आलोक जोशी
एसएंडपी ने इस साल भारत की जीडीपी में ग्यारह परसेंट बढ़त का अनुमान दिया हुआ है। लेकिन उसका कहना है कि रोजाना तीन लाख से ज़्यादा केस आने से देश की स्वास्थ्य सुविधाओं पर भारी दबाव पड़ रहा है, ऐसा ही चला तो आर्थिक सुधार मुश्किल में पड़ सकते हैं। यूँ ही देश में औद्योगिक उत्पादन की हालत ठीक नहीं है और लंबे दौर के हिसाब से यहाँ जीडीपी के दस परसेंट तक का नुक़सान हो सकता है।
लाख कोशिशों के बावजूद देश के हालात फिर वहीं पहुँच गए हैं जहाँ नहीं पहुँचने थे। केंद्र और राज्य सरकारों ने हरचंद कोशिश कर ली। हाईकोर्ट की फटकार की भी परवाह नहीं की। सुप्रीम कोर्ट जाकर अपने लिए खास परमिशन ले आए कि लॉकडाउन न लगाना पड़े। लेकिन हारकर आख़िरकार उन्हें भी लॉकडाउन ही आख़िरी रास्ता दिखता है, कोरोना के बढ़ते कहर को थामने का। महाराष्ट्र ने कड़ाई बरती तो फायदा भी दिख रहा है। अप्रैल के आख़िरी दस दिनों में सिर्फ़ मुंबई में पॉजिटिव मामलों में चालीस परसेंट की गिरावट दर्ज की गई है। जहाँ बीस अप्रैल को शहर में 7192 मामले सामने आए, वहीं 29 अप्रैल तक यह गिनती 4174 पहुँच चुकी थी। इक्कीस अप्रैल से सरकार ने राज्य में लगभग लॉकडाउन जैसे नियम लागू कर दिए थे, उसी का यह नतीजा है। और अब सारी पाबंदियाँ पंद्रह मई तक बढ़ाई जा रही हैं।
इक्कीस अप्रैल को महाराष्ट्र सरकार ने यह फ़ैसला किया इसकी भी वजह थी। 21 मार्च से पहले 39 दिनों में राज्य में कोरोना के रोज़ाना नए केस की गिनती 2415 से बढ़कर 23610 तक पहुँच चुकी थी। यही वो वक़्त था जब भारत में एक दिन में तीन लाख से ऊपर नए कोरोना मरीज़ सामने आने लगे थे। कोरोना के पहले और दूसरे दौर को भी मिला लें तब भी किसी एक दिन में यह दुनिया के किसी भी देश का सबसे बड़ा आंकड़ा था। ऐसे में सरकारों का घबराना स्वाभाविक था। और लॉकडाउन की याद आना भी।
लेकिन लॉकडाउन का नाम आते ही फिर याद आते हैं पिछले साल के डरावने नज़ारे। जिसमें लाखों लोग शहर छोड़कर अपने गाँवों के लिए निकल पड़े थे। और वो भी तब जब सरकारों ने जाने के सारे रास्ते बंद कर दिए थे। न ट्रेन, न बस, न जहाज़। फिर भी जिसका जहाँ पैर समाया चल पड़ा। वो जिसे आज़ाद भारत में बँटवारे के बाद का सबसे बड़ा पलायन कहा गया। हज़ारों किलोमीटर का सफर लोगों ने रिक्शा, साइकिल और पैदल तक तय करने की हिम्मत दिखाई। जब पूछा गया तो उनके पास एक ही जवाब था, जब भूखे ही मरना है तो यहाँ परदेस में क्यों मरें, अपने गाँव जाकर ही मरेंगे।
साफ़ था, शहरों में उनके पास काम नहीं बचा था, काम नहीं था तो कमाई भी नहीं थी, रोटी और मकान का आसरा भी नहीं। जब खाने को ही नहीं था तो फिर किराया देने को कहाँ से लाते। एक झटके में क़रीब तेरह करोड़ लोग बेरोज़गार हो गये थे। हालाँकि जल्दी ही इनमें से बहुत बड़ी संख्या में लोगों को कोई न कोई काम मिल भी गया। क्योंकि इनमें से ज़्यादातर दिहाड़ी मज़दूर या ऐसे कामों पर लगे हुए लोग थे जो उसे छोड़कर वैसा ही कोई और काम आसानी से पकड़ सकते थे। बहुत से लोग तो गाँव जाकर मनरेगा में ही लग गए और बेरोज़गार नहीं रहे। लेकिन इस दौरान और उसके कुछ समय बाद यानी अप्रैल से जुलाई के बीच क़रीब एक करोड़ नब्बे लाख लोगों की नौकरियाँ चली गईं। नौकरी जाने का मतलब पक्का रोज़गार चला गया। और नौकरी जाने के बाद वापस वैसी ही दूसरी नौकरी पाना आसान नहीं होता।
और अब एक साल बाद यह बात पक्के तौर पर कही जा सकती है कि लॉकडाउन या कोरोना का सबसे बुरा असर नौकरीपेशा लोगों पर ही हुआ है।
सीएमआईई की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि पिछले साल भर में अट्ठानबे लाख लोगों की नौकरियाँ चली गई हैं। 2020-21 के दौरान देश में कुल 8.59 करोड़ लोग किसी न किसी तरह की नौकरी में लगे थे। और इस साल मार्च तक यह गिनती घटकर सिर्फ़ 7.62 करोड़ ही रह गई है। और अब कोरोना का दूसरा झटका और उसके साथ जगह-जगह लॉकडाउन या लॉकडाउन से मिलते जुलते नियम-क़ायदे रोज़गार के लिए दोबारा नया ख़तरा खड़ा कर रहे हैं।
मुंबई और दिल्ली में लॉकडाउन की चर्चा होने के साथ ही रेलवे और बस स्टेशनों पर फिर भीड़ उमड़ पड़ी और बहुत बड़ी संख्या में फिर गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली और पंजाब से लोग उत्तर प्रदेश और बिहार के अपने गाँवों या शहरों के लिए निकल आये हैं।
शहरों में बीमारी के असर और फैलने पर तो इन पाबंदियों से रोक लगेगी, लेकिन इस चक्कर में लाखों की रोज़ी रोटी एक बार फिर दांव पर लग गई है। और साथ में दूसरे ख़तरे भी खड़े हो रहे हैं।
सबसे बड़ा डर फिर वही है जो पिछले साल बेबुनियाद साबित हुआ। शहरों से जाने वाले लोग अपने साथ बीमारी भी गाँवों में पहुँचा देंगे। यह डर इस बार ज़्यादा गहरा है क्योंकि इस बार गाँवों में पहले जैसी चौकसी नहीं दिख रही है। बाहर से आने वाले बहुत से लोग बिना क्वारंटाइन या आइसोलेशन की कवायद से गुजरे सीधे अपने-अपने घरों तक पहुँच गए हैं और काम पर भी जुट गए हैं। दूसरी तरफ़ चुनाव प्रचार और धार्मिक आयोजनों के फेर में बहुत से गाँवों तक कोरोना का प्रकोप पहुँच चुका है। शहरों के मुक़ाबले गाँवों में टेस्टिंग भी बहुत कम है और इलाज के साधन भी। इसलिए यह पता लगना भी आसान नहीं है कि किस गाँव में कब कौन कोरोना पॉजिटिव निकलता है, और पता चल भी जाए तो इलाज मिलना और मुश्किल।
संकट इस बात से और गहरा जाता है कि हमारी अर्थव्यवस्था अभी तक पिछले साल के लॉकडाउन के असर से पूरी तरह निकल नहीं पाई है। अब अगर दोबारा वैसे ही हालात बन गए तो फिर झटका गंभीर होगा। हालाँकि अभी तक तमाम अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों और ब्रोकरेजेज़ ने भारत की जीडीपी में बढ़त के अनुमान या तो बरकरार रखे हैं या उनमें सुधार किया है। लेकिन साथ ही उनमें से ज़्यादातर चेता चुके थे कि कोरोना की दूसरी लहर का असर इसमें शामिल नहीं है और अगर दोबारा लॉकडाउन की नौबत आई तो हालात बिगड़ सकते हैं।
एसएंडपी ने इस साल भारत की जीडीपी में ग्यारह परसेंट बढ़त का अनुमान दिया हुआ है। लेकिन उसका कहना है कि रोजाना तीन लाख से ज़्यादा केस आने से देश की स्वास्थ्य सुविधाओं पर भारी दबाव पड़ रहा है, ऐसा ही चला तो आर्थिक सुधार मुश्किल में पड़ सकते हैं। यूँ ही देश में औद्योगिक उत्पादन की हालत ठीक नहीं है और लंबे दौर के हिसाब से यहाँ जीडीपी के दस परसेंट तक का नुक़सान हो सकता है।
उधर दिग्गज ब्रोकरेज फ़र्म यूबीएस ने जो कहा है वो शेयर बाज़ार के लिए ख़तरे की घंटी हो सकता है। उसका कहना है कि अगर कोरोना का संकट जल्दी नहीं टला तो विदेशी निवेशक भारत के बाज़ार से बड़े पैमाने पर पैसा निकाल सकते हैं। पिछले कुछ दिनों में ही एफ़पीआई यानी विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने क़रीब दो अरब डॉलर का माल बेचा है। यूबीएस का कहना है कि ऐसे ही हालात रहे तो जल्दी ही तीन चार अरब डॉलर की बिकवाली और देखने को मिल सकती है। पिछले साल इन विदेशी निवेशकों ने भारतीय शेयर बाज़ार में 39 अरब डॉलर लगाए हैं जो एक रिकॉर्ड था। बाज़ार में पिछले साल आई धुआंधार तेज़ी की एक वजह यह पैसा भी था। अगर यह पैसा निकलता है तो फिर तेज़ी का टिके रहना भी मुश्किल है। यूबीएस के एक रिसर्च नोट में कहा गया है कि भारत में कोरोना के मामलों की बढ़ती गिनती से विदेशी निवेशक व्याकुल हो रहे हैं और घबराहट में पैसा निकाल सकते हैं।
लेकिन शेयर बाज़ार से ज़्यादा बड़ी फिक्र है कि हमारे शहरों के बाज़ार खुले रहेंगे या नहीं। अगर वहाँ ताले लग गए तो फिर काफी कुछ बिगड़ सकता है। और इस वक़्त ख़तरा यही है कि कोरोना को रोकने के दूसरे सारे रास्ते नाकाम होने पर सरकारें फिर एक बार लॉकडाउन का ही सहारा लेती नज़र आ रही हैं। अभी तक सभी जानकार इसके ख़िलाफ़ राय देते रहे हैं और सरकारें भी पूरी कोशिश में रही की लॉकडाउन न लगाना पड़े। अर्थशास्त्री भी मान रहे हैं कि कोरोना की दूसरी लहर ज़्यादा ख़तरनाक होने के बावजूद इकोनॉमी पर उसका असर शायद काफ़ी कम रह सकता है क्योंकि लॉकडाउन नहीं लगा है। मगर अब जो हालात दिख रहे हैं उसमें इकानमी कब तक और कितनी बची रहेगी कहना मुश्किल है। और तब शायद एक बहुत गंभीर झटका लगनेवाला है जो एक बार फिर रोज़ी और रोटी दोनों के लिए मुश्किल खड़ी करेगा।
(साभार – हिंदुस्तान)