शरद कोकास
आज 10 मार्च, सुरेश स्वप्निल का जन्मदिन है । सुरेश स्वप्निल से मेरी पहली मुलाकात मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा, जानकी रमण महाविद्यालय बलदेव बाग, जबलपुर में आयोजित दस दिवसीय कविता रचना शिविर के प्रथम दिन अर्थात 21 मई 1984 को हुई थी ।
उन दिनों छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश अलग अलग नहीं हुआ था और दुर्ग व रायपुर से कवर्धा होते हुए जबलपुर जाने के लिए प्रतिदिन शाम को मध्यप्रदेश राज्य परिवहन की बस चला करती थी । बस में हिचकोले खाते हुए अलसुबह ही मैं जबलपुर पहुँचा था । सुबह का सत्र प्रारंभ हो चुका था । डॉक्टर कमला प्रसाद का ‘साहित्य और सौन्दर्यबोध’ विषय पर व्याख्यान चल रहा था ।
सुरेश मेरी बगल में बैठा था । हम लोग अपनी अपनी कॉपी में नोट्स ले रहे थे। सुरेश ने मेरी कॉपी की ओर देखा और कहा “अरे हम दोनों के अक्षर तो एक जैसे हैं ।“ मैंने सुरेश की कॉपी की ओर देखा और हलकी सी मुस्कान उसकी ओर उछाली । उसी क्षण मैंने तय कर लिया ऐसे व्यक्ति से ही दोस्ती हो सकती है जो कहता है हम दोनों के अक्षर एक जैसे हैं । अगर वह कहता कि तुम्हारे अक्षर तो मेरे जैसे हैं, तो यह दोस्ती कदापि संभव नहीं होती ।
अपने साहित्यिक बचपन के उन मासूम दिनों में कविता रचना शिविर के वे दस दिन कविता के संस्कारों से संस्कारित होने के दिन थे । एक बड़े हॉल में हम लोगों ने अपने-अपने बिस्तर पास पास लगा लिए थे । सुबह नाश्ते के बाद सत्र प्रारम्भ हो जाता फिर दिनभर गोष्ठियाँ चलती। फिर दोपहर में भोजन और शाम को कविता पाठ । अनुशासन ऐसा कि शिविर से बाहर जाने की अनुमति तक नहीं थी । हिन्दी साहित्य के तमाम दिग्गज वहाँ उपस्थित थे, दूसरा सप्तक के कवि हरिनारायण व्यास, डॉ मलय, ज्ञानरंजन, भगवत रावत, मायाराम सुरजन, चंद्रकांत देवताले,राजेश जोशी, पूर्णचंद्र रथ, राजेंद्र शर्मा, धनंजय वर्मा, अक्षय कुमार जैन, डॉ रमाकांत श्रीवास्तव इत्यादि। परसाई जी अस्वस्थ्य थे सो अंतिम दिन समापन सत्र में उनका आना तय था ।
दिनभर हम लोगों की चर्चाएं चलती और देर रात तक हम इन वरिष्ठ लोगों को घेरे रहते । सुरेश सवाल बहुत करता था। शाम को जो कवि सम्मेलन होता था उसमें शिविरार्थियों का कविता पाठ होता था। उसकी शरारतें यहाँ भी चलती रहती । एक शिविरार्थी ने जैसे ही श्रीकृष्ण ‘सरल’ की कविता का पाठ अपनी कविता कहकर कहना पढ़ना शुरू किया सुरेश ने हल्ला मचा दिया कि यह तो ‘सरल’ जी की कविता है ।उस शिविर में सुरेश के अलावा और भी अनेक हमउम्र मेरे मित्र बने जिनमे कुमार अम्बुज,तरुण गुहा नियोगी,प्रेम गुप्ता, राजनारायण बोहरे, अपूर्व शिंदे,अनघा शिंदे, शैलेन्द्र कुमार शैली,जयंत राजिमवाले, भारती जैन आदि शामिल हैं । कुमार अम्बुज भाई से तो फिर कार्यक्रमों के अलावा सुरेश के साथ और भी कई बार मुलाकातें हुईं ।
कविता शिविर जैसे ही समाप्त हुआ मैं वापस दुर्ग लौट आया। लेकिन तुरंत ही मेरा भोपाल जाने का प्रोग्राम बन गया । बाबूजी ने पहले से आदेश दे रखा था शादी की उम्र हो रही है, वहां पर बुधवारा में एक लड़की है उसे देख कर आओ । मुझे शादी की कोई जल्दी नहीं थी लेकिन सुरेश से मिलने का उत्साह था सो मैं अपनी छोटी बहन सीमा को लेकर दो जून को भोपाल पहुँच गया । सुरेश का घर बुधवारा में ही था । मैंने सुरेश के घर में ही डेरा डाला । सुरेश की पत्नी कविता और तीन साल की बेटी सौम्या से भी मेरा परिचय हुआ । मैंने सुरेश, कविता और सौम्या की ओर देखकर कहा “भाई उम्र तो तुम्हारी और भाभी की बहुत कम कम लग रही है और तीन साल की बिटिया भी है , तुम्हारा बाल विवाह हुआ था क्या ? सुरेश हँसने लगा “ऐसा ही कुछ समझ लो।“ फिर उसने मुझे पूरा किस्सा सुनाया अपने प्रेम विवाह का । भोपाल की मेरी यह यात्रा केवल व्यक्तिगत नहीं थी बल्कि साहित्यिक सांस्कृतिक यात्रा भी थी। सुरेश के साथ मैंने व सीमा ने भारत भवन के मुक्ताकाशी मंच पर धर्मवीर भारती का नाटक ‘अँधा युग’ देखा और एक दिन नामवर जी का व्याख्यान भी सुना ।
उसके बाद सुरेश के साथ मेरी जबलपुर, होशंगाबाद यात्रा संपन्न हुई । 9 जून को जबलपुर में इप्टा का द्वितीय राज्य सम्मलेन था उसमे भी हम लोग गए । उदघाटन वाले दिन ही रायगढ़ इप्टा के कलाकारों तापस, शेफाली, अजय, आरती और अन्य कलाकारों द्वारा सुरेश का लिखा नाटक ‘चार टांगें’ खेला गया । आगे चलकर यह नाटक बहुत चर्चित हुआ और देश भर में खेला गया । उसी समय अमृतसर की घटना हुई थी और जबलपुर में धारा एक सौ चवालीस लगी थी । कार्यक्रम स्थल से हमें पंजाब बारात घर जाना था, जहाँ हम लोग ठहरे हुए थे । यह दो ढाई किलोमीटर का रास्ता था । झुण्ड में जा नहीं सकते थे रास्ते में पुलिस खड़ी थी ।लेकिन हमें तो झुण्ड में ही जाना था। सुरेश ने ढोलक उठाई और बजाते हुए जनगीत गाना शुरू किया .. “जागे रहियो जागे रहियो जागे रहियो रे जागो रहियो रे सब तैयारी से ” ..हम लोगों ने उसका साथ देना शुरू किया तो पुलिस ने रोककर पूछा “ कौन हैं आप लोग ?” सुरेश ने कहा “ हम लोग कलाकार हैं भाई, हुड़दंगी नहीं “ पुलिस ने हमें जाने दिया। इप्टा के इस शिविर में हिमांशु राय, अरुण पाण्डेय, राजेंद्र दानी,राजकमल नायक और भी बहुत से मित्रों से मुलाकात हुई ।
फिर सुरेश से मुलाकातें बढ़ती गई। लगभग दो-तीन माह में मेरा एक चक्कर भोपाल का लग ही जाता था हम लोग घंटो चर्चा करते । भोपाल की गलियां, चौक, इब्राहिमपुरा, न्यू मार्केट, जाने कहां-कहां भटकते हुए हम लोग मार्क्सवाद, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद,अस्तित्ववाद, फ्रांसीसी क्रांति से लेकर रूस की क्रांति पर बात करते । देश विदेश के कवि लेखक और रंगकर्मी,आन्दोलनकर्ता हमारी बातों में शामिल होते । कई कई मित्रों के घर जाते । उन दिनों कुछ ऐसा ही हो रहा था कि मैं अपने शहर में कम और भोपाल में अधिक रहने लगा था ।
सुरेश स्वप्निल ने हिन्दी साहित्य के अनेक लोगों से मेरा न केवल आभासी बल्कि भौतिक परिचय भी करवाया । डॉ.कमला प्रसाद, भगवत रावत, राजेश जोशी, राजेंद्र शर्मा, रामप्रकाश त्रिपाठी इन सबके घर पहली बार सुरेश के साथ ही जाना हुआ । सुरेश उस समय बुधवारा में रहता था । ईद की सेवइयों की खुशबू से भरी चटाईपुरा की उन गहरी गलियों में भीतर की ओर उसका किराये का मकान था । मैं उस गली को ग़ालिब की गली कहा करता था । घर के सामने ही एक गोश्त की दुकान थी जहाँ खूंटियों पर कटे हुए बकरे लटका करते थे । एक दिन मैंने पूछा “यार यह बकरे कौन से साइज के हैं ? इतना बड़ा बकरा तो मैंने नहीं देखा ।“ तो उसने कहा “वह बड़ा ही है ।“ मुझे बहुत बाद में समझ में आया कि यहां ‘बड़े’ का क्या मतलब होता है । यद्यपि मेरा ग्रेजुएशन रीजनल कॉलेज भोपाल में हुआ था लेकिन पढाई के बोझ और हॉस्टल में रहने के कारण उस दौरान मैंने भोपाल बहुत कम देखा था। सुरेश के साथ भोपाल घूमने का यह अनुभव अद्भुत था। घूमते हुए भी विभिन्न विषयों पर हम लोगों की बातें जारी रहतीं । मैंने न केवल पूरा भोपाल सुरेश के साथ घूमा बल्कि इतनी बातें भी मैंने जीवन में कभी किसी से नहीं कीं । मेरी पूरी सांस्कृतिक साहित्यिक समझ इसी दौरान विकसित हुई ।
चौरासी की बरसात ख़त्म हो गई थी और शरद ऋतु का आगमन हो चुका था । वह अक्टूबर की चार तारीख थी कि अचानक वह दुर्ग आ गया पत्नी और बिटिया सहित । मैंने उससे नहीं पूछा “ कि अचानक ऐसा क्या हुआ ? क्योंकि उन दिनों चलन ही कुछ ऐसा था कि दोस्त बिना बताये एक दूसरे के घर जा धमकते थे, उसके लिए फोन से पूछना या सूचित करना ज़रूरी नहीं होता था । उसने पहले तो कुछ नहीं कहा फिर धीरे से बताया कि उसके नाटक ‘काना राजा अंधा देश’ का मंचन अभी भोपाल में हुआ है और उसके बाद से नाटक को व्यवस्था विरोधी नाटक बताकर पुलिस उसके पीछे पड़ गई है सो वह छुपकर यहां आ गया है ।“ मैंने कहा “ निश्चिन्त रहो , यहाँ किसी को कुछ पता नहीं चलेगा, सबसे यही कहूँगा कि तुम पारिवारिक यात्रा पर आये हो ।“
मेरी बैचलर हट यानि मेरा कमरा पहले से जिंदाबाद था और कई दिनों बाद इतने लोगों की आवाजाही से फिर आबाद हो गया था । पकाने खाने की व्यवस्था नहीं थी। उसकी चिंता भी नहीं थी क्योंकि थॉमस के मेसनुमा कॉफ़ी हाउस में मेरा खाता चलता था जहाँ मेरे तमाम मित्र चिकन और मलाई कोफ्ता खाकर कॉपी में उधार लिखवा दिया करते थे । सुरेश,कविता, सौम्या यहाँ आये तो मेरे कमरे में यहां के साहित्यिक ग़ैर साहित्यिक दोस्तों की महफ़िलें जमने लगी । मनोज रूपड़ा, कैलाश बनवासी, शरद शर्मा, डॉ. नरेन्द्र वर्मा, डॉ. उज्वला, अरविन्द सिंह, राजेश श्रीवास्तव, महावीर अग्रवाल, मुकुंद कौशल , वगैरह । हम लोग रोज़ घूमते फिरते, मस्ती करते, कविताएं सुनाते, होटल में खाना खाते, दोस्तों के घर पर भी खाना खाते । मेरी बहन सीमा भी उस बीच यहाँ आ गई थी। एक दिन मैत्री बाग़ में हम लोगों ने शरद पूर्णिमा भी मनाई और फिर रात भर बैठकर गाने गाते रहे जिनकी रिकार्डिंग भी मैंने कर ली । बाद की उसकी यात्राओं में भी दुर्ग भिलाई के लगभग सारे मित्रों से उसकी दोस्ती हो गई रवि श्रीवास्तव, विनोद मिश्र , विनोद साव , मुमताज़ , परमेश्वर वैष्णव, लोकबाबू, आदि । और यह सिलसिला चलता रहा ।
उन्हीं दिनों रायपुर में मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन भी संपन्न हुआ जिसमें सुरेश और कविता भी शामिल हुए । हम लोग रायपुर के आजाद चौक के पास ब्राह्मण पारा में पत्रकार निर्भीक वर्मा के घर में रुके थे । निर्भीक वर्मा जिन्हें हम लोग कप्पू भैया कहते थे ने एक आदिवासी स्त्री से प्रेम विवाह किया था । भाभी बहुत सुन्दर थीं यद्यपि उन्हें ठीक से हिंदी बोलना नहीं आता था लेकिन हम लोग फिर भी उनसे बतियाते थे । कुछ वर्षों बाद कप्पू भैया नहीं रहे थे । उस अधिवेशन में मायाराम सुरजन जी, ललित सुरजन जी, प्रभाकर चौबे जी और मध्य प्रदेश के समस्त साहित्यकार इस उपस्थित थे। ललित सुरजन भैया ने बहुत अच्छी व्यवस्था की थी । ‘देशबंधु’ का समस्त स्टाफ व्यवस्था में लगा था ।
हम लोग तीन चार दिन वहां रुके । जैसे मुझे सुरेश ने भोपाल घुमाया था वैसे ही मैंने उन लोगों को रायपुर घुमाना शुरू किया। हम लोग कई लोगों के घर गए और मुलाकातें की , विनोद कुमार शुक्ल, ललित जी, प्रभाकर चौबे जी और रायपुर के तमाम हमउम्र मित्र गिरीश पंकज, आलोक वर्मा, संजय श्याम, नंद कंसारी, आलोक चौबे , जीवेश चौबे, निसार अली और इप्टा के साथियों से मुलाकात हुई। छत्तीसगढ़ के भी तमाम साहित्यकारों,जीवन यदु, गोरेलाल चंदेल, एकांत श्रीवास्तव, माझे अनंत, पथिक तारक आदि से सुरेश का परिचय हुआ । सुरेश को उसके नाटक चार टांगें की वज़ह से प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा के तमाम साथी जानते थे । ‘देशबंधु’ के लोग भी उसे अच्छी तरह जानते थे ।
फिर जैसे ही मामला कुछ शांत हुआ सुरेश परिवार सहित भोपाल लौट गया । हम दोनों का यह प्रेम इतना बढ़ चुका था कि अब अधिक दिनों तक तो हम लोग एक दूसरे से बिना मिले रह नहीं सकते थे सो नवम्बर के अंतिम सप्ताह में मेरा भोपाल का दौरा तय हो गया । फिर वह दिन आया भोपाल गैस कांड का यानि 2 दिसंबर 1984 । उस दिन इतवार था। मैं एक हफ्ते से भोपाल में ही था और चूँकि अगले दिन मंडे था और मुझे नौकरी ज्वाइन करनी थी मैं छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से निकला और सुबह दुर्ग पहुंच गया। शाम तक खबर मिल गई कि पिछली रात भोपाल में कहर बरपा है , जाने कितनी जाने चली गई हैं । मैं यह बात सोचकर आश्वस्त हुआ कि मैं गैस कांड के दो घंटे पहले ही निकल गया था लेकिन सुरेश उसके परिवार और भोपाल के मित्रों, रिश्तेदारों के बारे में बहुत चिंता हुई ।
चटाईपुरा बुधवारा का एरिया यूनियन कार्बाइड कारखाने के पास ही था । मैंने सुरेश को फोन लगाया लेकिन कहीं से कोई जवाब नहीं। पता चला सारे एक्सचेंज ही बंद है। मुझसे रहा नहीं गया और अगले ही दिन मैं छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस की जनरल बोगी में ऊपर वाले पटिये पर बैठकर सुबह छह बजे भोपाल पहुंच गया। दरवाज़ा खोलते ही सुरेश ने मुझे गले लगा लिया और कहा “ जिंदा हैं यार । “
सुरेश और कविता के अगले कई माह भोपाल गैस पीडित संघर्ष समिति के साथ काम करते हुए बीते । गैस ने ना जाने कितनी जानें ले ली थीं । गैस पीड़ितों को न्याय दिलाना ही उनका एकमात्र उद्देश्य था। मैं पहले की तरह बीच बीच में भोपाल जाया करता था और उन लोगों के साथ धरना स्थल पर भी जाता। डॉ. अनिल सदगोपाल,मेधा पाटकर और भी कई लोगों से मेरी मुलाक़ात वहां हुई । उन दिनों कविता कहानी सब छोड़कर हम लोगों का बस यही काम था ।
फिर दिन बीतते गए । सुरेश उन दिनों स्टेट बैंक ऑफ इंदौर की न्यू मार्केट शाखा में काम करता था । बैंक में इतना वर्क प्रेशर भी नहीं होता था । वह जल्दी जल्दी काम निपटाता और फिर हम लोग बाहर निकल जाते । न्यू मार्केट के इंडियन कॉफी हाउस में बैठकर कॉफी पीते, ,दोस्तों से मिलते, चर्चा करते, भारत भवन और अन्य जगहों पर होने वाले कार्यक्रमों में शामिल होते । मैं और सुरेश लगातार कविताएं लिख रहे थे । परसाई जी के निर्देशानुसार मैं अधिकतर अखबार में ही कविताएं छपने के लिए भेजता था । ‘आकंठ’ और ‘सापेक्ष’ में मेरी कविताएं आ चुकी थी। ललित सुरजन जी ‘देशबंधु’ में लगातार मेरी कविताएं छाप रहे थे । ललित भैया का सुरेश पर विशेष अनुराग था । वह बैंक की नौकरी से पहले ‘देशबंधु’ भोपाल में काम भी कर चुका था ।
लगभग दो-तीन महीने में मेरा एक चक्कर भोपाल का लगता था और मैं करीब करीब चार से छह रोज तो वहां रहता ही था। मेरी सारी छुट्टियां भोपाल में ही बीतती थीं । सुरेश के परिवार में जो अपनापन मुझे मिलता वह अन्यत्र दुर्लभ था । १९८३ में भोपाल से निकलने वाली एक पत्रिका ‘ अंतर्यात्रा’ में एक पुस्तिका के रूप में सुरेश की इक्कीस कविताएँ प्रकाशित हुईं थी । फिर भी कविता से ज्यादा उसका ध्यान उस समय उसका नाटकों में था । १९८५ से वह स्वतंत्र रूप से नाट्य निर्देशन करने लगा उसने काशीनाथ सिंह की कुछ कहानियों का नाट्य रूपांतरण और निर्देशन किया बच्चों और युवाओं के लिए नाट्य लेखन और अभिनय की जाने कितनी कार्यशालाएं आयोजित की । चार टांगें, काना राजा अँधा देश, दीवान-ए-आम, मृगछौने, हादसा जैसे उसके लिखे नाटक बहुत चर्चित हुए । भिलाई इप्टा के साथ मिलकर उसने अब्दुल बिस्मिल्लाह का लिखा नाटक ‘ दो पैसे की जन्नत’ भी निर्देशित किया । सुरेश को कविताओं से अधिक शौक नाटक का था । सुरेश और कविता ने अपनी नाट्य संस्था ‘जनरंग’ स्थापित की थी और युवा साथियों के साथ वह लगातार नाटक कर रहा था । बहुत सारे नये बच्चे उनके साथ थे । प्रोफ़ेसर कॉलोनी वाले उनके घर में अनेक रंगकर्मी और रंग निर्देशक आया करते थे ।
नाटकों का शौक उसे पुणे फ़िल्म इंस्टिट्यूट ले गया वहाँ से उसने फ़िल्म निर्देशन में स्नातक की डिग्री प्राप्त की । यहीं से सुरेश के जीवन में एक बदलाव की शुरुआत हुई । अच्छी खासी बैंक की नौकरी, नाट्य निर्देशन की दुनिया में बड़ा नाम, पुणे फ़िल्म इंस्टिट्यूट की डिग्री , चाहता तो वह एक सफल फ़िल्म या नाट्य निर्देशक के रूप में अपनी पहचान बना सकता था और नाम के साथ नामा भी कमा सकता था लेकिन वह कैरियरिज्म के खिलाफ था । उसकी इच्छा थी कि फ़िल्म के माध्यम से जन आंदोलनों की परम्परा का वह विकास करे और उस दौर में चर्चित आर्ट फ़िल्मों की तरह केवल फार्मूला, कलावादी या यथार्थवादी फ़िल्मों से अलग जनांदोलनों की भूमिका को बहुत कम लागत से बनाई फ़िल्मों के माध्यम से प्रस्तुत करे तथा जनसामान्य के बीच उनका प्रदर्शन करे ।
वह अपनी इस योजना के बारे में निरंतर विचार कर रहा था और उसे मूर्त रूप देने का प्रयास भी कर रहा था। हम सब मित्र भी उसके साथ थे और उसके साथ डिस्कशन भी करते थे । वह जानता था कि बिना पैसे के कुछ भी संभव नहीं है इस बात को लेकर उसे बहुत अधिक तनाव हो जाता था। फिर अचानक ऐसा कुछ हुआ कि बहुत अधिक तनाव या किसी जैविक कारण की वजह से उसे स्ट्रोक का सामना करना पड़ा और वह न्युरोसिस का शिकार हो गया । उस समय वैश्विक स्थितियाँ भी कुछ इस तरह थीं कि रूस में साम्यवाद का पतन हो चुका था और शक्ति संतुलन बिखर गया था प्रगतिशील सोच के अनेक बुद्धिजीवियों, संस्कृतिकर्मियों और आन्दोलन कर्ताओं को इससे निराशा हुई। सुरेश की सम्वेदनशीलता ने इस आघात को सहजता से स्वीकार नहीं किया। इस बीच उसकी नौकरी भी छूट गई और फिर १९९४ में एक दुर्घटना में इकलौती बेटी सौम्या का भी निधन हो गया ।
मुझे याद है जब उसकी बेटी का निधन हुआ सुरेश दुर्ग मेरे घर आया हुआ था। छत्तीसगढ़ के रंग व फ़िल्म निर्देशक संतोष जैन यह खबर लेकर आये। मैं और मनोज रूपड़ा उन्हें बिना बेटी के बारे में बताये भोपाल तक किस तरह ले गए यह कहना मुश्किल है । खैर, वह कहानी फिर कभी । लेकिन इन सब मानसिक दबावों की वज़ह से सुरेश निरंतर टूटता गया। आर्थिक, शारीरिक सभी मोर्चों पर यह संघर्ष था । फिर भी सुरेश बहुत संभला रहा । इसमें सबसे अधिक योगदान उसकी पत्नी का रहा । कविता जी ने जिस तरह ‘एकलव्य’ और अन्य संस्थाओं में छोटे मोटे कार्य करके घर को और सुरेश को संभाले रखा ऐसा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है ।
इस बीच मेरा विवाह १९८८ में हो गया था। उसके बाद भी निरंतर हम लोगों का मिलना जुलना चलता रहा। हम लोग एक दूसरे के परिवार के भी लोगों को अच्छी तरह से जानते रहे और पारिवारिक कार्यक्रमों में भी शामिल होते रहे । यद्यपि धीरे धीरे जीवन में बहुत से परिवर्तन आते गए और मेरा भी भोपाल जाना बहुत कम हो गया । साल में कई कई बार मिलने वाले हम दोस्त साल में एक बार मिलने लगे । कभी वह दुर्ग आ जाता कभी मैं भोपाल पहुँच जाता । मित्रों की शादियां होती गईं तो उसके स्नेह के परिवार में हम सब की जीवन संगिनियाँ भी शामिल होती गईं । मेरी पत्नी लता से और मनोज की पत्नी नीता रूपड़ा से उसकी खूब पटती थी । वह उनका बड़ा प्रिय सुरेश भाई था ।
यद्यपि मुलाकातें कम होतीं लेकिन फोन पर हम लोगों की बातें खूब होती थीं और यह एक बहुत बड़ा सहारा था । फिर २००८ में मैंने भी नौकरी छोड़ दी और लिखने पढ़ने में जुट गया। तब हिन्दी ब्लोगिंग शुरू हुई थी, सुरेश की भी उसमें रूचि बढ़ी। उसके लिए मैंने एक ब्लॉग बनाया ‘साझा आसमान’ और उस पर कैसे लिखें यह भी उसे सिखा दिया। फिर तो वह कुछ दिनों में ही सिद्धहस्त हो गया। उर्दू का तो उसे बेहतरीन ज्ञान था ही, उसने गज़लें लिखनी शुरू की और फेसबुक पर धूम मचा दी। फिर २०१५ में जब मेरा कविता संकलन ‘ हमसे तो बेहतर हैं रंग; ‘दखल प्रकाशन’ से आया तो सुरेश ने भी अपने इच्छा प्रकट की कि उसका भी एक ग़ज़ल संकलन आ जाए तो अच्छा होगा। मैंने ‘दख़ल’ से बात की और उसका ग़ज़ल संकलन ‘सलीब तय है’ भी २०१६ में आ गया, लेकिन वह इतना ख़राब छपा था कि सुरेश का दिमाग़ खराब हो गया। सुरेश की यह हमेशा से आदत रही कि वह क्वालिटी के साथ कोई समझौता नहीं कर सकता था। मेरे पहले कविता संकलन ‘ गुनगुनी धूप में बैठकर’ में खराब कविताओं के चयन और खराब छपने पर उसने जो गालियाँ लिखकर चिठ्ठी मुझे भेजी थी, वह आज भी मेरे लिए दिशा निर्देश का काम करती है ।
इन सब मन बहलाने के उपायों के बावजूद सुरेश की तबियत लगातार खराब रहने लगी थी । सुरेश से मेरी अंतिम मुलाकात २०१७ में रायपुर के छत्तीसगढ़ प्रदेश साहित्य सम्मलेन के अधिवेशन में हुई थी। वह भोपाल के अपने मित्रों के साथ आया था। वापसी का उसका रिज़र्वेशन भी उन्ही के साथ था। निरंजन धर्मशाला में उससे विदा लेते हुए मैंने उससे कहा भी कि “दुर्ग चलो” लेकिन उसने मना कर दिया। विदा लेते हुए वह मुझसे गले मिला। उसकी बहुत बुरी आदत थी कि वह मुझसे गले मिलते ही रोने लगता था, मैं जब उसे लेने स्टेशन जाता था तब भी और विदा करने जाता था तब भी । कई बार जब हम लोग भीड़ में गले मिलते वह मुँह छुपाकर रो लेता था । उस दिन उसकी लाल लाल आँखों में अजीब सी कातरता थी, जैसे वह कह रहा हो.. मुझे बचा लो यार, अभी मैं और जीना चाहता हूँ। लौटते हुए मुझे बार बार लगता रहा कि कार में उसे जबरदस्ती बैठा लेना चाहिए था ।
लेकिन मैं भी उसे घर में या इस दुनिया में और कितने दिन रोक पाता। उसके लंग्स का कैंसर बढ़ता जा रहा था । उसकी खबरें मिलती थीं लेकिन मेरी हिम्मत नहीं थी कि उसका सामना करूँ। फिर आई २२ दिसम्बर २०१९ की वह तारीख । मैं अपने दामाद के पैर के लिगामेंट के ऑपरेशन के सिलसिले में दिल्ली गया हुआ था। अचानक सुबह होटल में भोपाल से मनोज निगम का फोन आया .. “सुरेश भाईसाहब नहीं रहे। “ मुझे सुरेश के जाने की बिलकुल उम्मीद नहीं थी । लाख यथार्थवादी सही, मन यह मानने को तैयार ही नहीं होता था ।
तीन सौ से अधिक कविताएँ, पचास से अधिक व्यंग्य लेख, कई नाटक और ढेरों गज़लें वह अपने पीछे छोड़ गया है। छपवाने में उसे कोई इंटरेस्ट नहीं था। लेकिन उसके जाने के बाद कविता जी ने उसकी रचनाओं के प्रकाशन का बीड़ा उठाया है। मित्र मनोज निगम इसके लिए काफी भागदौड़ करते रहे और अब एक साल के भीतर यानि उनके पहले स्मृति दिवस के पहले उनकी तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमे दो कविता संकलन हैं पहला है ‘समय के विरुद्ध’ ( प्रेरणा पब्लिकेशन) ‘अगली पीढ़ियों के नाम’ ( बोधि प्रकाशन) और एक ग़ज़ल संकलन है ‘हवाओं से उम्मीद’ ( आईसेक्ट पब्लिकेशन ) पहली किताब ‘ समय के विरुद्ध’ का विमोचन पलाश सुरजन जी ने मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मलेन के बैनर तले पिछले दिनों भोपाल में करवाया है । इस संग्रह में सुरेश के बारे में हमारे कथाकार मित्र मनोज रूपड़ा ने और कविताओं पर कवि मित्र नासिर अहमद सिकंदर ने खूब अच्छा लिखा है ।
सुरेश की यह तमाम किताबें मेरे सामने रखी हैं। मैं भी चाहता हूँ कि जिस तरह सुरेश मेरी किताबों पर बेलाग बात करता था मैं भी उसकी किताबों पर उससे बात करूँ और कहूँ .. भाई तुम्हारी किताबें बहुत बढ़िया छपी हैं .. चलो जश्न हो जाए । लेकिन मुझे मालूम है अब कभी उसकी किताबों पर उससे बात करना संभव नहीं हो सकेगा .. ठीक है उससे न सही उसकी किताबों के बारे में आप सब से बात करूँगा । उसकी कविताओं पर, उसकी ग़ज़लों पर, उसकी शरारतों पर, उसकी चिठ्ठियों पर . उसके अन्य कामों व गुणों पर और उसके किस्सों पर भी .. लेकिन आज नहीं .. फिर कभी ..।
आज उसके जन्मदिन पर इन नम आँखों से मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ के हमारे तमाम दोस्तों की ओर से इस प्यारे दोस्त को प्यार, मोहब्बत से भरी श्रद्धांजलि ।
सुरेश स्वप्निल नाम पढ़ी तो लगा इनकी कविताएँ भोपाल निवास के दौरान पढ़ी बहुत ख़ूबलिखते थे