कोविड से तबाह हो चुके भारत का इस संकट से निपट पाना मुश्किल

शास्त्री रामचंद्रन

ऐसे उपन्यासों और फ़िल्मों की कोई कमी नहीं है, जिनमें मर चुके और मर रहे लोगों से एक आतंकराज की छवियां उभरती हैं। हालांकि, भारत की जो हक़ीक़त है, वह किसी भी उपन्यास या फ़िल्मों में कल्पित या दिखायी गयी किसी भी चीज़ के मुक़ाबले इतनी ज़्यादा गंभीर है कि उसे शब्दों में बयान कर पाना मुमकिन नहीं। शास्त्री रामचंद्रन एक दिल दहला देने वाली रिपोर्ट में लिखते हैं कि यूरोप में आये प्लेग और स्पैनिश फ़्लू के सबसे प्रामाणिक और विनाशकारी विवरण भी किसी को उस ख़ौफ़नाक़ अनुभव से निपट पाने के लिए तैयार नहीं कर सकते, जिस तरह के अनुभव से कोविड की दूसरी लहर को लेकर भारत इस समय दो-चार है।

नई दिल्ली (आईडीएन)-भारत में कोविड-19 संक्रमण और मौतों की सुनामी रुकने का नाम नहीं ले रही है, क्योंकि केंद्र और राज्यों की जनता और सरकारें अस्पतालों में बेडों, दवाओं, वेंटिलेटरों और बहुत सारी ऐसी चीज़ों की क़िल्लत से जूझ रही हैं, जो इस संकट से पार पाने के लिए ज़रूरी हैं। भयानक मौतों और मरने वालों की दुर्दशा ने भी लोगों के भीतर डर का माहौल पैदा कर दिया है क्योंकि लोग नहीं जानते कि यह सब उनके साथ कब,  कहां और किस रूप में हो जाये; और उन्हें यह भी नहीं पता कि अगर वे या उनके नज़दीकी लोग और परिजन इस तरह के हालात के शिकार होते हैं तो वे इसका सामना वे कैसे कर पायेंगे।

बतौर पत्रकार मैं काम से जुड़े ऐसे अनेक मैसेज़ ग्रुप में हूं, जहां संदेश टिकर-टेप (एक काग़ज़ की पट्टी पर टेलीग्राफ़िक टेप मशीन में मैसेज़ रिकॉर्ड होते रहते हैं) की तरह आते रहते हैं, इस तरह के मैसेज़ मेरे न्यूज़ रूम, मंत्रालयों, सहकर्मियों से बने ग्रुपों आदि से एक घंटे में तक़रीबन 100 या इससे भी ज़्यादा मैसेज़ आते हैं। लगभग हर मैसेज़ उस कोविड से जुड़े हुए होते हैं, जिनमें भारत और दुनिया भर में हताहतों की संख्या लगातार बढ़ती दिखायी जाती है और भारत की मदद के लिए चिकित्सा राहत आपूर्ति कई देशों से आने की बात बतायी जा रही होती है। यह एक ऐसा मंज़र है, जिसमें 1947 में हुए बंटवारे के बाद शायद देश में सामूहिक मौतों का सबसे काला दौर दिखता है।

मैं एक ऐसे कॉम्प्लेक्स में रहता हूं, जिसमें 1350 फ़्लैट हैं और कई कम्युनिटी व्हाट्सएप ग्रुप से जुड़ा हुआ हूं और इनमें आने वाले सभी मैसेज़ कोविड से ही जुड़े हुए होते हैं। ये मैसेज कुछ इस तरह के होते हैं: कोई मर गया है, कोई मर रहा है, ऑक्सीज़न की सख्त ज़रूरत, एक ऑक्सीज़न कंसंट्रेटर की ज़रूरत, किसी अस्पताल में बेड चाहिए, जिसमें वेंटिलेटर हो या नहीं हो और जो भले ही आईसीयू में हो या आईसीयू के बाहर के बेड हों; या फिर एम्बुलेंस की ज़रूरत; एक दवा विशेष की ज़रूरत; या फिर ज़िंदा रहने के लिए खाने-पीने के सामान, पैसे, शारीरिक सहायता, दवाएं, एक ऑक्सीमीटर की ज़रूरत  या श्मशान ले जाने के लिए शव को कंधा देने को लेकर कुछ लोगों की ज़रूरत, आदि-आदि।

सभी व्हाट्सएप, टेलीग्राम, सिग्नल और ऐसे ओटीटी समूह, चाहे वे पेशेवर, सामाजिक, सांस्कृतिक, किसी क्लब, समुदाय, संगठन या चाहे वह कार्यसमूह से हों, जिसका मैं हिस्सा हूं, सबके सब कोविड के बेरहम घातक हमले से बचने की लड़ाई को दिन-रात लड़ते लोगों, परिवारों, समूहों, ग़ैर सरकारी संगठनों, सेवा कार्यक्रमों और संस्थानों के दिल तोड़कर रख देने वाली ख़बरों, तत्कालिक अपीलों और घबराये हुए अनुरोधों से भरे पड़े होते है। ट्विटर जैसे सोशल मीडिया भी एसओएस मैसेज़ (मुसीबत वाले मैसेज़) और मदद के प्रस्तावों से अटे पड़े होते हैं।

लॉकडाउन या कर्फ़्यू के तहत चल रही ज़िंदगी किसी क़ैद वाली ज़िंदगी की तरह है।ऐसे में तब राहत महसूस होती है, जब दरवाज़े पर कोई शख़्स किराने का सामान, डेयरी, फल, सब्ज़ियां या दूसरे ज़रूरी सामान पहुंचाने आया हो। शुक्र है कि यह शख़्स आपके उन पड़ोसियों में से नहीं है, जिसे आपने हफ़्तों नहीं, तो कम से कम कई दिनों से देखा तक नहीं है, जबकि जब ज़िंदगी में सबकुछ सामान्य था, तो आप उनसे मिलने के लिए रोज़ाना कुछ समय ज़रूर निकाल लेते थे। दरवाज़े पर किसी पड़ोसी या दोस्त को नहीं देख पाने का मतलब यही है कि कोई ऐसी ख़बर नहीं है, जिसे अच्छी ख़बर कही जाये।

किसी ज़रूरी चीज़ की ख़रीदारी को लेकर ख़तरनाक भाग दौर करती बाहरी दुनिया की छोटी-छोटी झलक देखी जा सकती है, या फिर अख़बारों, टीवी, उन अनगिनत वीडियो और तस्वीरों के ज़रिये हालात को भांपा जा सकता है, जिनसे सोशल मीडिया और मेरे फ़ोन अटे-पड़े होते हैं।इस महामारी में जो ज़िंदगी दिख रही है, वह यूरोप के प्लेग, पिछली सदी की स्पैनिश फ़्लू महामारी या 1947 में भारत के विभाजन में हुई मौतों, जिन्हें  मैंने फिल्मों में देखा है या जिनके बारे में जितना कुछ पढ़ा है, उससे कहीं ज़्यादा बदतर है।

2013 में निरस्त्रीकरण और अप्रसार को लेकर प्रधान मंत्री के विशेष दूत की भूमिका निभाने वाले पूर्व राजनयिक राकेश सूद पूछते हैं, “हम इतनी भयावह आपदा में कैसे सोये रह गये, विभाजन के बाद से भारत इस समय सबसे ख़राब हालात का सामना कर रहा है।” 1947 में पाकिस्तान बनने को लेकर हुए भारत के बंटवारे के बाद होने वाले ख़ून-ख़राबे में बड़ी संख्या में लोग मारे गये थे।

विभाजन से हुए दंगों के साथ इस महामारी की तुलना पर बहुतों को हैरत हो सकती है, क्योंकि महामारी प्राकृतिक आपदा है और दंगा मनुष्य की तरफ़ से पैदा हुआ संघर्ष था। हालांकि,  हो रही सामूहिक मौत के ये हालत सरकार और सरकारी संस्थानों की ऐसी नाकामी हैं, जिसने तबाही को और बढ़ा दिया है और व्यवस्था के ध्वस्त होने की प्रक्रिया को तेज़ कर दिया है, जिससे कि मौत की तादाद बहुत ज़्यादा बढ़ गयी है। जिस क़दर भारत कोविड की दूसरी लहर से तबाह हो रहा है, ऐसे में यह कह पाना मुश्किल है कि मौत का बढ़ता आंकड़ा संक्रमण या लापरवाही का नतीजा है; या महत्वपूर्ण चिकित्सा सुविधाओं, ऑक्सीज़न जैसी जीवन रक्षक सहायता या फिर कुछ दवाओं से सुसज्जित अस्पताल के एक अदद बेड को लेकर नहीं ध्यान दिये जाने का परिणाम है।

दिल्ली में हर तरफ़ हर घंटे नहीं ज़्यादा तो कम से कम 10-15 लोग तो मर ही रहे हैं। पूरा शहर ही मरे हुए और मर रहे लोगों की एक ऐसी दर्दनाक जगह बन गया है,  जहां दूर-दूर तक ऐसे मुर्दाघर और श्मशान नज़र आते हैं, जहां बेशुमार चितायें लगातार जलती रहती हैं और अपनी सीमाओं को तोड़ते हुए फुटपाथ और यहां तक कि सड़कें भी श्मशानों में तब्दील हो गये हैं। टीवी, सोशल मीडिया और अख़बारों में ऐसे ही ख़ौफ़नाक मंज़र भारत के बड़े-छोटे दूसरे शहरों से भी आ रहे हैं, जिन्हें घर में बैठे लोग देख रहे हैं। शव दिन-रात लगातार जलाये जा रहे हैं; चिता से उठते धुयें के घने बादल शहरों-क़स्बों पर किसी चादर की तरह फैल रहे हैं; जिस स्टील पाइप के ज़रिये धुआं निकलता है, वह अक्सर तेज़ गर्मी में पिघल जा रही है।

दिल्ली के साथ-साथ दूसरे शहरों में भी हर श्मशान घाट के बाहर लाशों की लम्बी-लम्बी क़तारें लगी हुई हैं। हर शहर में श्मशान घाट की तरफ़ से  दिये जा रहे मृतकों के आंकड़े आधिकारिक संख्या से कहीं ज़्यादा हैं, और यह काफ़ी ख़ौफ़नाक़ हैं। 5 मई को भारत में दुनिया भर में कोविड से होने वाली मौतों की आधी मौतें हुईं थीं, जो 24 घंटों में 4000 के क़रीब थीं और संक्रमित लोगों की संख्या 382, 000 थी। चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि वास्तविक मौतों और संक्रमण की जो आधिकारिक संख्या है, उससे ये संख्यायें पांच से दस गुना ज़्यादा हो सकती हैं।ब्रिटेन के फ़ाइनेंशियल टाइम्स में प्रकाशित अनुमान में कहा गया है कि मौतों और संक्रमणों के जो आधिकारिक आंकड़े दिये गये हैं, वास्तविक आंकड़े उससे आठ गुना ज़्यादा हैं। मगर, इन आंकड़ों से परे बात की जाये, तो आंकड़े इसलिए मायने नहीं रखते, क्योंकि जिन लोगों, परिवारों, दोस्तों ने जो नुकसान उठाया है, उनकी महसूस की गयी सचाई को घंटे के हिसाब से बदल रहे आंकड़ों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता।

अस्पताल का मंज़र उतना ही बुरा है, जितना कि किसी श्मशान घाट का मंज़र। अस्पतालों में लोगों की भीड़ उमड़ रही है और बेड, ऑक्सीज़न और आपातकालीन राहत के लिए बेताब हो रहे मरीज़ों के साथ इंतज़ार करते सैकड़ों नहीं, तो बड़ी संख्या में एम्बुलेंस और वाहन अस्पताल के बाहर खड़े हैं; जिन्हें संभाल पाना इस संकट के दौरान ज़्यादातर अस्पतालों और उनके कर्मचारियों के बूते के बाहर की बात है। पिछले साल शुरू हुई कोविड की पहली लहर में मरने वालों में सबसे ज़्यादा संख्या डॉक्टरों,  नर्सों और स्वास्थ्यकर्मियों की थी।

इस स्थिति के लिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार को पूरी तरह से दोषी माना जा रहा है, जिसकी तरफ़ से बड़े पैमाने पर तैयारी नहीं करने का यह नतीजा है;बल्कि यह मोदी के अहंकार का भी नतीजा है, जिन्होंने सार्वजनिक स्वास्थ्य की प्राथिकता को लेकर लापरवाही दिखायी और उन लोगों की बातों पर ध्यान नहीं दिया, जिन्होंने दूसरी लहर की चेतावनी दी थी। भारत में दूसरी लहर शुरू होने से कुछ ही दिन पहले मोदी और उनके स्वास्थ्य मंत्री ने कोविड-19 के ख़िलाफ़ युद्ध में अपनी जीत का ऐलान कर दिया था। अपने बड़बोलेपन में मोदी विश्व आर्थिक मंच से यह भी कह गये कि कोविड के ख़िलाफ़ लड़ाई में भारत ने जो कामयाबी हासलि की है, वह दुनिया के लिए एक मिसाल है। भारत को “दवा बनाने वाले दुनिया के केन्द्र” बताने के ऐलान के बीच भारत में दुनिया के सबसे बड़े वैक्सीन निर्माता द्वारा बनायी गयी कोविड वैक्सीन को बड़ी धूमधाम के साथ कई देशों में निर्यात भी किया गया था।

इसी कपोल कल्पना को ध्यान में रखते हुए भारत में मॉल, मूवी हाउस, क्लब, बार,  होटल, रेस्तरां, सार्वजनिक परिवहन, कार्यस्थलों के साथ-साथ व्यापारिक गतिविधां आम दिनों की तरह चलने लगीं और कोविड से जुड़ी तमाम सावधानियों को महज़ औपचारिकता क़रार देते हुए उनसे किनारा कर लिया गया। प्रधानमंत्री और उनकी सरकार को इस महामारी को पीछे छोड़ देने का इतना ज़बरदस्त यक़ीन था कि मोदी, उनके मंत्री और पार्टी के शीर्ष पदाधिकारी बड़े उत्साह के साथ चुनाव प्रचार में भी उतर गये। सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी सावधानियों और प्राथमिकताओं से न सिर्फ़ आंखें मुंद ली गयीं, बल्कि उन्हें छोड़ दिया गया। ऑक्सीज़न, बेड और अस्पताल की क्षमता को लेकर शुरू किये गये तमाम प्रयास, जो कि कोविड के प्रकोप से निपटने के लिए बहुत ज़रूरी हैं,  सबके सब रोक दिये गये। वेंटिलेटर को बनाते रहने, ऑक्सीजन और कंसंट्रेटर के लिए क्षमता निर्माण की तमाम कोशिशें छोड़ दी गयीं। अस्पतालों और बेड की क्षमता को बढ़ाने और उनका विस्तार करने के बजाय, कोविड की पहली लहर के समय जो कुछ भी अस्थायी व्यवस्था की गयी थी, उन्हें ख़त्म कर दिया गया।

सरकार ने मार्च-अप्रैल में गंगा के तट पर एक धार्मिक त्योहार-कुंभ मेले को भी अनुमति दे दी थी,  और इसमें बिना किसी कोविड प्रोटोकॉल के तक़रीबन पचास से सत्तर लाख श्रद्धालुओं ने भाग लिया था। अब इस बात की आशंका जतायी जा रही है कि संक्रमण को ज़बरदस्त रूप से फैलाने वाले कुंभ मेले से होने वाले संक्रमण के फैलते-फैलते महीनों लग सकते हैं। इस परिदृश्य के बीच सरकार ने उस तीसरी लहर की भी चेतावनी दे दी है, जिसके लिए कोई स्पष्ट समय सीमा नहीं बतायी गयी है। इसके अलावे, इस समय दिल्ली (और अन्य शहरों) में अस्थायी अस्पताल तेज़ी से बन रहे हैं,  जबकि इनमें डॉक्टरों, स्वास्थ्य कर्मचारियों और चिकित्सा उपकरणों और आपूर्ति की बेहद कमी है।यहां तक कि दुनिया भर से मिलने वाली राहत सामग्री भी बिना किसी कारण के हवाईअड्डों पर पड़ी हुई है।

ब्राउन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ में प्रोफ़ेसर और डीन और वैश्विक स्वास्थ्य के एक प्रमुख जानकार, आशीष झा ने द वायर को दिये अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि मोदी सरकार का अपने ही वैज्ञानिकों की सलाह मानने से इंकार कर देना भारत के मौजूदा कोविड-19 संकट के मुख्य कारणों में से एक है।

जिस तरह अस्पताल अब जीवित बचे रहने की जीवन रेखा नहीं रह गये हैं,  उसी तरह ख़ासकर पत्रकारों सहित फ़्रंटलाइन कार्यकर्ताओं के लिए बीमा का कोई व्यावहारिक इस्तेमाल नहीं रह गया है। यहां तक कि जो लोग वीमा कवर के तहत आते हैं,  अगर वे भी दिल्ली (या किसी अन्य कोविड हॉटस्पॉट) में संक्रमण का शिकार होते हैं, तो वे भर्ती हो सके, इसके लिए कोई जगह ही नहीं बची है और बस पड़े रहने और मौत का इंतज़ार करने के सिवा कोई चार नहीं रह गया है;क्योंकि चिकित्सा आपूर्ति, स्वास्थ्य कर्मचारी, अस्पताल के बेड और सुविधायें,  ऑक्सीज़न और इलाज के लिए वे सभी ज़रूरी दवायें तक उपलब्ध नहीं हैं, जिनकी ज़रूरत इन्हें है। दिल्ली में कम से कम 52 और पूरे देश में 100 से ज़्यादा पत्रकार मारे गये हैं।

इस दूसरी लहर ने केंद्र सरकार को टीकाकरण अभियान में तेज़ी लाने के लिए मजबूर तो कर दिया है, लेकिन जिस दिन, यानी 1 मई को इसे शुरू किया जाना था, उस दिन सरकारी दावे की हक़ीक़त से अलग ज़्यादातर राज्यों के पास टीकाकरण की प्रक्रिया को शुरू करने के लिए टीके का स्टॉक ही नहीं था। भले ही भारत दुनिया का सबसे बड़ा टीका उत्पादक देश है,  मगर स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक़, महज़ तक़रीबन 14 करोड़ 10 लाख लोगों को कम से कम एक टीके की खुराक मिल पायी है,  जो कि 1.35 अरब की आबादी का तक़रीबन दस फ़सीदी है। देश के महज़ चार करोड़ लोगों या आबादी के 2.9 प्रतिशत से ज़्यादा लोगों को ही पूरी तरह से टीका लग पाया है। टीके अगर इसी दर से लगते रहे, तो पूरी आबादी को टीके लगाने में दो साल का वक़्त लग सकता है, खासकर जब टीके की आपूर्ति भी अगस्त के बाद, यानी दिसंबर के आस-पास होने की उम्मीद है। उस समय तक मुमकिन है कि कोविड दूर हो चुका हो या फिर कम से कम इसकी दूसरी लहर तबाही और मौत का चरण पूरा कर चुका हो।

सामूहिक टीकाकरण की कथित योजना बेतरतीब दिखती है क्योंकि महामारी का प्रबंधन,  चिकित्सा आपूर्ति,  बुनियादी ढांचा, इलाज का स्तर, सबके सब मांग से काफी कम हैं। बड़े पैमाने पर कुप्रबंधन के अलावा केंद्र और राज्य सरकारों पर मौतों के वास्तविक आंकड़े साझा नहीं करने, पूछने पर हीले हवाली और अड़ंगा डालने, वैज्ञानिकों और चिकित्सा विशेषज्ञों के सुझावों का विरोध करने और आम तौर पर इस तरह के संकट के दौरान ज़रूरत से कम जवाबदेह होने का भी आरोप लगाया जा रहा है।

यह बात सरकार की तरफ़ से कोरोनोवायरस के वेरिएंट का पता लगाने के लिए स्थापित वैज्ञानिक सलाहकारों के एक मंच से 16 मई को वरिष्ठ वायरोलॉजिस्ट, शाहिद जमील के इस्तीफ़े से भी साफ़ हो जाती है। उनका यह इस्तीफ़ा अधिकारियों की तरफ़ से महामारी से निपटने को लेकर उनके द्वारा उठाये गये सवाल के कुछ दिनों बाद आया है। डॉ जमील ने हाल ही में द न्यूयॉर्क टाइम्स में एक लेख लिखा था,  जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत में वैज्ञानिकों को “साक्ष्य-आधारित नीति निर्माण को लेकर अड़ियल प्रतिक्रिया” का सामना करना पड़ रहा है। उन्होंने भारत के कोविड-19 प्रबंधन से जुड़े मुद्दों, ख़ासकर कम परीक्षण, टीकाकरण की धीमी रफ़्तार, टीके की कमी और एक बड़े स्वास्थ्य कार्यबल की ज़ररत की ओर ध्यान आकर्षित किया था। उन्होंने लिखा था, “इन सभी उपायों को भारत में मेरे साथी वैज्ञानिकों के बीच व्यापक समर्थन हासिल है। लेकिन, वे साक्ष्य-आधारित नीति निर्माण के कड़े प्रतिरोध का सामना कर रहे हैं।”

ऐसे उपन्यासों और फ़िल्मों की कोई कमी नहीं है, जिनमें मर चुके और मर रहे लोगों से एक आतंकराज की छवियां उभरती हैं। हालांकि, भारत की जो हक़ीक़त है, वह किसी भी उपन्यास या फ़िल्मों में कल्पित या दिखायी गयी किसी भी चीज़ के मुक़ाबले इतनी ज़्यादा गंभीर है कि उसे शब्दों में बयान कर पाना मुमकिन नहीं। यूरोप में आये प्लेग और स्पैनिश फ़्लू के सबसे प्रामाणिक और विनाशकारी विवरण भी किसी को उस ख़ौफ़नाक़ अनुभव से निपट पाने के लिए तैयार नहीं कर सकते, जिस तरह के अनुभव से कोविड की दूसरी लहर को लेकर भारत इस समय दो-चार है। (आईडीएन-इनडेप्थन्यूज़–17 मई, 2021)

* लेखक नई दिल्ली स्थित एक वरिष्ठ पत्रकार, डब्ल्यूआईओएन टीवी मे संपादकीय सलाहकार  और आईडीएन में वरिष्ठ संपादकीय सलाहकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं। सौज- न्यूजक्लिक

यह लेख मूल रूप से आईडीएन में प्रकाशित हुआ था, आईडीएन ग़ैर-लाभकारी इंटरनेशनल प्रेस सिंडिकेट की फ़्लैगशिप एजेंसी है। लेखक की अनुमति से इस लेख को यहां फिर से प्रस्तुत किया गया है। अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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