पड़ गई हैं और यही समय उनको घेरने का है। हरिद्वार कुम्भ सभी को शाही स्नान की छूट दे कर सरकार हिंदू वोटों को अपने पाले में लान चाहती थी। इसी के साथ उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों को कराया गया, ताकि पता चल सके कि प्रदेश में मतदाता का मूड़ कैसा है। अगले वर्ष ही वहाँ विधानसभा चुनाव है और उत्तर परदेश में नरेश टिकैत के किसान आंदोलन से सरकार चिंतित थी। साफ़ ज़ाहिर है कि मोदी सरकार के लिए जनता नहीं चुनाव जीतना उसकी वरीयता में है। इसीलिए उसके जन-प्रतिनिधि भी अपने क्षेत्र की जनता की तकलीफ़ों से आँख मूँदे बैठी रहती है। ऐसे में इस सरकार से क्या उम्मीद की जाए!

उधर पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदम्बरम ने मोदी सरकार को उखाड़ फेकने का आह्वान किया है। परंतु लोकतंत्र में किसी सरकार को कैसे उखाड़ा जा सकता है, इसका कोई प्लान उनके या उनकी पार्टी पास नहीं है। इसका अर्थ है कि कांग्रेस के पास भी कोई स्पष्ट लाइन नहीं है। उसके नेता भी सड़क पर उतर कर ग़ुस्से को जन आंदोलन में बदलने का आह्वान नहीं कर रहे हैं। क्योंकि कांग्रेस और भाजपा में कोई साफ़ बँटवारा नहीं है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना ही है कि भाजपा एक अनुदार व घनघोर दक्षिणपंथी पार्टी है तथा कांग्रेस वाम व दक्षिणपंथी शक्तियों का घालमेल। जब वह विपक्ष में होती है, तब तो वह थोड़ा लेफ़्ट चलती है और जनवादी शक्तियों का साथ देती लगती है, मगर सत्ता में आते ही वह भी राइट चलने लगती है। अर्थात् उसका मॉडरेट या उदारवादी चेहरा भी टिकाऊ नहीं है। ऐसे में जनता सिर्फ़ मरने को विवश है। कोई भी आगे आकर सटीक निदान नहीं तलाश रहा। 

मेरा स्पष्ट मानना है कि इस स्थिति में सिर्फ़ वामपंथी शक्तियाँ ही सही रास्ता खोज सकती हैं। किंतु उनके पास कोई लोकप्रिय राजनीतिक दल या मंच नहीं है। आज भारत के लोकतंत्र को जिस चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया गया है, वहाँ किसी भी राजनीतिक दल को जनता के बीच तक पहुँचने के लिए अकूत धन चाहिए। वामपंथी पार्टियों के पास धन का स्रोत सिर्फ़ जनता है। और वह कितना भी चंदा दे पूँजीपतियों द्वारा दिए गए चंदे के मुक़ाबले नमक बराबर भी नहीं हो सकता। पूँजीपति उसी राजनीतिक दल को चंदा देते हैं, जो सरकार बनने पर उसके हितों की रखवाली करें और उन्हें दोनों हाथों लूटने का अवसर दें। मगर वे भूल जाते हैं, कि यह भारत देश अपनी तमाम ख़ामियों के बावजूद विवेक नहीं खोता, वह कुछ समय के लिए दब भले जाए। कांग्रेस यदि लेफ़्ट को साथ लेकर लड़ाई लड़ती है तो वह एक नए मक़ाम पर होगी और वही एक रास्ता है।

सौज- न्यूजक्लिक

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