भावना विज अरोड़ा
“अब ध्रुवीकरण की राजनीति हिंदू-मुसलमान तक सीमित नहीं, उसमें जाति, संप्रदाय और क्षेत्रीयता के नए तत्व भी जुड़े” राजनीति हैरान करने वाले हालात पैदा कर डालती है। नरेंद्र मोदी भी बाइबल का हवाला दे सकते हैं। बेशक, यह केरल में 30 मार्च को घटित हुआ। प्रधानमंत्री पलक्कड़ की एक चुनावी रैली में बोल रहे थे, जिस जिले से कुछ ऊंचे पर्वतों के दर्रे तमिलनाडु की ओर ले जाते हैं। वे बाइबल की किंवदंतियों में विश्वासघात के किरदार जुडस का जिक्र कर रहे थे। तो, मोदी उससे किसकी तुलना कर रहे थे? जाहिर है, केरल की एलडीएफ सरकार की।
आज राजनीति की यह अजीब विडंबना है कि हिंदुत्व के मौजूदा दौर का नायक चंद चांदी के सिक्कों के लिए ईसा मसीह से दगा करने वाले बाइबल के पात्र की तुलना उस पार्टी से कर रहा है, जिसने कई दशक निरीश्वरवादी राजनीति करके गुजारे हैं। बेशक, हाल तक। वजह यह कि देवी-देवता और समाज से उनका नाता इन दिनों राजनैतिक मुद्दा हो चले हैं। प्रधानमंत्री ने केरल में चुनाव प्रचार के दौरान सबरीमला मंदिर के मुद्दे को भी उठाया और हर उम्र की महिलाओं के मंदिर प्रवेश से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद चले आंदोलन के दौरान पिनराई विजयन सरकार की कार्रवाई की आलोचना की। इस तरह, 21वीं सदी के भारत में भगवान अयप्पन और ईसा मसीह एक साथ नमूदार हुए हैं।
उसी दिन सैकड़ों मील दूर पश्चिम बंगाल में सुदूर पश्चिम के नंदीग्राम में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी ‘जय श्री राम’ के गूंजते नारे के साथ एक रोड शो किया, जहां धर्मभीरु बंगाली समाज आदिवासियों पर अपनी छाया डालने लगा है। यह भू-भाग पिछले एक दशक से भारतीय राजनीति में किंवदंती जैसा बन गया है, आप इस नाम की गूंज मलयालम फिल्मों में भी सुन सकते हैं। यही वह क्षेत्र है जिसने वामपंथी सत्ता को भी चुनौती दे डाली, जब उसने लोगों की जमीन की मिल्कियत के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश की। अब यहीं से हाल में भगवाधारी हुए शुभेंदु अधिकारी तब की अपनी नेता ममता बनर्जी को चुनौती दे रहे हैं और इस लड़ाई के अग्रिम मोर्चे में हैं। लड़ाई करो या मरो की है। वे अपनी पूर्व नेता पर थोड़ी भी हया नहीं बरत रहे हैं, उन्होंने उन्हें घुसपैठियों की ‘फुफु’ और रोहिंग्याओं की ‘खाला’ तक कह डाला। मुसलमान बिरादरी बुआ को फुफु और मौसी को खाला कहकर बुलाती है। और फिर वे वोटरों को चेताते हैं “अगर वे जीतीं, तो आप माथे पर तिलक नहीं लगा पाओगे, गले में तुलसी की माला नहीं डाल पाओगे, धोती भी नहीं पहन पाओगे।” इन दिनों ये बातें कोई गूढ़ नहीं हैं।
भाजपा के स्टार प्रचारक की तरह उभरे अमित शाह ने भी असम (जहां 36 फीसदी मुस्लिम आबादी है) के लोगों को “लव और भूमि जेहाद के खतरे” से मुक्ति दिलाने का वादा किया है। वहां निशाने पर खासकर कांग्रेस है, जो इत्र कारोबारी मौलाना बदरुद्दीन अजमल की अगुआई वाली एआइयूडीएफ के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ रही है। एआइयूडीएफ के ‘मुस्लिम’ पार्टी होने के नाते यह आरोप उछाला जा रहा है कि गठबंधन सीमा पार से घुसपैठ को बढ़ावा देता है।
केरल, बंगाल और असम में ही नहीं, हिंदुत्व की चिंगारी द्रविड़ राजनीति में भी धुआं पैदा कर रही है। आस्था और मंदिर के मुद्दे तमिलनाडु के चुनाव में चर्चा में आ गए हैं। खुलकर निरीश्वरवादी राजनीति करने वाली द्रमुक भी मंदिरों और श्रद्घालुओं के लिए वादे कर रही है। भाजपा के साथ गठबंधन में रम गई और उसकी साया जैसी लगने लगी अन्नाद्रमुक इससे नरम नहीं हुई। आस्था के सवाल पर अपने प्रतिद्वंद्वी एम.के. स्टालिन पर निशाना साधते हुए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ई. पलानीस्वामी ने 29 मार्च को एक रैली में दावा किया कि अन्नाद्रमुक के सदस्य ही सच्चे आस्थावान हैं। उन्होंने 2018 की एक घटना का जिक्र किया, जब द्रमुक नेता ने कथित तौर पर एक मंदिर दर्शन के बाद अपने माथे से कुमकुम ‘पोंछ’ डाला था। तमिलनाडु में राजनैतिक विमर्श का आज यह हाल है, जहां तकरीबन सदी भर से ‘तार्किक सोच-समझ’ का बोलबाला रहा है।
हाल के दशकों में भाजपा के उदय ने हिंदू धर्म की भावना को अवचेतन मन से आगे ला दिया है, जहां वह हमेशा से दबी हुई थी। नरेंद्र मोदी और अमित शाह के राज में यह मुखर हो गई है। 2014 के बाद से भाजपा की चुनावी जीत की लगातार कोशिशों, और बेझिझक हिंदुत्व के औजार के कामयाब इस्तेमाल ने देश में प्रतिस्पर्धी राजनीति का रंग-रोगन बदल दिया है। साफ है कि दूसरे दलों ने भी इस मजबूरी को भांपा और राह बदलने पर मजबूर हुए हैं।
ममता बनर्जी को ही देखिए। वे अब अपने हिंदू ब्राह्मण पहचान पर जोर दे रही हैं, चंडी और दुर्गा पाठ कर रही हैं और हुलसकर मंदिरों में जा रही है। हिंदुत्व के चौराहे पर भीड़ बढ़ती जा रही है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने चुनाव पूर्व अपने चर्चित ‘मंदिर दर्शन’ से पहला संकेत दिया था कि कैसे 2019 में इस अफसाने की बयार लौट आई है। उसका उन्हें बहुत लाभ नहीं मिला। अब लगता है कि उन्होंने अपनी पार्टी को बेहतर हिंदू की तरह पेश करने की कोशिश छोड़ दी है। ‘धर्मनिरपेक्ष’ साख दिखाने की बेताबी अतीत की बात हो चली है। इसी वजह से कांग्रेस ने असम में बदरुद्दीन अजमल और पश्चिम बंगाल में इंडियन सेकूलर फ्रंट (आइएसएफ) के साथ हाथ मिलाया है, केरल में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आइयूएमएल) तो पुराना साथी है। नेहरू-गांधी खानदान के वारिश अब युवाओं को लुभाने के लिए जनेऊ के बदले अपने गंडे (ऐब्स) दिखाने लगे हैं।
पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, असम और पुदुच्चेरी के चुनाव प्रचार से अब साफ हो चला है कि राजनीति की धारा ने भारतीय समाज में मौजूद ध्रुवीकरण की परतों को न सिर्फ खोल दिया है, बल्कि और धारदार बना दिया है।
अभी तक के संदर्भ मुख्य रूप से धर्म के हैं। लेकिन क्षेत्रीय पहचान और जाति भी अहम हो गई है। अब यह हिंदू-मुस्लिम से कहीं आगे निकल चुका है। अब ध्रुवीकरण की कहानी केरल में ईसाई धर्म, तमिलनाडु की नडार जाति, पश्चिम बंगाल के मतुआ, कुर्मियों और राजबंसियों जैसे समुदायों तक पहुंच गई है, जो क्षेत्रीय पहचान पर भारी पड़ रही है। असम तो इसका जीता-जागता उदाहरण है।
सामाजिक इतिहासकार बद्री नारायण का मानना है, “भाजपा की ध्रुवीकरण की रणनीति में बड़ा बदलाव आया है। बंगाल इस आक्रामक खेल का प्रमुख उदाहरण है। वास्तव में, इसे ध्रुवीकरण के रूप में देखना सही नहीं है। यह अब भाजपा के लिए पुरानी रणनीति हो चुकी है। वहां पार्टी हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के लिए नहीं गई है। इसके बजाय, उसने जाति और समुदाय के आधार पर गोलबंदी का विकल्प चुना है। वह भद्रलोक बनाम गैर-भद्रलोक के ध्रुवीकरण पर उतर आई है। पार्टी ने हाशिए के ओबीसी, मतुआ और आदिवासी समूहों को लुभाया है।” नारायण की नवीनतम पुस्तक रिपब्लिक ऑफ हिंदुत्व आरएसएस के हवाले से बताती है कि भाजपा इसका कैसे चुनावी इस्तेमाल करती है।
उनके अनुसार, भाजपा हाशिए के समुदायों के नायकों और देवी-देवताओं का इस्तेमाल करती है और उन्हें अपनी हिंदुत्व की राजनीति से जोड़ लेती है। प्रधानमंत्री मोदी अपनी हालिया बांग्लादेश की यात्रा के दौरान ओरकंडी के प्रमुख मतुआ मंदिर में भी गए। उन्होंने मतुआ संप्रदाय के प्रमुख स्वर्गीय बोरो मां बीनापानी देवी का आशीर्वाद लेकर 2019 के बंगाल अभियान की शुरुआत की थी। मतुआ पश्चिम बंगाल में सबसे बड़े दलित समुदायों में एक है, जो दशकों पहले पूर्वी बंगाल से चले आए थे और उसे ‘लंबा बंटवारा’ कहा जाता है।
इन सब में आरएसएस की अहम भूमिका है, क्योंकि वह समाज में होने वाले परिवर्तनों पर करीबी नजर रखता है। यह खासकर पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में काफी हद तक सच है। नारायण बताते हैं, “उसका फीडबैक भाजपा को यह तय करने में मदद करता है कि किस जाति या समुदाय के लिए काम करना है।” उनका कहना है कि टीएमसी को भी ध्रुवीकरण की जरूरत है, ताकि वह आश्वस्त हो सके कि उसके पक्ष में 30 फीसदी मुस्लिम वोट कायम रहे। हालांकि यह जोखिम भरा है क्योंकि इससे भाजपा को ही मदद मिलती है।
असम में यह खेल अधिक जटिल है। भाजपा ने भक्ति आंदोलन के हवाले हिंदुत्व चेतना जगाने के लिए असमिया भावना को पीछे धकेलने की कोशिश की है। पार्टी के स्टार प्रचारक अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित कई भाजपा नेताओं ने “भक्ति आंदोलन” की बातें रैलियों में की हैं। वे 15वीं-16वीं सदी के संत और कवि श्रीमंत शंकरदेव के नाम का इस्तेमाल करते हैं, जिन्हें असमिया संस्कृति का प्रतीक माना जाता है। लेकिन वे प्रमुख वैष्णव संत भी हैं, इसलिए भाजपा की राजनीतिक योजना में फिट बैठते हैं।
भाजपा आइटी सेल के संस्थापकों में एक, प्रदीप बोरा का मानना है कि ध्रुवीकरण पार्टी की राजनीति का रणनीतिक का आधार है। वे 2015 में भाजपा को छोड़कर असम में लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी (एलडीपी) की स्थापना कर चुके हैं। वे असम में “मुस्लिमों की संख्या” का भी हवाला देकर कहते हैं कि यह ऐतिहासिक बहस का मामला है, जिसके आसपास इस राज्य में राजनीति दशकों से घूमती रही है। भाजपा की राजनीति आंशिक रूप से केवल असमियों के साथ मेल खाती है। यहां बाहरी लोगों के खिलाफ काफी नाराजगी है और यह केवल मुसलमानों तक सीमित नहीं है। हालांकि, बोरा ने कहा कि 2021 की जनगणना में मुस्लिम आबादी 36-37 फीसदी तक जा सकती है। 2016 के विधानसभा चुनाव में राज्य के कुल वोटों में भाजपा को केवल 30 प्रतिशत वोट मिले थे, लेकिन विपक्ष में बंटवारे से उसे जीत मिल गई। उन्होंने कहा, “इस बार भी भाजपा विपक्ष को बांटने में कामयाब हो रही है। हालांकि, कांग्रेस और एआइयूडीएफ का गठबंधन मुस्लिम वोटों को गोलबंद करेगा। लेकिन एकतरफा जीत के लिए यह पर्याप्त नहीं हो सकता है।”
मोदी-शाह के नेतृत्व में भाजपा ने कभी मुस्लिम वोट पाने की कोई कोशिश नहीं की है। पार्टी के नेताओं का मानना है कि उन्हें लुभाने की कोशिश करने से अच्छा है कि दूसरे पक्ष को लुभाया जाए। लेकिन केरल जैसे राज्य में उनकी यह रणनीति कारगर नहीं जहां मुस्लिम आबादी 27 प्रतिशत है।
इसलिए राज्य में भाजपा के लिए ज्यादा बढ़त बनाना मुश्किल है। केरल जटिल राज्य है, जहां की खास राजनीतिक संस्कृति है, जिसमें भगवा राजनीति के लिए मजबूत तत्व मौजूद नहीं हैं। इसलिए उसका प्रयास वहां सफल नहीं होता है। केरल की ईसाई आबादी लगभग 18 प्रतिशत है। उसने भी ध्रुवीकरण की रणनीति में एक नया आयाम जोड़ा है। भाजपा ईसाइयों के बीच में अपनी पहुंच बना रही है। फिलहाल, सीरियाई आर्थोडक्स चर्च के साथ उलझे जैकोबाइट स्वाभाविक रूप से उसकी रणनीति के मोहरे हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने ईसा मसीह से दगा करने वाले जुडस का हवाला महज संयेगवश नहीं दिया था। यह सोची-समझी रणनीति थी। यह ईसाइयों को लुभाने का अंदाज था। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता स्वीकार करते हैं, “भगवा पार्टी केरल में चुनावी लाभ हासिल करने से काफी दूर है। हालांकि वोट हिस्सेदारी में वृद्धि की संभावना है। यह ऐसा गढ़ है जिसमें थोड़ा समय लगेगा लेकिन जीत निश्चित मिलेगी।” वे पूछते हैं, “क्या किसी ने सोचा था कि भाजपा टीएमसी के लिए मुख्य चुनौती बनकर उभरेगी और पश्चिम बंगाल जीतने के इतने करीब पहुंच जाएगी?”
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के निदेशक संजय कुमार कहते हैं, “भाजपा केवल हिंदू-मुस्लिम राजनीति तक सीमित नहीं है। पहले चार चरणों में सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण की संभावना कम है। उसके बाद अगर भाजपा को लगता है कि वह जीत नहीं रही है, तो हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण शुरू कर देगी। अंतिम चार चरणों में मुस्लिम मतदाताओं की बड़ी संख्या है। ऐसे में ध्रुवीकरण करने का प्रयास किया जा सकता है। अब तक भाजपा बहुत हद तक ममता बनर्जी के दस साल के शासन, भ्रष्टाचार और हिंसा के खिलाफ सत्ता विरोधी रुझान पर ही जोर दे रही है। कुमार कहते हैं, “अगर पार्टी तीसरे चरण के चुनाव के बाद बिहार चुनावों के तरह जीत हासिल करने में आश्वस्त नहीं होगी तो वह ध्रुवीकरण का सहारा ले सकती है।”
तमिलनाडु के बारे में वे कहते हैं, “भाजपा अच्छी तरह समझती है कि उसे पीछे रहकर काम करना है और अपने सहयोगी अन्नाद्रमुक को बढ़त दिलानी है। भाजपा दक्षिणी राज्य में हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान जैसे तेवर का प्रचार नहीं कर सकती। तमिलनाडु के मतदाताओं के लिए यह दुश्मन जैसा है। भाजपा अकेली राष्ट्रीय पार्टी नहीं है, जो अपने आप को इस राज्य में छोटा पाती है। कांग्रेस भी द्रमुक के सहयोगी की भूमिका निभा रही है, कांग्रेस 234 सीटों में से केवल 25 पर लड़ रही है। लेकिन यह सब संक्रमणकाल हो सकता है। “
नारायण को लगता है कि विपक्ष का स्थान तेजी से कम हो रहा है, और जब तक कांग्रेस और अन्य दलों के पास माकूल जवाबी रणनीति नहीं होगी, भाजपा देश भर में अपना विस्तार करने में सफल रहेगी। और इसका मुख्य कारण है उसकी राजनीतिक शब्दावली जो भारतीय समाज में मौजूद सामाजिक दरारों को तीखा करती है। दरअसल हर जगह राजनीति बदल रही है।
सौज- आउटलुक