कहानीः फोटोग्राफर्स डिलाइट – आनन्दबहादुर

क्लिक क्लिक क्लिक!

फोटोग्राफर्स डिलाइट, फोटोग्राफर्स डिलाइट…अक्षयवट सोचता जा रहा है। सोचता जा रहा है और धीरे-धीरे बुदबुदाता भी– वह बहुत तनाव में है। ठीक ही तो कहती है नीतू, ठीक ही लो कहती है, ठीक ही फोटोग्राफर्स डिलाइट, फोटोग्राफर्स डिलाइट …

ही-ही-ही…..हू-हू-हू….. हा-हा-हा…..

-नीतू ठीक ही तो कहती है, फोटोग्राफर्स डिलाइट । डिलाइट, खासकर सुन्दर, विदेशी कैमरे वालों का जिनके लेंस हमेशा साधारण, चेचक के दानों से भरे चेहरों का मजाक उड़ाते रहते हैं। ऐसे लोगों का डिलाइट, जिनके कैमरे किसी चेहरे के एक-एक धब्बे को सेल्युलाइड पर जीवित उतार देते हैं। उसका चेहरा है ही ऐसा, बचपन की दुर्घटना के बाद और नीतू की आँखों में मानो किसी विदेशी कैमरे का लेंस फिट हो, क्लिक, क्लिक, क्लिक।

इसी नीतू के लिए क्या नहीं कर सकता है अक्षयवट।

इसी नीतू के लिए उसने कितने लेक्चर्स के नोट रात रातभर जाग कर तैयार किये हैं। इसी नीतू की प्रैक्टिकल कापी में अपनी कॉपी से भी सुन्दर डायग्राम अक्षयवट ने ही तो बनाए हैं! इसी नीतू के लिए स्पेसिमेन्स लाने जंगल- पहाड़ छान मारा है। छोटे से छोटे काम में दौड़ता रहा है, क्यों?

क्योंकि… क्योंकि यही नीतू हल्के से मुस्कुराती है तो गाल में बूंदे पड़ जाते हैं। क्यों अक्षयवट? कोई और भी कारण है, या बस, क्लिक? है, 

है, कारण है। अक्षयवट बदसूरत है, मगर हमेशा ऐसा नहीं था। अम्मा बताती है, बहुत सुंदर था वह। देखो, तो मन करे कि बस, क्लिक! 

इसी नीतू ने जन्म दिन की पार्टी में अक्षयवट को नहीं बुलाया है। साॅरी अक्षय, मुझे तो भुवन ने बताया कि तुम शहर में हो ही नहीं. . . क्लास भी नहीं आ रहे थे… फिर भी भुवन से बोली थी, तुम्हें खबर करने…

प्रैक्टिकल कॉपी तैयार करनी हो तो खुद चार बार घर दौड़ लगाने वाली नीतू भुवन को उसे इन्वाइट करने बोलती है। अक्षयवट भी एक लेंस इस्तेमाल करता है। यही नीतू जब मार्केट में मिलती है, तो देख कर भी अनदेखा कर जती है। और अचानक पेरेंट्स के साथ बातचीत में ऐसी मशगूल होती है कि ठीक सामने से निकलते अक्षयवट को नोटिस ही नहीं कर पाती। यही नीतू जब उससे नोट मांग रही होती है, तो यह जान कर दंग रह जाती है कि अक्षयवट ने उसे मार्केट में देखा था। देखा, तो टोका क्यों नहीं अक्षय? सो सिली ऑव यू! क्लिक!

इसी नीतू के ऑनर्स में अक्षयवट से अधिक नम्बर आए हैं। इसके पीेछे खुद नीतू की कितनी मेहनत रही, हर कोई जानता है, मगर देखो तो सही, हरीश बधाई दे रहा है और यह अक्षय के मुंह पर ही डींग हांक रही है! एक बार भी, कम से कम अकेले में भी थैंक्स नहीं देती, क्लिक!

शर्मा सर के यहां सभी ट्यूशन पढ़ते थे, वह, नीतू, हरीश, भुवन, सीमा, रेखा, सतीश, सोम, मदन। अपने सभी छात्रों के पास कर जाने की खुशी में सर ने एक छोटी सी चाय पार्टी दी है। पार्टी के दौरान वो सबों की बड़ाई करते हैं, बधाई देते हैं। सिर्फ इतना और कहते हैं कि अक्षयवट से उन्हें और उम्मीद थी। क्योंकि सबसे मेधावी वही है। जाने क्यों, कुछ समय के लिए सभी बुझ-बुझ से जाते हैं। जो नीतू इतनी जंच रही थी, जाने क्यों उसका रंग उतर गया है। फिर सीमा कटाक्ष करती है कि सर, अगर अक्षय केवल अपनी पढ़ाई करता तब तो, इसे तो दूसरों की पढ़ाई में ज्यादा इंटरेस्ट है! योड़ी देर तक तो लगा जैसे महफिल का जायका ही बिगड़ जाएगा, मगर फिर सर ही स्थिति को संभाल लेते हैं। सब पूर्ववत मजाक करने लगते हैं । सभी हंस रहे हैं, खिलखिला हैं, सर खुद ठहाके लगाते जा रहे हैं, साथ में चाय की वो चुस्कियां, और नीतू वो खिल रही है, कि बस, क्लिक। 

फिर चलता है फोटोग्राफी का दौर। क्लिक, क्लिक, क्लिक। और उसके बाद, हरीश चाहता है कि नीतू का एक फोटो और ले, इस पर नीतू हंसकर कहती है– क्या कहती है?

‘सच कहूं, अगर यहां कोई फोटोग्राफर्स डिलाइट है, तो वह हैं सिर्फ मिस्टर अक्षयवट!’

और लोगों इसे हल्के-फुल्फे लिया। सर हंस पड़े। क्लेवर फ्रेज, सीमा बोली, भुवन और हरीश ने, लगता है, जरा कसकर ही ठहाका लगाया है। कट कर रह गया है अक्षयवट। कसमसा उठा है। क्लिक, जाने किस नजर से यह इस नीतू को आजतक देखता रहा, क्लिक। इतनी सुन्दर तो नहीं है, कम से कम इतनी सुन्दर तो नहीं है…

…क्लेवर फ्रेज, मिस नीता शर्मा, क्लेवर फ्रेज, ब्यूटीफुल। ठीक कहती हो नीता, ठीक। सच को सच कहना तुम्हारा फर्ज़ था। नीता, नीता विश्वास करोगी, लोग मुझे देखने आते थे। सातवें साल चेचक हुआ था। आंख तो जाते जाते बची थी, मैं भी मुश्किल से बचा था। जाने क्यों बचा था तुम्हारा फोटोग्राफर्स डिलाइट बनने के लिए।

अक्षयवट बुदबुदाता हुआ चला जा रहा है। कोई देखे अक्षयवट को अभी, चेचक के दानों से भरा चेहरा, पसीने से लथपथ, तेजी से चलता हुआ, अपने आप से बातें करता। क्या करेगा कोई ऐसे में? क्लिक, क्लिक, फोटोग्राफर्स डिलाइट।

फोटोग्राफर्स डिलाइट, फोटोग्राफर्स डिलाइट . …. अक्षयवट बुदबुदाता है और सिर झटक कर सामने ताकने लगता है। सामने एक बूढ़ा रिक्शेवाला, रिक्शे को खींचता चला आ रहा है। अक्षयवट अचानक रुक गया है। उसकी दृष्टि रिक्शे पर अटक कर रह गयी है, क्लिक।

रिक्शावाला एकदम बूढ़ा है । बूढ़ा मरियल, बीमार- सा। उजले, बेतरतीब से बिखरे केश, ठुड्डी पर मटमैले अधकचरा खुट्टे, गहरी धंसी आंखें और इनके अलावा झुर्रियां ही झुर्रियां ही इुर्रियां। चेहरे पर, गर्दन पर, बाहों पर, हथेलियों पर, टखनों पर, सिकुड़े हुए पेट और झलकती पीठ पर! इतना मरियल कि मन भर आए। 

… लेकिन देखो , नीतू देखो! फोटोग्राफर्स डिलाइट तो क्या चीज है? हंसो इसपर, लेकिन सोचो किसी झोंपड़े में रहने वाली कोई बुढ़िया कौन-सा कैमरा इस्तेमाल करती है, कैसा लेंस, क्लिक…

सामने एक लकड़ी-डीपू है। इत्तिफाकन, वहां अभी सिर्फ एक मजदूर अकेले लकड़ी के लट्ठे चीर रहा है। अक्षय ठिठक कर रुक गया है और उसे कौतुहल से देख रहा है । अच्छा-खासा जवान आदमी, सिर्फ एक काली-सी लुंगी लपेटे, नंगे बदन लकड़ी फाड़ रहा है। उसकी काली, पसीने से सनी कसरती देह, आंखों को एक धक्का, शाॅक-सा मार रही है। जिस्म की अंधेरी रात में उसकी आंखें और उसके दांत जैसे चमकते सितारे हैं। अभी उसका चेहरा इतना डरावना लग रहा है, लेकिन तभी अचानक, किसी याद की छुअन पर, एक हल्की-सी मुस्कुराहट मजदूर के चेहरे पर खेल गई है। मुस्कुराहट, क्लिक।

वह मुस्कुरा कर चल पड़ा है और चलते-चलते उस बुढ़िया के बारे में सोच रहा है जो कालेज के भी पीछे वाली गली में रहती है। स्टुडेंट्स को चाय-पान, कचौरी-फुलौड़ी बेचती है। बुढ़िया का चेहरा लकीरों की खान है। जैसे लगता है हवा ने रेगिस्तान की रेत पर नक्काशी की हो। नाक की जगह एक छोटा-सा, पिचका, पकौड़ा रखा हुआ है, मानो खुदा ने जब 

उसे नाक नहीं दी तो पकौड़ा तलते वक्त उसने खुद एक छोटा-सा पिचका पकौड़ा उठाकर नाक की जगह धर लिया हो । बुढ़िया सवेरे-सवेरे, धीरे-धीरे, स्लो-मोशन में झाड़ू लगाती, झोल झाड़ती, बर्तन मलती और चूल्हे में गोयठे सजाती है, फिर दिन भर पकौड़े तलती रहती है। एक हड्डी का उसका बदन, और हर वक्त किसी न किसी एंगिल से झलकते उसके सूखे चूचके– सेक्स सिंबल को ऐसी-तैसी! 

नीतू… माय लेडी फोटोग्राफर.. स्माइल प्लीज, क्लिक! आगे बढ़ गया है अक्षयवट . . . 

एल छोटी सी प्यारी सी बच्ची, आइसक्रीम वाले से आइसक्रीम खरीद रही है, क्लिक!

और आगे मंदिर का रास्ता शुरू होता है। उस पर बीसियों भिखारी बैठे हुए हैं… अंधे, लंगड़े, लूले, कोढ़ी, मवादी, क्लिक।

मुहल्ले के मुंहाने पर गंदले पानी का एक नाला है जिसके काले बहाव में एक मरा हुआ कुत्ता,आधा सड़ा, पड़ा मंहक रहा है। कुत्ते के ऊपर आठ दस कौवे बैठे चोंच मार रहे हैं। अक्षयवट नाक बंद कर लेता है, क्लिक। 

थोड़ी और दूर.. . . सामने से एक लड़की आ रही है, तरोताजा। ठंडी-ठंडी हवा की सिहरन सी हसीन…क्लिक।

सामने अक्षयवट का घर है… वही छोटा-था, मुंह विचकाता, मध्यवर्गी, कस्बाई घर। पांच साल से अधिक हो गये पोचाड़े के। प्लास्टर एक दो जगहों पर उखड़ा हुआ है, जिसके अन्दर भुरभुरा लाल रंग झांक रहा है। सामने फाटक पर सीमेंट का नया चस्पा लगा हुआ है, और किवाड़ें काली पड़ गई हैं। दब्बू-सा चेचक के चेहरे वाला, छुटल्ला-सा मकान, क्लिक। 

अक्षयवट रुक कर एक पल दम लेता है, फिर कुंडी से लटकी सिकड़ी को जोर से खटखटाता है। मुन्नी पूछती है, “कौन?” और दरवाजा खोल देती है। 

चौके में सभी लोग हैं। मां, बाउजी, मुन्नी। अक्षयवट भी वहीं पहुंचता है। बाउजी खाना खा रहे हैं, थाल पर झुके हुए। अम्मा; चूल्हे पर झुकी हुई, पसीने से सराबोर, रोटी सेंक रही है। 

… जैसे पाथेर पांचाली का कोई दृश्य हो–खामोश, आत्मा से बातचीत करता हुआ। अक्षयवट देखता जा रहा है…मम्मी का रंग इधर बहुत दब हो गया है और वह काफी कमजोर लगने लगी है। मुन्नी काफी बड़ी हो गयी है, इसकी शादी जल्द हो जानी चाहिए। शायद इसी बात की चिंता अम्मा-बाउजी को खाए जा रही है। बाउजी? रिटायर होने में कितने बरस हैं? दो-तीन, बस, मगर लगता है पचहत्तर पार कर चुके। थाल पर किसी परास्त सैनिक की तरह झुके निकाला तोड़ रहे हैं। मेरुदंड झुक गोल हो गया है। मटमैली-सी धोती-कमीज पहने बउजी निहायत मरियल और निरीह लग रहे हैं। अक्षयवट जड़ होकर उन्हें देखता जा रहा है।

उसे लग रहा है जैसे इस व्यक्ति को जीवन में पहली बार देख रहा हो। फोटोग्राफर्स डिलाइट वाली लकीरें बाउजी के चेहरे पर भी उग आई हैं। अम्मा की गर्दन में भी गाढ़ी, तराशी हुई खराशें पड़ गयीं हैं।

बाउजी को हिचकी आ गई है। वे कांपते हाथों से पानी पी रहे हैं, और धीमे धीमे खांस रहे हैं। अक्षयवट की आंख के आगे अचानक नीतू का चेहरा उभर आया है । मगर इस बार बिना किसी आवेश के अक्षयवट उस चेहरे को एकटक निहार रहा है… 

… फोटोग्राफर्स डिलाइट, फोटोग्राफर्स डिलाइट क्या बकती है रंगीन तितली? सारी दुनिया चेहरों से भरी पड़ी है और हर चेहरा एक समूची दुनिया है। हरेक आदमी एक लेंस है, एक शटर है, एक कैमरा है…

क्लिक, क्लिक, क्लिक, क्लिक, क्लिक!

आनंद बहादुर वरिष्ठ , कवि कथाकार हैं । पिछले चार दशक से उनकी कहानियां,कविताएं, गज़ल, अनुवाद और लेख देश की प्रमुख हिन्दी पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होते रहे हैं । हाल ही में उनका कहानी संग्रह ‘ढेला और अन्य कहानियां’प्रकाशित हुआ है। साहित्य के साथ उनकी रुचि संगीत में भी है। वर्तमान में केटीयू पत्रकारिता विश्वविद्यालय में कुलसचिव हैं। संपर्क- 8103372201

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